बच्चे नहीं, समाज और व्यवस्था के विवेक का अपहरण हुआ है!
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बच्चे नहीं, समाज और व्यवस्था के विवेक का अपहरण हुआ है!

भारत में बहुत तेज़ी से सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था के तहत बच्चों की सुरक्षा व्यवस्था कमज़ोर हो रही है. बच्चे घर और परिवार में भी अकेले होने लगे हैं. 

बच्चे नहीं, समाज और व्यवस्था के विवेक का अपहरण हुआ है!

यह नहीं पता है कि पश्चिम बंगाल में बच्चों की हालत क्या है? आंकड़े थोड़ी बहुत जानकारी देते हैं. द गार्जियन अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट से सियादाह रेलवे स्टेशन पर बच्चों के अपहरण और उनके गुमने की स्थिति का पता चलता है. वैसे बहुत साफ़ जानकारी उपलब्ध नहीं है कि सियादाह स्टेशन के 20 प्लेटफॉर्म पर कितने बच्चे आते हैं, गुमते हैं.. पर द गार्जियन की यह रिपोर्ट बताती है कि जून 2016 से मई 2017 के बीच इस स्टेशन पर 1628 गुमे/अपहृत बच्चों को छुडाया/पाया/खोजा गया. ये बच्चे दुविधा में होते हैं, डरे हुए होते हैं, 4 साल की उम्र तक के बच्चे पाए गए और इनमें से ज्यादातर लड़कियां होती हैं.

सामाजिक-लैंगिक भेदभाव, आर्थिक-रोज़गार का संकट और जिंदगी की बदलती प्राथमिकताएं देश में बच्चों के अपहरण और और उनके अपने घर से भाग जाने का सबसे माकूल आधार बन रही हैं. मध्यप्रदेश में छिंदवाड़ा के बालिका छात्रावास में एक लड़की को कॉल सेंटर में नौकरी दिलाने के बहाने से नागपुर लाया गया और वहां उसे लड़कियों के खरीद-फ़रोख्त करने वाले गिरोह को बेच दिया गया. बाद में एक पुलिस कार्रवाई के दौरान पता चला कि वहां देह व्यापार करवाया जाता है. तब जाकर यह कहानी खुली. 

बच्चे मान-अपमान बहुत गहरे तक महसूस करते हैं. बडवानी जिले के सेंधवा में 7 साल की शीतल को उसकी मां ने डांटा. शीतल सेंधवा की छोटी मस्जिद के बाहर भीख मांग रही थी. इस पर उसकी मां नाराज़ हुई, क्योंकि उसका कहना था कि हमारी स्थिति ऐसी नहीं है कि हमें भीख मांगनी पड़े. इसके बाद मां की बात का बुरा मानकर शीतल ने भीख मांगकर जो पैसे इकट्ठे किए थे, उसे लेकर वह घर से बाहर निकली. अपने आस-पड़ोस के चार और बच्चों को अपने साथ लिया. सेंधवा के पुराने बस स्टेंड गई और वहां से बाकयदा बस का टिकट लेकर 57 किलोमीटर दूर खेतिया गांव पंहुच गई. इन सबके गुम होने की रिपोर्ट सेंधवा पुलिस स्टेशन में दर्ज हुई. 28 जून को सूचना मिली कि कुछ बच्चे पानसेमल में बस से जाते हुए देखे गए हैं. आखिर में बच्चे मिल गए.

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मध्यप्रदेश के सागर रेलवे स्टेशन पर एक मजदूर परिवार देर रात दिल्ली से लौटा. उन्हें सुबह ही सागर के बंडा जाना था. एक युवक वहां आकर उनकी डेढ़ साल की बच्ची के साथ खेलने लगा. थके होने के कारण मां की नींद लग गयी. जब नींद खुली तो बच्ची और युवक दोनों गायब थे. एक प्रत्यक्षदर्शी ने बताया कि खिलाते-खिलाते वह युवक बच्ची को अपने साथ ले गया. आपसी विश्वास के टूटना बच्चों के अपहरण का एक बड़ा आधार है.

पता नहीं यह तथ्य आपको कितना हिलाएगा? हिलाएगा भी कि नहीं, पता नहीं! बच्चों के अपहरण के 54,723 मामलों में से 39,842 (73 प्रतिशत) लड़कियां थी. इनमें से 16,937 का अपहरण शादी के मकसद से किया जाना दर्ज किया गया है. बहरहाल इसका एक महत्वपूर्ण सामाजिक पक्ष यह भी है कि नाबालिग लड़कियों द्वारा प्रेम किए जाने या जाति-भिन्नता होने पर मोहब्बत की स्थितियों में घर छोड़कर चले जाने पर परिजन अपहरण का मामला ही दर्ज करवाते हैं. 2016 में दर्ज कुल मामलों में से 10,986 में बच्चों की तलाश नहीं हो सकी थी. 

समग्रता में देखने पर चित्र भयावह और चेहरा बहुत ज्यादा कुरूप नज़र आता है. वर्ष 2001 से 2016 के बीच भारत में 2,49,383 बच्चों का अपहरण हुआ. इनमें 56 प्रतिशत मामले तो केवल उत्तरप्रदेश (45,953), दिल्ली (43,175), महाराष्ट्र (25,626) और मध्यप्रदेश (23,563) में ही दर्ज हुए हैं. वास्तविकता यह है कि ज्यादातर मामलों में बच्चों की तस्करी के मामलों को छिपाया जाता रहा है. अदालत की सक्रियता से बाल व्यापार को गंभीरता से लिया जाना शुरू हुआ है.

सच तो यह भी है कि बच्चों के साथ यौन व्यवहार, नशीले पदार्थों की तस्करी, भीख मंगवाने और अपराधों के लिए संगठित आपराधिक समूह बच्चों का अपहरण करते रहे हैं. इस तरह के मामलों में पुलिस व्यवस्था की भूमिका हमेशा सवालों के घेरे में रही है. साफ़ जाहिर है कि बच्चों के अपहरण के मामलों में इन सोलह सालों में खूब वृद्धि हुई है.

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कर्नाटक में वर्ष 2001 में इस श्रेणी में 14 मामले दर्ज हुए थे, जो वर्ष 2016 में बढ़कर 2,144 हो गए. मध्यप्रदेश में इन सालों में बाल अपहरण के मामले 100 से बढ़कर 6,016 हो गए, यानि 5,916 प्रतिशत की वृद्धि. इसी तरह महाराष्ट्र में बच्चों के प्रति इस अपराध की संख्या 210 से बढ़कर 7,956, उत्तरप्रदेश में 1,185 से बढ़कर 9,657 और दिल्ली में 612 से बढ़कर 5,935 हो गई. महाराष्ट्र में इस तरह के मामलों में 3,689 प्रतिशत, उत्तरप्रदेश में 715 प्रतिशत, कर्नाटक में 15,214 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 4,758 प्रतिशत की वृद्धि हुई.

यह देखना महत्वपूर्ण है कि कुछ राज्यों में वर्ष 2001 से 2010 से 2010 से 2016 की वर्ष अवधि में अलग-अलग तरह के बदलाव देखे जा रहे हैं. आंध्र प्रदेश में 2010 तक बच्चों के अपहरण में 919 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, किन्तु 2010 से 2016 के बीच इसमें 15 प्रतिशत की कमी आई. यही बात बिहार राज्य के सन्दर्भ में दिखाई देती है कि पहले वहां 5127 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो वर्ष 2010 के बाद 140 प्रतिशत रही. मध्यप्रदेश में 2001 से 2010 के बीच 340 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि बाद के वर्षों में वृद्धि 1267 प्रतिशत दर्ज की गई.

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बच्चों का गुम होना...
एनसीआरबी की रिपोर्ट (2016) बच्चों की असुरक्षा के एक और पहलू की तरफ हमें ध्यान देने के लिए मजबूर करती है. इसके मुताबिक अकेले वर्ष 2016 में भारत में 63,407 बच्चे गुम हुए. इनमें से 41,067 लड़कियां थीं. यह उल्लेख कर देना जरूरी है कि इसके पहले के वर्षों में (दिसंबर 2015 तक) भारत में गुमे हुए कुल बच्चों में से 48162 बच्चों की तलाश नहीं हो सकी थी. जिन बच्चों की तलाश नहीं हो पाई, उनमें से 29,327 लड़कियां थी. यदि इन दोनों श्रेणियों (पहले से गुम बच्चे और वर्ष 2016 में गुम बच्चे) को जोड़ा जाए, तो पता चलता है कि वर्ष 2016 की स्थिति में 1,11,569 बच्चे गुम (या मिसिंग) थे. जिनमें से 70,394 लड़कियां थी.

पहले से गुम बच्चे– राज्यों की स्थिति (वर्ष 2015 तक)
ऐसे गुम बच्चों की संख्या, जिन्हें खोजा नहीं जा सके हैं, उनकी भारत में सबसे ज्यादा संख्या पश्चिम बंगाल (8,546; लड़कियां 6,300), दिल्ली (7,740; लड़कियां- 4,554), महाराष्ट्र (5,594; लड़कियां– 3,295), ओडिशा (3,890; लड़कियां– 2,852) और मध्यप्रदेश (3,565; लड़कियां– 2,585) में रही. 

वर्ष 2016 में गुम बच्चे– राज्यों की स्थिति
वर्ष 2016 में भारत में गुम हुए 63,407 बच्चों में से सबसे ज्यादा बच्चे मध्यप्रदेश (8,503; लड़कियां– 6,037), पश्चिम बंगाल (8,335; लड़कियां– 5,986), दिल्ली (6,921; लड़कियां– 3,982), बिहार (4,817; लड़कियां– 3,730) और तमिलनाडु (4,632; लड़कियां– 3,162) गुम हुआ.

बच्चों की खोज...
वर्ष 2016 तक गुम रहे 1,11,569 बच्चों में से आधे बच्चों (55,944) की खोज की जा सकी; शेष आधे बच्चे तलाशे नहीं जा सके. सबसे ज्यादा बच्चे मध्यप्रदेश (8,197; लड़कियां 5,692), दिल्ली (5,863; लड़कियां – 3,235), पश्चिम बंगाल (5,388; लड़कियां 3,848) और तमिलनाडु (4,660; लड़कियां- 3,202) में खोजे गए.

बहरहाल वर्ष 2015 के अंत में गुम बच्चों की संख्या 48,162 थी, जो वर्ष 2016 के अंत में बढ़कर 55,625 हो गई. सबसे ज्यादा बच्चे पश्चिम बंगाल (11,493; लड़कियां– 8,438), दिल्ली (8,798; लड़कियां 5,301), महाराष्ट्र (5,625; लड़कियां– 3,169) और ओडिशा (5,202; लड़कियां– 3,836) लगातार मिसिंग थे.

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भारत में बहुत तेज़ी से सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था के तहत बच्चों की सुरक्षा व्यवस्था कमज़ोर हो रही है. बच्चे घर और परिवार में भी अकेले होने लगे हैं. इंटरनेट और नई जीवनशैली उन्हें बहुत जोखिम वाले कामों की तरफ धकेल रही है, लेकिन हम खतरे को भांप नहीं पा रहे हैं. लगभग 30 प्रतिशत बच्चे अपनी शिक्षा व्यवस्था और आसपास के व्यवहार के कारण घर से भाग रहे हैं. असुरक्षित बच्चे अपराध, नशे, बंधुआ श्रम, भिक्षा वृत्ति और यौन शोषण के लिए इस्तेमाल किये जा रहे हैं.

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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