नक्सलवाद यदि असहमति का मर्ज, फिर नजरबंदी का इलाज क्यों?
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नक्सलवाद यदि असहमति का मर्ज, फिर नजरबंदी का इलाज क्यों?

नक्सलवाद पर सभी दलों की राजनीति- पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने जिन 128 संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के लिए राज्य सरकारों को पत्र लिखा था उनमें इन आरोपियों के संगठनों का भी नाम था. 

नक्सलवाद यदि असहमति का मर्ज, फिर नजरबंदी का इलाज क्यों?

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार और पुलिस को नोटिस जारी करते हुए पांचों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को घर में नजरबन्द रखने का आदेश दिया है. चीफ जस्टिस की बेंच ने कहा कि असहमति लोकतन्त्र का सेफ्टी वॉल्‍व है, जिसके बिना प्रेशर कुकर फट जायेगा...

अंग्रेजों के खिलाफ सेफ्टी वॉल्‍व के तौर पर कांग्रेस और अब नक्सलवाद
ब्रिटिश हुकुमत के विरुद्ध 1857 की लड़ाई के बाद बगावत को रोकने के लिए अंग्रेज अफसर ए. ओ. हृयूम ने 1885 में सेफ्टी वॉल्‍व के तौर पर कांग्रेस की स्थापना की थी. भारत के लोकतंत्र में अन्याय को रोकने के लिए पुलिस और अदालत का तंंत्र है, और असंतोष व्यक्त करने के लिए चुनाव के माध्यम से सरकार बदलने की व्यवस्था बनी हुई है. देश में लाखों लोग पुलिस दमन का शिकार होते हैं, लेकिन इस मामले पर अदालती हस्तक्षेप के बावजूद मानवाधिकार आयोग ने भी महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी कर दिया है. सवाल यह है कि पांचों एक्टिविस्ट यदि निर्दोष हैं तो उन्हें बेवजह क्यों नजरबन्द किया गया और उन्होंने यदि देशद्रोह किया है तो फिर सुप्रीम कोर्ट का बेवजह हस्तक्षेप क्यों?

नक्सलवाद पर सभी दलों की राजनीति
पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने जिन 128 संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के लिए राज्य सरकारों को पत्र लिखा था, उनमें इन आरोपियों के संगठनों का भी नाम था. वरवरा राव, अरुण परेरा और वरनान गोंजाल्विस को नक्सलियों के साथ सम्बन्ध के आरोप में पहले गिरफ्तार किया चुका है. पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने हिन्दू अतिवाद का शिगुफा छोड़ा तो वर्तमान एनडीए सरकार ने शहरी नक्सलवाद के एजेंडे से राष्ट्रवाद की राजनीति शुरु कर दी है. देश में सभी दलों के नेता जनता में फूट डालने, संवैधानिक व्यवस्था को ठोकर मारने के साथ अफसरशाही को नियमित तौर पर जलील करते हैं, तो फिर उन्हें भी नक्सली क्यों नहीं माना जाता?

नजरबन्दी, पुलिस कस्टडी और जेल में फर्क के बावजूद गिरफ्तारी
एफआईआर के बाद गिरफ्तारी इसलिए होती है, जिससे कि अभियुक्त को भागने और सबूतों से छेड़छाड़ करने से रोका जा सके. संविधान के अनुसार गिरफ्तारी करने के 24 घंटे के भीतर अभियुक्तों को पुलिस द्वारा अदालत में पेश करना जरुरी है. अदालतें सामान्य तौर पर 7 या 14 दिन की पुलिस हिरासत का रुटीन आदेश पारित कर देती हैं. इसके बाद अभियुक्त को न्यायिक हिरासत में लेकर जेल भेज दिया जाता है. इस मामले में पांचों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को घर में नजरबन्दी के बावजूद, उन्हें कानूनन गिरफ्तार माना जायेगा. नज़रबंदी के दौरान वकीलों से ही इन लोगों की मुलाकात हो सकती है और वे मोबाइल के माध्यम से भी बाहरी लोगों से सम्पर्क नहीं कर सकते.

हाईकोर्ट द्वारा आसन्न रिहाई के बाद सुप्रीम कोर्ट से नजरबंदी मिली
पुणे पुलिस द्वारा ली गयी ट्रांजिट रिमांड को बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका के माध्यम से गौतम नवलखा ने दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दे दी थी. हाईकोर्ट ने रिमांड को स्थगित करते हुए घर में ही नवलखा की नजरबंदी का अन्तरिम आदेश पारित कर दिया. जब दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा गौतम नवलखा की याचिका पर रिहाई के आदेश जारी किये जा रहे थे, उसी दौरान बुद्धिजीवियों द्वारा दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पांचों आरोपियों के लिए नजरबंदी का आदेश पारित करने से विचित्र स्थिति बन गयी. इस मामले में सुधा भारद्वाज की रिहाई के लिए पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में याचिका भी लम्बित है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपराधिक मामलों में तीसरे पक्ष द्वारा दायर याचिका पर वीवीआईपी सुनवाई से न्यायिक अनुशासन ध्वस्त होने का खतरा बढ़ गया है.

गिरफ्तारियों से इमरजेंसी की बेवजह आशंका
महाराष्ट्र के पुणे में पिछले वर्ष 31 दिसम्बर को एलगार परिषद आयोजित करने और उसके बाद समीप के भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने के आरोप में पुलिस द्वारा इन लोगों की गिरफ्तारी की गई. पुलिस के अनुसार एक्टिविस्टों ने माओवादियों की मदद से फंड और भीड़ जुटाने के बाद सामाजिक भावनाएं भड़काईं. कुछ चिट्ठियों के आधार पर एक्टिविस्ट लोगों का कश्मीरी अलगाववादियों से भी सम्पर्क जोड़ने की कोशिश हो रही है. बचाव पक्ष के अनुसार शुरुआती एफआईआर में ना तो यूएपीए कानून का जिक्र था और ना ही इन एक्टिविस्टों का नाम था. इमरजेंसी के दौर में हजारों लोगों की गिरफ्तारी और लाखों लोगों को नजरबन्द करने के बावजूद अदालतें मौन रहीं. लेकिन पांचों एक्टिवस्टि की गिरफ्तारी के खिलाफ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में तुरन्त सुनवाई और सोशल मीडिया में विरोध से यह जाहिर है कि देश में अब पहले जैसे हालात नहीं है.

राजद्रोह पुर्नपरिभाषित करने पर विधि आयोग की रिपोर्ट पर कारवाई हो
विधि आयोग ने अपनी नवीनतम मसौदा रिपोर्ट में यह कहा है कि आईपीसी के तहत धारा-124-ए में संशोधन होना चाहिए ताकि राजद्रोह से उचित तरीके से निपटा जा सके. आयोग ने कहा है कि राजद्रोह की धारा को आईपीसी में शामिल करने वाला देश ब्रिटेन खुद ही 10 साल पहले इस कठोर कानून को खत्म कर चुका है. आयोग ने दलील है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोकतंत्र का अहम हिस्सा माना जाना चाहिए और सिर्फ राय जताने को राजद्रोह के कानूनों में नहीं लाना चाहिए. सेफ्टी वॉल्‍व और नजरबन्दी से नक्सलवाद को रोकने की बजाए, लोकतंत्र के कुकर को अविलम्ब न्यायिक क्रान्ति की जरुरत है, जिससे सामाजिक और आर्थिक असमानता से बढ़ते प्रेशर को कम किया जा सके.

(लेखक सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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