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ऐसा माना जाता है कि राजनीति में न कोई स्थायी मित्र होता है और न स्थायी शत्रु, अपितु केवल स्थायी हित होते हैं. ऐसी स्थिति में कांग्रेस के लिए कई दलों को एक मंच पर लाना और आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के विरूद्ध विपक्ष द्वारा एक साझा प्रत्याशी खड़ा करना किसी भी चुनौती से कम नहीं है. देश के मौजूदा हालात पर यदि नजर डालें तो यह साफ हो जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता इस समय चरम पर है जिसका परिणाम भाजपा को हालिया विधानसभा चुनावों और कई नगर-निगम के चुनावों में भी देखने को मिला है. निश्चित तौर पर यह मोदी का ही करिश्मा था जो उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में प्रचंड बहुमत, पूर्वोत्तर के मणिपुर में पहली बार सरकार और ओडिशा, मुंबई और दिल्ली जैसे जगहों के स्थानीय चुनावों में भाजपा की झोली में भारी सफलता डालने में सफल रहा. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस, बसपा, सपा समेत सभी विपक्षी दलों को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है. वैसे भी 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा-विरोधी गठबंधन बनाने की आवाजें उठती रही हैं और ऐसे समय में इन स्वरों का मुखर होना लाजमी है. इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि जिस तरह से एक के बाद एक चुनाव में भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिल रही है उससे क्षेत्रीय दलों के हाशिये में जाने की सम्भावना बहुत अधिक हो गई है, इस लिए भाजपा का मुकाबला करने के लिए सभी दलों को एक साथ एक मंच पर आना होगा. लेकिन ये प्रयोग कितना सफल होगा?
दरअसल भारतीय राजनीति में इस प्रकार का विचार सबसे पहले सत्तर के दशक में उठा था जब लोहिया, जयप्रकाश समेत कई नेताओं ने 'कांग्रेस-विरोधी' गठबंधन बनाने की बात रखी थी. लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव समेत कई नेताओं की राजनीति भी उसी ‘कांग्रेस-विरोधवाद’ में जन्मी और फली-फूली. लेकिन आज परिस्थितयां कुछ और हैं. मोदी के नेतृत्व में भाजपा कई मायनों में एक मात्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी है जिसका प्रभाव और संगठन भारत के कोने-कोने तक है, और जो सड़क से संसद तक मुद्दों को उठा रही है. और ऐसा करके उसने उस दर्जे को भी छीन लिया है जो कई दशकों तक कांग्रेस का हुआ करता था. इस प्रकार की प्रणाली को प्रसिद्ध राजनीतिक विशेषज्ञ रजनी कोठारी ‘कांग्रेस-सिस्टम’ कहा करते थे. लेकिन ‘सिस्टम’ में आज कांग्रेस कही भी दिखाई नहीं देती है. कमजोर नेतृत्व, वैचारिक असमंजस, गुटबाजी आदि समस्याओं ने कांग्रेस को ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है. इस हालात में उसके लिए यह मजबूरी है कि वो क्षेत्रीय दलों के साथ मिल राजग के खिलाफ एक ऐसा मोर्चा तैयार करे जिसका नेतृत्व भी उसके हाथ में रहे. और खबरों के अनुसार ऐसा करने की कोशिशें तेज़ हो गई है जिसकी पहली अग्नि परीक्षा है इस साल जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव.
मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल इस साल जुलाई में पूरा हो रहा है और ऐसे में अगला राष्ट्रपति कौन होगा इसको लेकर कई प्रकार के कयास लगाए जा रहे हैं जिसके कारण चर्चाओं का बाजार गरम है. सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपने प्रत्याशियों को लेकर उहापोह में है. एक तरफ जहां सत्ता पक्ष की तरफ से संभावित रूप से मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और झारखण्ड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के नाम चल रहे हैं वहीं विपक्ष में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और महात्मा गांधी के पौत्र गोपालकृष्ण गांधी के नामों पर चर्चा हो रही है. ऐसा भी हो सकता है के मोदी किसी ऐसे नाम को आगे कर दे जिसका अनुमान कोई भी न लगा पाए लेकिन जिसको संघ परिवार की सहमति हो. आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो सत्ता पक्ष के लिए अपने प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनाने में बहुत ज्यादा समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा और वो राजग के कुल वोटों के अलावा जीत के लिए केवल 20390 वोटों से दूर है. ऐसे में उसके पास कई ऐसे दल भी विकल्प में हैं जिनको केंद्र सरकार से मधुर संबंध रखना अधिक लाभदायक और तार्किक लगेगा. सबसे पहला उदाहरण दो दिन पहले देखने को मिला जब आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष जगन रेड्डी ने प्रधानमंत्री से मिलने के बाद ये घोषणा कर दी की उनकी पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा का समर्थन करेगी. वहीं ऐसी ही कुछ बात तेलंगाना के सत्ता पक्ष की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति ने भी की है. इसके अलावा यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक भी भाजपा के साथ आ जाए. पूर्व में भी उसने कई अवसरों पर कई बिलों को पास करने में सरकार की मदद की है और संभव है कि गुटबाजी में फंसी हुई पार्टी दिल्ली के शासन से मधुर संबंध रखने में ही अपना हित समझे.
हालांकि विपक्ष को भी इस बात ज्ञात है कि उसके प्रत्याशी की जीत की संभावना लगभग असंभव है फिर भी वो इस चुनाव को एक बड़े अवसर और भाजपा के खिलाफ पेश किए जाने लायक एक बड़ी चुनौती के रूप में देख रहा है. इसका बीड़ा माकपा के सीताराम येचुरी उठाए हुए हैं जो अनेक राज्यों में जा-जा के सभी विपक्षी दलों से मिल कर उनको एक राय बनाने के लिए सहमत करने पर जुटे हुए है. सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी सक्रियता दिखाते हुए शरद पवार, शरद यादव आदि से मिल कर बात बढ़ने में जुटे हुए हैं. ऐसे में नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और नीतीश कुमार का किरदार बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. कांग्रेस मानती है कि अगर वो सभी परस्पर-विरोधी (सपा-बसपा, लेफ्ट-तृणमूल आदि) विपक्षी दलों को एक मंच पर लाकर खड़ा करने में सफल होती है तो इसका लाभ उसे 2019 के लोक सभा चुनाव में मिलेगा जहां पर वो क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन के रूप में भाजपा को एक कड़ी चुनौती देने में सफल रहेगी. लेकिन इस समय सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि क्या सभी दल एक व्यक्ति के नाम पर सहमत होंगे? और वो कौन होगा? जिस प्रकार से अभी से ही क्षेत्रीय दलों ने किसी कांग्रेसी को प्रत्याशी बनाने पर असहमति जताई है उससे इतना तो तय है कि ऐसे किसी विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व भी शायद कांग्रेस को ना मिले और उसे ममता या नीतीश आदि के सामने नतमस्तक होकर उनको कमान सौपनी पड़े. लेकिन क्या एक राष्ट्रीय पार्टी इस प्रकार की साझेदारी स्वीकार करेगी? क्या इससे राहुल गांधी की राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वाकंक्षाओं को झटका लगेगा? और क्या इससे सचमुच में मोदी के खिलाफ 2019 में कोई कड़ी चुनौती पेश होगी? आने वाला राष्टपति चुनाव शायद ऐसे कई प्रश्नों का उत्तर देगा.
(लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एम.फिल. के रिसर्च स्कॉलर हैं.)