#Gandhi150: गांधी के समाजवाद को किसने लगाया पलीता?
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#Gandhi150: गांधी के समाजवाद को किसने लगाया पलीता?

यह समाजवाद के प्रति गांधी की आस्था का ही नतीजा था कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी सरदार पटेल या राजेन्द्र प्रसाद के बजाय एक ‘समाजवादी’ जवाहरलाल नेहरू को बनाया. गांधी को लगता था कि नेहरू की समाजवाद में आस्था वास्तविक है.

#Gandhi150: गांधी के समाजवाद को किसने लगाया पलीता?

मार्क्सवादी इतिहासकार रजनी पाम दत्त ने महात्मा गांधी को बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधि बताया था. आज भी गांधी को पूंजीपतियों का प्रतिनिधि बताने वाले लोगों की कमी नहीं है. पर क्या गांधी वास्तव में पूंजीपतियों के प्रतिनिधि थे? अगर नहीं, तो उनके बारे में ऐसी भ्रांति क्यों फैली? क्या गांधी समाजवादी विचारधारा के पोषक नहीं थे? अगर गांधी समाजवादी थे, तो क्या आज का भारत उनके बताए मार्ग पर चल रहा है? गांधी को लेकर ऐसे अनेक सवाल हैं, जो आज की पीढ़ी के मन में कौंधते रहते हैं, जिन पर विचार करना प्रासंगिक है.

समाजवादियों-साम्यवादियों से अलग तरीका
ऐसे लेखकों-विचारकों की कमी नहीं है, जो गांधी की मार्क्स से तुलना करने का मोह नहीं रोक पाते. मार्क्स की तरह गांधी ने समाज के विकास की ऐतिहासिक अवधारणा पेश करने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्होंने सिद्धांतों की अपेक्षा किए बिना सत्य और न्याय के आधार पर कर्म शुरू किया. तत्कालीन भौतिक परिस्थितियों के प्रति मार्क्स के अत्यधिक रुझान के कारण उनका समाजवाद कुछ ज्यादा ही संकीर्ण हो गया. मार्क्स की धारणा के मुताबिक जर्मनी, इंग्लैंड जैसे औद्योगिक देशों में साम्यवादी क्रांति नहीं हुई. औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े रूस में क्रांति जरूर हुई, जिसकी अपेक्षा मार्क्स को नहीं थी. दूसरी ओर गांधी नई सभ्यता के निर्माण के लिए ऐसी अवधारणाओं के प्रति कुछ ज्यादा ही शंकालु थे, इसलिए उनका समाजवाद कुछ ज्यादा ही काल्पनिक हो गया.

यह सही है कि गांधी वर्ग-संघर्ष के पक्षधर नहीं थे, लेकिन इससे यह अर्थ निकालना उचित नहीं होगा कि वे निर्धनता और असमानता उन्मूलन जैसे समाजवादी लक्ष्यों से ओत-प्रोत नहीं थे. उनका तो यहां तक मानना था कि वे अधिकतर समाजवादियों और साम्यवादियों की तुलना में इस भावना से ज्यादा गहराई जुड़े हैं. उनकी नजर में ये लोग राजनीतिक कारणों से इसकी ज्यादा बातें करते थे. गांधी ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ चलाए जाने वाले राष्ट्रीय आंदोलन में प्रवेश के समय से ही पूंजीवाद के विभिन्न तत्वों के आलोचक थे, लेकिन वे कारखानों के राष्ट्रीयकरण के मसले पर समाजवादियों के तौर-तरीकों से सहमति नहीं रखते थे. वे हिंसा या जोर-दबाव के बजाय कारखाना मालिकों के सहयोग के आधार पर इस लक्ष्य को हासिल करना चाहते थे.

गांधी की यह सोच महज मानवीय सिद्धांतों से ही प्रेरित नहीं थी, बल्कि इसके पीछे राजनीतिक कारण भी थे. हिंसक क्रांति का रास्ता अख्तियार करने पर राज्य को हिंसा का मौका मिल जाता और उनके आंदोलन को दबा दिया जाता. यही वह बिंदु था, जहां गांधी का अधिकतर समाजवादियों से बुनियादी अंतर पैदा हो जाता था और जिससे उनके बारे में भ्रम पैदा हो जाता था. समय की चाल ने यह साबित किया कि गांधी अपने समय से आगे सोच रहे थे. बंदूक के जरिये संपत्ति का समाजीकरण की चाह रखने वाले माओवादियों की विफलता अंततः गांधी के ही दृष्टिकोण को सही साबित करती है.

गांधी को नहीं मिला समर्थन
दरअसल, गांधी वर्ग-संघर्ष के बजाय वर्ग-सामंजस्य के पक्षधर थे. उन्हें ऐसा लगता था कि हिंसा का रास्ता फायदेमंद नहीं होगा. वे पूंजीपतियों के बजाय पूंजीवाद को खत्म करना चाहते थे. इसी के मद्देनजर उन्होंने ट्रस्टीशिप का सिद्धांत प्रतिपादित किया था. इसके तहत पूंजीपतियों की संपत्ति छीनने के बजाय उन्हें उसे ट्रस्ट में बदलने का मौका देना था, जहां वे मालिक नहीं रह पाते. गांधी की यह अपील अधिकतर पूंजीपतियों को प्रभावित नहीं कर सकी. उन्होंने मजदूरों के हितों की चिता नहीं की. आजाद भारत में गांधी कानून द्वारा इसे हासिल करना चाहते थे.

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अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद गांधी पूंजीवाद के खात्मे के प्रति ज्यादा जोर से बोलने लगे थे. उन्होंने कहा, ‘मैं न आरामकुर्सी के समाजवाद और न ही सशस्त्र समाजवाद में विश्वास करता हूं. मेरा विश्वास है कि कुछ मुख्य उद्योग जरूरी हैं. मैं अपनी निष्ठा के आधार पर या उसके मुताबिक पूर्ण हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा किए बिना कर्म में विश्वास करता हूं.”

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यह समाजवाद के प्रति गांधी की आस्था का ही नतीजा था कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी सरदार पटेल या राजेन्द्र प्रसाद के बजाय एक ‘समाजवादी’ जवाहरलाल नेहरू को बनाया. गांधी को लगता था कि नेहरू की समाजवाद में आस्था वास्तविक है, लेकिन नेहरू को इस बात पर यकीन नहीं था कि अहिंसा, ट्रस्टीशिप और ग्रामोद्योग द्वारा समाजवाद लाया जा सकता है. 

यहां गांधी की दयनीय स्थिति का चित्रण करते हुए समाजवादी विचारक किशन पटनायक लिखते हैं, “नई पीढ़ी की नजरों में कम्युनिस्टों ने गांधीजी की रूढ़िवादी और पूंजीपतियों का सहयोगी नहीं बनाया है, वरन नेहरू और उनके सलाहकारों ने, जिन्हें सारे बुद्धिजीवी लोग और जनता में प्रचार करने वाले लोग मिल गए. देश में उपलब्ध जन-प्रचार के साधनों द्वारा यह काम किया गया है. गांधीजी को अतीत के संग्रहालय में डाल दिया गया है.”

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कहा जा सकता है कि गांधी की आर्थिक सोच को राज्य और समाज से पर्याप्त समर्थन नहीं मिला. नेहरू के जमाने में खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की अवश्य स्थापना की गई, लेकिन इस पर ज्यादा जोर नहीं रहा. ग्रामीण और कुटीर उद्योगों के पुनर्जीवन का प्रयत्न करने के कारण भारत के अनेक बुद्धिजीवियों ने गांधी की आलोचना की, जबकि भारतीय परिस्थितियों में यह गरीबों के सशक्तीकरण का उपयोगी माध्यम था. मशीनीकरण के कारण बढ़ती बेरोजगारी के बीच अब इसकी अहमियत समझ में आने लगी है. 

सुखद बात यह है कि मोदी सरकार के प्रयास से बाजारवाद के इस युग में खादी और ग्रामोद्योग न केवल गरीबों की रोजी-रोटी की गारंटी बन रही है, बल्कि यह संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए भी उपयोगी साबित हो रही है. लेकिन गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को कभी व्यावहारिक जामा नहीं पहनाया जा सका. नेहरू की मृत्यु के बाद समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने 1966-67 में गैर-सरकारी विधेयक ‘भारतीय ट्रस्टीशिप विधेयक’ के मसौदे को लोक सभा सचिवालय को भेजा था, लेकिन उसे संसद में पेश करने की इजाजत नहीं मिली. आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में अब ऐसा सोचना भी बेमानी होता जा रहा है. व्यक्तिवाद की आड़ में उग्र पूंजीवाद की आहट सुनाई पड़ने लगी है. संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवाद’ शब्द अलंकरण लगने लगा है.

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