उपेंद्र कुशवाहा के बगैर सामाजिक न्याय की बात बेमानी
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उपेंद्र कुशवाहा के बगैर सामाजिक न्याय की बात बेमानी

नीतीश कुमार इस स्पेस पर बड़ी दावेदारी करते रहे हैं, लेकिन इनका सामाजिक न्याय नकद प्रोत्साहन भत्ता तक सीमित होता जा रहा है.

उपेंद्र कुशवाहा के बगैर सामाजिक न्याय की बात बेमानी

बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति किस करवट बैठेगी, यह काफी हद तक उपेंद्र कुशवाहा पर निर्भर करता है. कई लोगों को को यह बात अटपटी लग सकती है, लेकिन यह सच है. सरकार में रहते हुए पिछले कुछ सालों से न्यायपालिका में सभी वर्गों में भागीदारी, नौकरियों में पिछड़ों की हकमारी और आरक्षण के सवाल पर जितने मुखर उपेंद्र कुशवाहा हैं, शायद उतने मुखर मुख्यधारा के सामाजिक न्याय की बात करने वाले कोई नेता हों.

नीतीश कुमार इस स्पेस पर बड़ी दावेदारी करते रहे हैं, लेकिन इनका सामाजिक न्याय नकद प्रोत्साहन भत्ता तक सीमित होता जा रहा है. दबे कुचले समाज के लिए विश्‍वस्‍तरीय कॉलेज, स्कूल, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज की जगह 10,000 से लेकर 25,000 रुपये का भत्ता देना इनको ज्यादा मुनासिब लगता है. टकराव के कई आयाम हैं. एनडीए में पिछले साल जब नीतीश कुमार की वापसी हुई थी तभी से राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ था कि उपेंद्र कुशवाहा की राजनीति की धारा अलग हो सकती है.

सवाल उठता है कि उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार आमने सामने क्यों हैं? दरअसल, नीतीश और कुशवाहा एक ही राजनीतिक आधार वोट से आते हैं. दोनों ही नेता का आधार वोट कुर्मी, कुशवाहा और धानुक है. पिछले 20-25 साल से नीतीश कुमार इन तीन जातियों के आधार वोट के साथ सवर्ण, पसमांदा मुसलमान और अति-पिछड़ों को जोड़कर पहले विपक्ष और फिर सत्ता में काबिज रहे हैं.

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2014 लोकसभा चुनाव में पहली बार उपेंद्र कुशवाहा एक राजनीतिक ताकत के तौर पर इनके आधार वोट में सेंध लगाते हुए दिखते हैं और नीतीश कुमार की पकड़ कुशवाहा वोट बैंक पर कमजोर होने लगती है. बेगूसराय लोकसभा के कुशवाहा बहुल सीट चेरिया बरियारपुर विधानसभा में भाजपा उम्मीदवार भोला सिंह पहली बार लीड कर जाते हैं. इसी तरह कई विधानसभा में एनडीए को उपेंद्र कुशवाहा की वजह से फायदा हुआ. हालांकि, 2015 में वोट ट्रांसफर होता हुआ कम दिखाई देने की बात कही जाती है, लेकिन यह कुशवाहा फैक्टर नहीं बल्कि आरएसएस प्रमुख के आरक्षण और पिछड़ों को लेकर की गई बयानबाजी का नतीजा था. जिससे महागठबंधन बनाम एनडीए की लड़ाई सवर्ण बनाम पिछड़ा में तब्दील हो गया.

नीतीश बनाम कुशवाहा
नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा का ताजा विवाद एक निजी चैनल को दिए इंटरव्यू में  नीतीश कुमार के बयान का है. शायद नीतीश कुमार ने भी तब नहीं सोचा होगा कि उपेंद्र कुशवाहा का उपहास उड़ाना उनके लिए बड़े राजनीतिक नुकसान की तरफ ले जाएगा. उसके बाद पटना में हुए लाठीचार्ज के बाद कुशवाहा समाज का बड़ा हिस्सा अब उपेंद्र कुशवाहा के साथ नैतिक तौर पर दिखाई पड़ रहा है. कोई बड़ी बात नहीं कि यह नैतिक समर्थन आने वाले चुनावों में राजनीतिक समर्थन में बदल जाए. नीतीश कुमार के दबाव में एनडीए उपेंद्र कुशवाहा को बाहर जाने के लिए मजबूर कर रहा है.

ऐसे में बिहार में अब कुशवाहा क्या करेंगे? क्या कांग्रेस की अगुआई वाले महागठबंधन को उपेंद्र कुशवाहा के आने से फायदा होगा? क्या वो वोट स्थानांतरित करने की स्थिति में हैं? इन सवालों के जवाब जानने से पहले यह समझना जरूरी होगा कि बिहार में कुशवाहा वोट कितने सीटों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. अनुमान के मुताबिक यहां करीब 90 विधानसभा सीटों पर कुशवाहा का 35,000 से अधिक वोट है, वहीं 18-20 सीटों पर 15,000 से अधिक कुशवाहा वोट है.

इसी तरह से करीब 18 संसदीय सीटों पर कुशवाहा समाज का वोट ढाई लाख से अधिक है. बेतिया, बगहा और मोतिहारी में ही अकेले 10.5 लाख से अधिक कुशवाहा वोट है. गोपालगंज, उजियारपुर, औरंगाबाद, काराकाट, जहानाबाद, सीतामढ़ी, पुर्णिया जैसे छह-सात सीटों पर कुशवाहा वोट का बड़ा प्रभाव है.

कुशवाहा वोट के प्रभाव और नीतीश कुमार की राजनीति का रिश्ता समता पार्टी के समय से ही है. जब नीतीश कुमार कुर्मी महारैली के बाद समता पार्टी बनाकर 1995 के विधानसभा चुनाव में उतरे, तब लालू प्रसाद यादव की पार्टी ने 76 यादव उम्मीदवार खड़े किए, वहीं उनके मुकाबले में नीतीश कुमार ने 73 विधानसभा सीटों पर कुर्मी, कुशवाहा और धानुक उम्मीदवार दिए. इन 73 सीटों में सिर्फ 16-18 उम्मीदवार ही कुर्मी और धानुक समाज से था, बाकी कुशवाहा समाज से था, और इसी के बदौलत नीतीश कुमार आगे बढ़े. उन्होंने बहुत ही रणनीतिक तौर पर उपेंद्र कुशवाहा को विपक्ष का नेता बनाया, लेकिन वो कभी नहीं चाहते थे कि कुशवाहा समाज का कोई नेता मजबूती से उभरे. उपेंद्र कुशवाहा से भी पार्टी के भीतर कई बार इन्हीं वजहों से टकराव होता रहा. अब उपेंद्र कुशवाहा बिहार में एक राजनीतिक ताकत हैं.

अगर उपेंद्र कुशवाहा महागठबंधन में शामिल होते हैं तो इसका इंपैक्‍ट उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, हरियाणा और छत्तीसगढ़ में होगा. सामाजिक न्याय की जो धारा है बिहार सहित इन राज्यों में वो अभी बिखरी हुई है. उसकी एक वजह यह थी कि कुशवाहा समाज मोटे तौर पर एनडीए के साथ था. उत्तर प्रदेश में जब कुर्मी और कुशवाहा मजबूती से एनडीए के पक्ष में गए तो लोकसभा और विधानसभा, दोनों चुनाव में एनडीए ने बेहतर किया. बिहार में उपेंद्र कुशवाहा  के महागठबंधन में आने से इन राज्यों में भी सामाजिक न्याय के ताकतों को एकजुट होने में मदद कर सकता है. अगर सचमुच में सामाजिक न्याय की ताकतों को एक साथ आना है तो आवश्‍यक है कि महागठबंधन उपेंद्र कुशवाहा को खुले हाथों से तवज्जो दे.

कुर्मी और धानुक में भी नाराजगी
इसी तरह कुर्मी धानुक के अंदर नीतीश कुमार के प्रति बहुत निराशा है. कभी बिहार में इनके 50 विधायक हुआ करते थे, आज वह 15 पर आ गए हैं. नीतीश कुमार के प्रति धानुक और कुर्मी, खासकर समस्वार कुर्मी, चंदेल कुर्मी, कोचैसा कुर्मी उपजाति वाले समाज में भारी असंतोष है. धानुक अति पिछड़ा वर्ग में है, लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले कई मजबूत जातियों को अति पिछड़ा में डालने से यह समाज अपने को छला हुआ महसूस कर रहा है. लखीसराय में एक लड़की के साथ हुए बलात्‍कार कांड और बेलौनी में पुलिसिया अत्याचार पर प्रशासनिक चुप्पी ने धानुक समाज का गुस्सा नीतीश कुमार के प्रति और बढ़ा दिया है.

2 नवंबर को पटना में समस्वार कुर्मी से आने वाले जीतेंद्र नाथ की अगुआई में हुए धानुक-कर्मी एकता मंच के सम्मान एवं स्वाभिमान सम्मेलन में हजारों लोगों का जुटना और नीतीश कुमार पर किए गए तीखे प्रहार से साफ है कि भले यह समाज मुखर नहीं है, लेकिन उनके मन में  नीतीश कुमार के प्रति गुस्सा और असंतोष है. प्रशांत किशोर का राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाया जाना भी इस समाज के लोगों को अखर रहा है. कुर्मी और धानुक का कुशवाहा समाज के साथ रोटी-बेटी का न सिर्फ राजनीतिक रिश्‍ता है, बल्कि रोटी-बेटी का भी रिश्‍ता है.

अभी चूंकि कुर्मी और धानुक राजद के साथ जाने में झिझकते हैं, लेकिन इनका स्पेस उपेंद्र कुशवाहा की वजह से महागठबंधन में बन सकता है. अभी महागठबंधन में गैर-यादव ओबीसी वोट का आकर्षण कम है, और इस स्पेस को उपेंद्र कुशवाहा भर सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो बिहार में एनडीए गंभीर संकट में चला जाएगा.

(लेखक राहुल कुमार पत्रकारिता का स्थापित करियर छोड़ने के बाद बिहार में शिक्षा क्षेत्र में काम कर रहे हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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