बात उठी एक आदिवासी गांव के संपूर्ण अध्ययन की
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बात उठी एक आदिवासी गांव के संपूर्ण अध्ययन की

शोध पद्धति में केस स्टडी यानी वैयक्तिक अध्ययन और सांख्यिकीय अघ्ययन विधियां उपलब्ध हैं. सरकारों की रुचि सांख्यिकीय अध्ययन में होती है. देश की सरकार पौने सात लाख गांवों को एकसाथ देखना ज्यादा पसंद करती है. 

बात उठी एक आदिवासी गांव के संपूर्ण अध्ययन की

प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ होने के नाते एक बहुत ही सनसनीखेज काम का प्रस्ताव मेरे सामने आया. एक स्वयंसेवी संस्था की मांग है कि हम उसे एक गांव के संपूर्ण अध्ययन के लिए शोध प्रस्ताव की रूपरेखा बनाकर दें. संपूर्ण यानी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और वैधानिक लिहाज से विस्तृत और विश्वसनीय शोध अध्ययन. बहरहाल अध्ययन करवाने की इच्छुक संस्था से उस गांव की प्राथमिक जानकारी मांगी गई. गांव के बारे में जो जानकारी मिली उसे सुनकर कोई भी चौंक सकता है.

देश में कहां है यह गांव
यह गांव मध्यप्रदेश में है. राज्य के छतरपुर जिले के बक्सवाहा ब्लॉक में आदिवासियों के इस गांव का नाम है मानकी. पिछली जनगणना में इसकी आबादी आठ सौ थी. इस गांव में सिर्फ पौने दो सौ घर है और यह वैधानिक रूप से भारत का ऐसा पूर्ण गांव है जहां आठ महीने से घुप्प अंधेरा है. आठ महीने से पूरे गांव की बिजली कटी है. ऐसा क्यों है? इसका पता तहकीकात से ही चल सकता है. गर्मियों की शुरुआत से ही ये आदिवासी लोग पानी की चिंता में डूबे हैं. ये कोई इस साल की ही बात नहीं है. दस साल से हर साल गर्मियां आते ही उनके यहां पानी का संकट आ जाता है.

शुरुआती जानकारी के मुताबिक उनके पास खेती या दूसरे रोजगार का कोई जरिया नहीं है. गांव के बीस पच्चीस लोगों से बातचीत के दौरान एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसके घर सरकार की तरफ से मुफ्त बांटा गया रसोई गैस का सिलेंडर पहुंच पाया हो. उससे भी सनसनीखेज बात यह है कि 70 से 80 रुपए रोज़ की मज़दूरी के लिए तैयार होने के बावजूद उन्हें दूर-दूर तक कोई काम नहीं मिलता. आदिवासी होने के नाते वन उपज पर उनका आंशिक और सशर्त अधिकार बताया जाता है लेकिन पेड़ों से गिरे सूखे फूल या सूखे फलों को अगर वे बीन भी लें, तो बीनी गई इन चीजों को उनसे छुड़ा यानी छीन लेने की शिकायतें सुनी जा रही हैं. मसलन महुआ. हालांकि ये आरोप जांच पड़ताल की मांग करते हैं लेकिन स्थिाति यह बताई गई है भयभीत आदिवासी अपना रोना रोने से भी डरते हैं.

यह भी बताया गया कि इस गांव के ज्यादातर लोगों के पास खेती की ज़मीन भी नहीं है कि अगर और कुछ न सही तो कम से कम ज़िदा रहने लायक अनाज तो उगा सकें. यानी इस गांव में वे सारे लक्षण मौजूद हैं जो किसी संस्था को किसी गांव के वैयक्तिक शोध अघ्ययन के लिए प्रेरित करते हैं.

वह संस्था जो चाहती है इस गांव का शोध अध्ययन
शोध अघ्ययन की इच्छुक संस्था की हालत भी फिलहाल इन्हीं आदिवासियों की तरह संसाधन विहीन है. लिहाजा प्रशिक्षित प्रबंधन विशेषज्ञ के नाते इस संस्था को सबसे पहले तो यह सुझाव दिया गया कि फिलहाल इस गांव के वैयक्तिक अध्ययन जैसे खर्चीले काम की बजाए पत्रकारों के जरिए यह गांव जनता की नजरों के सामने ले आएं. खबरों के जरिए इस गांव की हालत सरकारी अफसरों तक पहुंच जाएगी. लेकिन इसके जवाब में जो कुछ बताया गया वह कुछ उत्साहजनक नहीं है. वैसे अध्ययन की इच्छुक संस्था के मुख्य कार्यकर्ता खुद एक प्रशिक्षित इंजीनियर और साथ में विधि स्नातक हैं. हाल ही में इंजीनियरी की नौकरी छोड़कर सागर अपने घर आ गए हैं. वे अब वैज्ञानिक तरीके से सामाजिक कार्य में लगना चाहते हैं.

दरअसल वह मानकी गांव के पास ही एक गांवनुमा छोटे से कस्बे के निवासी हैं. अपने अब तक के अनुभव के आधार पर उन्होंने बताया कि अगर मानकी गांव के बारे में पर्याप्त तथ्य उपलब्ध हों और बारीकी से विश्लेषण हो तो बहुत काम की बातें पता चल सकती हैं. उनका यकीन है कि अघ्ययन से निकले निष्कर्ष देश के दूसरे गांवों की समस्या का समाधान ढंूढने के काम भी आएंगे. बहरहाल, प्रस्ताव की सार्थकता को देखते हुए संस्था को यकीन दिलाया गया कि प्रबंधन प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञ होने के नाते इस काम में उनकी भरसक मदद की जाएगी. कम से कम शोध सर्वेक्षण की रूपरेखा और तथ्य एकत्रण के लिए विश्वसनीय यंत्र विकसित करने का आश्वासन उन्हें दे दिया गया है.

जब पत्रकारों तक पहुंची बात
संयोग था कि पिछले हफ़्ते शानिवार और रविवार को इस गांव से कोई पचास किलोमीटर दूर सागर जिले में पत्रकारों का एक बहुत बड़ा आयोजन था. सागर में केंद्रीय विवि के पत्रकारिता विभाग के पूर्व छात्रों का सम्मेलन था. चैंतीस साल पुराने इस पत्रकारिता विभाग के कोई तीन सौ छात्र यहां आपस में मिलने जुलने पहुंचे थे. इनमें देश और प्रदेश के कई बड़े पत्रकार भी थे. शोध अध्ययन की इच्छुक संस्था ने दिल्ली से सागर पहुंचे दो पत्रकारों को इस गांव में ले जाकर आधे धंटे तक इस गांव की हालत दिखाई. आखिरकार मानकी की करुण स्थिति की बात विवि में हो रहे पत्रकारों के आयोजन तक पहुच गई.

कुछ पत्रकारों ने सुबह सबेरे या शाम ढले इस गांव को देखने की इच्छा जताई. लेकिन पत्रकारों को इस गांव का दौरा कराने के लिए न्यूनतम संसाधन मिलने में दिक्कत आ गई. बहरहाल आगे फिरकभी इस गांव को देखने की बात हुई. हालांकि उसके पहले आयोजन के भोजनावकाश में इस गांव की दशा के ज़िक्र ने सनसनी जरूर फैला दी.

कितने काम का होगा किसी गांव का शोध अध्ययन
शोध पद्धति में केस स्टडी यानी वैयक्तिक अध्ययन और सांख्यिकीय अघ्ययन विधियां उपलब्ध हैं. सरकारों की रुचि सांख्यिकीय अध्ययन में होती है. देश की सरकार पौने सात लाख गांवों को एकसाथ देखना ज्यादा पसंद करती है. प्रदेश सरकार जिले स्तर से नीचे नहीं जा पा रही है. बहुत संभव है इसीलिए सरकार से एक गांव का वैयक्तिक अध्ययन हो नहीं पाता हो. वैसे अपने यहां अभी शोधकार्य को कोई बहुत काम का नहीं माना जाता. सरकार मजबूरी में जो आंकड़े वगैरह जमा करती भी है उसके विश्लेषण में उसकी ज्यादा दिलचस्वी नहीं दिखती. भारत जैसे देशों की सरकारों के लिए ये काम है भी ज़रा कठिन. दूसरे देशों में सामाजिक संस्थाएं और उद्योग जगत इस काम में ज्यादा दिलचस्पी लेता है. वे सर्वेक्षणों के लिए प्रशिक्षित युवाओं की मदद लेते हैं. लेकिन हमारी सामाजिक संस्थाएं कई कारणों से प्रशिक्षित लोगों को अपने काम का नहीं मानतीं. वे मानती हैं कि समाज सेवा का भाव होना यानी जुनून होना जरूरी है.

उधर उद्योग जगत अपने सामाजिक उत्तरदायित्व में भी नफा नुकसान देखता चला आ रहा है. इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि अगर कोई सामाजिक संस्था कुछ करने के पहले समस्या के व्यवस्थित अघ्ययन की बात सोच रही है तो यह बहुत ही बड़ी बात समझी जानी चाहिए. भले ही आजकल शोध अघ्ययनों को काम का न माना जा रहा हो लेकिन इतना तो है ही कि इन सर्वेक्षणों से सरकारी स्तर पर चल रहे कार्यांे की विश्वसनीय समीक्षा जरूर हो जाती है.

शोध सर्वेक्षण क्या सोशल आॅडिट की भूमिका निभा सकते हैं
बिल्कुल. अभी प्र्यावरण और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाएं जो भी सर्वेक्षण कर रही हैं उनकी कम से कम यह भूमिका तो है ही कि वे जागरूकता बढ़ा रही हैं. इन सर्वेक्षणों से पता चलता है कि क्या दावा किया जा रहा है? और वास्तव में हो क्या? और कितना? रहा है. उनके सर्वेक्षणों को मीडिया के लोग बड़े शौक से तरजीह भी देते हैं. कई देशों में सर्वेक्षणों का जो काम सरकार नहीं कर पाती या नहीं करना चाहती वह स्वयंसेवी संस्थाओं से ही सर्वेक्षण करवाती है.

विश्वसनीयता के लिए भी यह जरूरी है. लेकिन वे स्वयंसेवी संस्थाएं आमतौर पर बड़ी संस्थाएं होती हैं. वे किसी एक गांव तक सीमित सर्वेक्षण के काम में दिलचस्पी नहीं लेतीं. लेकिन अपने देश में हर समस्या को राष्ट्रीय स्तर पर देखने का चलन बढ़ गया है. योजनाएं भी सांख्यिकीय आकलन के आधार पर बनती हैं. लेकिन बहुत संभव है कि देश की सबसे छोटी इकाई यानी एक गांव के सर्वांग अध्ययन से हमें पता चल जाए कि देश की आधे से ज्यादा आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले पौने सात लाख गांव आखिर मांग क्या रहे हैं? बहरहाल जब बात उठी है तो कभी न कभी सिरे भी चढे़गी. मानकी गांव के अघ्ययन के लिए अगर हम व्यवस्थित रूपरेखा बना पाए तो सीमित संसाधनों में भी यह काम हो सकता है. देर कितनी भी लग जाए लेकिन कोई भी कहेगा कि हुआ दुरुस्त.

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)     

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