अमरनाथ में हुआ आतंकी हमला हमारी सूझबूझ को चुनौती!
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अमरनाथ में हुआ आतंकी हमला हमारी सूझबूझ को चुनौती!

अमरनाथ में हुआ आतंकी हमला हमारी सूझबूझ को चुनौती!

पवन चौरसिया

“बस नारों में गाते रहिएगा कश्मीर हमारा है,
छूकर देखो हर हिमचोटी के नीचे अंगारा है...”

हिंदी की ओजस्वी धारा के विख्यात कवि श्री हरिओम पंवार की कश्मीर की ऊपर लिखी हुई कविता की यह पंक्तियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितना यह लिखते समय रही होंगी. एक बार फिर पाकिस्तान समर्थित और प्रायोजित आतंकवाद ने धरती का स्वर्ग कहे जानी वाली देवताओं की जमीन कश्मीर को मासूमों के खून से लाल कर दिया है. हिन्दुओं के पवित्र सावन मास के पहले सोमवार के दिन जिस तरह से अमरनाथ यात्रा कर के लौट रहे श्रद्धालुओं से भरी एक बस पर आतंकियों ने हमला किया है उससे पूरा देश शोक और रोष में है. इस घटना में लगभग 7 लोगों की मृत्यु हो चुकी है 19 लोग गंभीर रूप से घायल बताये जा रहे है. ऐसी सूचना है के ये सभी लोग गुजरात से थे. वर्ष 2000 के बाद से यह इस सालाना तीर्थयात्रा पर सबसे घातक हमला है. उस समय हुए हमले में 30 लोग मारे गए थे. पुलिस ने कहा कि रात करीब आठ बजकर बीस मिनट पर खानाबल के पास उस समय हमला हुआ जब वह बस जम्मू जा रही थी. इस घटना के बाद प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी, जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह समेत अन्य नेताओं ने भी शोक व्यक्त किया है. प्रधानमंत्री ने इस हमले की निंदा करते हुए यह भी कहा है कि भारत ऐसे कायराना हमलों के आगे झुकने वाला नहीं है. यात्रा की सुरक्षा में तैनात CRPF ने यह बयान जारी किया है कि इन यात्रियों ने अपने आप को पंजीकृत नहीं कराया था और न ही इनकी बस उस काफिले में थी जिसकी सुरक्षा CRPF की ज़िम्मेदारी है. ऐसे में प्रश्न उठ रहे हैं की एडवाइजरी जारी होने के बाद भी बस कैसे रात में 7 बजे के बाद चली. दरअसल इस घटना को शून्यता में देखना एक बड़ी भूल होगी और यह समझना होगा कि यह सब एक बड़ी ''डिज़ाइन" का हिस्सा है जिसके दो मुख्य पहलू हैं और जिसका ताना-बाना पाकिस्तान में बैठे सेना/आई.एस.आई. के बड़े अधिकारी और आतंकी सरगनाओं के हाथ में है.

साल 2014 के बाद से जम्मू-कश्मीर में तेजी से बढ़े आतंकी हमलों का बहुत बड़ा कारण है वहां पर एक अद्वितीय गठबंधन का सत्ता पर काबिज होना, राजनीतिक पंडितों द्वारा जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. सामान्य रूप से कश्मीर घाटी (कश्मीरी मुसलमान) के हितों और नरम अलगाववाद की समर्थक मानी जाने वाली पीडीपी और जम्मू एवं लद्दाख के बौद्ध और हिन्दुओं की हितैषी समझे जाने वाली और प्रखर राष्ट्रवाद के विचारधारा वाली भाजपा ने जब राज्य के कल्याण के लिए मिलकर सरकार बनाई तो आतंकियों और उनके समर्थकों की नींदें उड़ गई. एक ऐसी सरकार जिसमें सभी क्षेत्र और समुदायों की भागीदारी हो, उसका लम्बे समय तक सत्ता में रहना इसके मंसूबों पर पानी फेरने जैसा था. उसी के बाद से इस सरकार को बदनाम करने और गठबंधन को तुड़वाने का एक के बाद एक प्रयास किया जा रहा है. फिर बीते दिनों जिस तरह से महबूबा मुफ़्ती ने कश्मीर को भारत का हिस्सा बताया है और आतंकवादियों पर मौखिक हमले किए हैं उससे इनका मनोबल और भी कमज़ोर हुआ है. यह हमला भी आतंकी संगठन लश्कर-ए-तौएबा द्वारा राज्य में सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के मकसद से किया गया है. दरअसल इन पाक-परस्त सरगनाओं का फायदा राज्य में अराजकता फैलाने में है और वे लोग कश्मीर की जनता को यह दिखाना चाहते हैं कि पीडीपी भाजपा के इशारे पर कश्मीरियों के साथ जुल्म और अन्याय कर रही. ऐसा दर्शा कर वो चाहते हैं की लोगों का लोकतंत्र से विश्वास उठने लगे और वो भी अलगाववाद और ‘आजादी’ के छद्म रास्तों पर चलने लगे. बीते दिनों हुए श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव में दर्ज की गई निम्न वोटिंग इस बात का प्रमाण है कि कुछ हद तक ये लोग सफल भी हुए हैं. इन लोगों को पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा कश्मीर के समाधान के लिए “इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत” की भावना से खौफ है. 

पिछले साल आठ जुलाई को जिस तरह से भारतीय सेना ने हिजबुल के कमांडर बुरहान वानी को मार गिराया था, वो आतंकवादियों के लिए सरकार बनने के अलावा दूसरा करार झटका था. इस झटके से उबरने के लिए उन्होंने अपनी रणनीति बदल दी और कश्मीर के युवाओं को सेना और पुलिस के खिलाफ पत्थरबाजी करने के लिए उकसाया और पैसे दिए. ऐसा करने में हुर्रियत के नेताओं का हाथ भी रहा जो इस मुद्दे पर पाकिस्तान के निर्देश पर भारत की छवि वैश्विक स्तर पर धूमिल करना चाहते थे यह दिखाते हुए कि कश्मीर में जो हो रहा है वो पाकिस्तान की साज़िश न हो कर एक जन-विद्रोह है और आम कश्मीरी को भारत से “आजादी” चाहिए! इसी को रोकने के लिए सेना को पैलेट गन का भी प्रयोग करना पड़ा जिसकी तथाकथित मानवाधिकार ''रक्षकों'' द्वारा भरपूर आलोचना की गई. फिर सेना ने चुन-चुन कर के आतंकियों को ठिकाने लगाना चालू कर दिया जिससे इनकी बौखलाहट में भारी इज़ाफा हुआ. आतंकियों ने अब सेना और पुलिस में तैनात स्थानीय कश्मीरियों पर हमला करना चालू कर दिया है ताकि आम कश्मीरी, जिनमें देश प्रेम और देश सेवा की भावना है, डर जाए और सेना/पुलिस में न भर्ती हो. इस साल जुलाई तक पुलिस के 17 जवान शहीद हो चुके हैं जो पीछे के सालों की अपेक्षा कहीं अधिक है. इसी कड़ी में इन लोगों ने राजस्थान में सेवारत कश्मीरी लेफ्टिनेंट उम्मल फ़याज़ की कायरता से हत्या कर दी जब वो एक विवाह समारोह में शामिल होने के लिए कश्मीर आए थे. और कौन भूल सकता है हाल ही में हुई डीएसपी मोहम्मद अय्यूब पंडित की हत्या जिसको जामा मस्जिद से निकलने वाली हिंसक भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला. ये सब घटनाएं दर्शाती हैं कि आतंकी कश्मीर में अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि इनके आकाओं, मसलन हुर्रियत के नेताओं पर जिस तरह से NIA और प्रवर्तक निदेशालय ने हवाला के द्वारा पैसा मांगने के मामले दर्ज किये हैं उस से यह साफ हो गया है कि दिल्ली अब इनके धन्धों को ‘सामान्य-रूप’ से तो चलने नहीं देगा. कश्मीर में स्कूलों में आग लगाने वाले ये नेता खुद के बच्चों के स्कूल में एक आंच तक नहीं आने देते हैं, और आम कश्मीरी युवाओं के हाथ में पत्थर पकड़ा कर उनको सुरक्षा बलों की बंदूकों के सामने खड़ा कर के अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ने और नौकरी करने भेज देते हैं.
     
सवाल तो अनेक उठेंगे सरकार पर, उसकी मौजूदा कश्मीर नीति कितनी उपर्युक्त है और ऐसी घटना क्यों होती है, लेकिन मेरा सबसे बड़ा सवाल है कि स्वयं को “मजबूत” कहने वाली और तीन सौ से भी अधिक सांसदों वाली इस सरकार के पास क्या एक भी कुशल सांसद नहीं है जिसको वो पूर्णकालिक रक्षा मंत्री बना सके? आखिर कब तक हम जेटली जी के ऊपर ही वित्त और रक्षा जैसे दो बड़े मंत्रालयों का भार डाल कर देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ सहते रहेंगे? इन सब के बीच एक बहुत ही सुखद समाचार यह रहा की कल की घटना के बावजूद भी बाबा बर्फानी के भक्त और प्रदेश की सरकार डरी नहीं और आज भी तीन हज़ार से ज्यादा यात्रियों का जत्था रवाना हुआ है, जो इस बात का प्रतीक है कि भारत की एकता और अखंडता की भावना को तोड़ नहीं सकता है. ऐसे में हम सब को भी ये दायित्व लेना होगा की धैर्य का परिचय देते हुए अफवाहों से बचें ताकि किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता को बढ़ावा न मिले, क्योंकि यही उन आतंकियों का लक्ष्य भी है कि भारत मजहब की आग में जले और दूसरा पाकिस्तान नजर आए. सरकार और सभी राजनीतिक पार्टियों को सेना और पुलिस का मनोबल बढ़ाना चाहिए और इस मुद्दे पर राजनीति करने से बचना चाहिए जैसा कि कर्नल गोगोई के मामले में हुआ था जब उनकी सूझबूझ की सराहना करने के बजाए कुछ बुद्धिजीवी उनकी तुलना ‘जनरल डायर’ से करने लगे थे! तथाकथित बुद्धिजीवियों को अपनी आंखों पर लगी पट्टी को उठाकर देखना चाहिए के ये “आजादी-गिरोह” कश्मीर को आजाद नहीं, बल्कि उसको एक इस्लामी साम्राज्य का हिस्सा बनाना चाहता है जहां केवल शरिया का कानून लगे और जहां पर अल्पसंख्यकों और जम्हूरियत के लिए कोई स्थान न हो. 

(लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एम.फिल. के रिसर्च स्कॉलर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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