पर्यावरण सुधार कर दो फीसदी जीडीपी बढ़ाने का खर्चा क्या बैठेगा?
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पर्यावरण सुधार कर दो फीसदी जीडीपी बढ़ाने का खर्चा क्या बैठेगा?

पर्यावरण सुधार कर दो फीसदी जीडीपी बढ़ाने का खर्चा क्या बैठेगा?

पर्यावरण की चिंता करने वाले लोग तर्क दे रहे हैं कि अगर पर्यावरण को सुधार लिया जाए तो देश की जीडीपी दो फीसद बढ़ जाएगी, लेकिन इस सुझाव में यह हिसाब ग़ायब है कि वैसा पर्यावरण बनाने में जीडीपी का कितना फीसद खर्चा हो जाएगा. अगर यह सवाल पूछा जाएगा तो वे खर्चे की बात छोड़कर खराब पर्यावरण के कारण देश में लाखों लोगों की मौत का आंकड़ा देने लगते हैं. यानी आखिर में अगर मौतों की बात करनी पड़ती है तो पर्यावरण की चिंता की शुरुआत इन्ही मौतों के आधार पर ही क्यों नहीं होनी चाहिए. बेकार में जीडीपी का लालच देकर एक बड़ी समस्या के समाधान की बात करने की जरूरत आखिर पड़ क्यों रही है? चलिए अगर इसी बहाने समस्या का समाधान होता हो तो इसे भी सोच लें. वैसे वस्तुस्थितियां सिद्ध करती हैं कि पर्यावरण को ठीक करने और उसे ठीक बनाए रखने के लिए जितना खर्च आएगा उसकी कल्पना की हैसियत अभी हमारी है नहीं. प्रबंधन प्रौद्योगिकी के लिहाज़ से मसला प्रोजेक्ट मैनेजमेंट का बनता है. और यह बात पहले से तय है कि किसी भी परियोजना के लिए तथ्य और आंकड़ों की जरूरत सबसे पहले पड़ती है. और हद ये है कि पर्यावरण के आंकड़ों के मामले में ही हम सबसे ज्यादा कच्चे हैं.

दो फीसदी जीडीपी बढ़ने का मतलब
मोटे हिसाब के मुताबिक, दो फीसद जीडीपी का मतलब है तीन लाख करोड़ रुपये, लेकिन इतने मुनाफे के लिए जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण मुक्त देश बनाने पर खर्च कितना बैठेगा? इसका हिसाब नहीं लगाया गया. फिर भी प्रबंधन के विशेषज्ञ अनुमान लगा ही लेते हैं. ऐसा ही एक मोटा अनुमान है कि सिर्फ यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जगह-जगह जितने वियर बैराज और सीवर ट्रीटमेंट प्लांट और दूसरे इंतजाम चाहिए, उनका खर्चा कम से कम दो लाख करोड़ बैठेगा. यमुना तो गंगा की सिर्फ एक सहायक नदी है. पूरी गंगा और उसकी दूसरी सहायक नदियों को जोड़ लें तो यह रकम छह गुनी हो जाएगी. यानी कुल अनुमानित खर्चा बारह लाख करोड़. इतना ही नहीं, गंगा प्रणाली के अलावा दूसरी नदियों की संख्या और उनमें प्रदूषण की भयावह स्थिति हमें खर्च के लिहाज़ से कुछ भी सोचने से मना कर देती है.

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प्रदूषणकारी उत्पादन के आंकड़ें?
कोई आज की बात नहीं है, बल्कि दशकों से हम इस बहस में उलझे हैं कि कल कारखानों पर यह बंदिश कैसे लगाएं कि उनसे प्रदूषण न हो. प्रदूषण रोकने के लिए उन्हें जब कानून में बांधा जाता है तो यह बात निकलकर आती है कि वैसा इंतजाम करने के लिए औद्योगिक उत्पाद का दाम दोगुना तक हो जाता है. आगे के लिए हमने कानूनी उपाय सोचे. औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने के लिए जो नई परियोजनाएं बनती हैं वे पर्यावरण मंजूरी के स्तर पर अटक जाती हैं. जब से हमें अपने जीवन में पर्यावरण का महत्‍व समझ में आया है तब से हम इसी उपाय की तलाश में लगे हैं कि प्रदूषण मुक्त देशी उत्पादन कैसे बढ़ाएं. सरसरी तौर पर नज़र डालें तो देश दिन पर दिन आत्मनिर्भरता की बजाय विदेशी सामान की खरीद पर निर्भर होता जा रहा है. सस्ते विदेशी सामान के दाम से देशी सामान मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं. हद ये है कि अपने कृषि प्रधान देश का गेहूं और दालें विदेशी अनाज से पिट रहा है. कुल-मिलाकर निष्कर्ष यह निकल रहा है कि जब देशी उत्पाद की लागत मौजूदा हालात में नहीं निकल पा रही है तो प्रदूषण मुक्त निर्माण प्रक्रिया पर खर्चा बढ़ाने की सूरत बन कैसे सकती है?

प्रदूषण नियंत्रण के लक्ष्य का प्रबंधन
जिस तरह हमने मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम का नाम बदलकर मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम रख लिया था उसी तरह प्रदूषण मुक्त भारत की बजाए प्रदूषण नियंत्रित भारत तक ही खुद को सीमित करने की समझदारी दिखानी चाहिए. इसलिए नदियों को, शहरों को प्रदूषण मुक्त करने के बड़बोले लक्ष्य की बात करना तात्कालिक समझदारी नहीं है. सिर्फ इतना ही कर लें कि जो खराब हालत इस समय तक हो गई है वह और खराब न हो. वैसे इतना करना भी बहुत बड़ा काम है. इसीलिए लक्ष्य प्रबंधन के प्रौद्योगिक ज्ञान के मुताबिक, पर्यावरण प्रदूषण से निपटने का एक और सिर्फ एक यानी स्पेसिफिक लक्ष्य सीमित करने की जरूरत है. दूसरा बिंदु किसी लक्ष्य का नापतोल के लायक होना है. वरना कोई भी परियोजना सिर्फ एक नारे में तब्दील होते देर नहीं लगती. लक्ष्य प्रबंधन की तीसरी बात यह देखना है कि लक्ष्य हासिल होने लायक है कि नहीं? इस ज्ञान से यह सुझाव मिलता है कि प्रदूषण मुक्त भारत का लक्ष्य फिलहाल अपनी माली हालत के मद्देनजर हासिल होने लायक नहीं है. चौथा सवाल विश्वसनीयता का है. प्रदूषण मुक्ति फिलहाल विश्वसनीय लक्ष्य नहीं हो सकता, सो इसे जल्द से जल्द प्रदूषण नियंत्रण तक सीमित रखना ही विश्वास दिला सकता है. और सबसे आखिर में पांचवां बिंदु समयबद्धता का है. यह ऐसा महत्वपूर्ण बिंदु है जो अलग से एक अध्याय की मांग करता है. लक्ष्य प्रबंधन के इन पांच बिंदुओं को विस्तार से इसी स्तंभ के एक आलेख में दिया गया था. 

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प्रदूषण नियंत्रण परियोजना की समयबद्धता का सवाल
वैसे तो समयबद्धता किसी भी परियोजना के लिए बहुत जरूरी बात है, लेकिन प्रदूषण नियंत्रण के मामले में परियोजना की समयबद्धता सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण बिंदु है. खासतौर पर इसलिए क्योंकि यह सिद्ध किया जा चुका है कि जनसंख्या और प्रदूषण का सीधा संबंध है. जनसंख्या वृद्धि की रफ़्तार पौने दो फीसद प्रतिवर्ष है. कोई भी उपाय जब सोचा जाता है तो वह समस्या के मौजूदा आकार को सामने रखकर ही सोचा जाता है, जबकि अपने उपाय के जो नतीजे आते हैं तब तक उस समस्या का कारण समस्या को उससे ज्यादा बढ़ा चुका होता है. पर्यावरण प्रदूषण के मामले में तीन दशकों का यह अनुभव प्रत्यक्ष है. अगर सिर्फ जल प्रदूषण बढ़ने की रफ़्तार देखें तो हमारे सारे उपायों को समय ने परास्त कर दिया. सो समझदारी यह है कि चाहे दस की बजाए एक लक्ष्य बनाएं, लेकिन वह समयबद्धता के लिहाज से बने. कहने की जरूरत नहीं कि देश में स्वच्छता अभियान का नारा लगाए जाते समय यह ध्यान नहीं रहा कि घर के आसपास और सड़कों की सफाई करने के बाद जो कूड़ा जमा होगा वह आखिर में कहां जाकर फेंका जाएगा. अब पता चल रहा है कि कचरे का निस्तारण बड़ी समस्या है. देशभर के सैकड़ों नगर निगम और हजारों नगर पालिकाएं शहरी इलाकों के बाहर नए-नए कूड़े घर बनाने में ही हांफने लगी हैं. और जब कूड़े कचरे के सुरक्षित निस्तारण करने की बात सोचते हैं तो लागत इतनी आती है कि वह विकास रूक जाता है, जिसे हमने अपना सबसे बड़ा लक्ष्य बना रखा है. 

इस तरह से यह तथ्य बनता है कि प्रदूषण हमारे विकास कर्म का फल है. ऐसा कुफल है, जिसे रोकने के लिए कथित विकास को रोकने की मजबूरी दिखने लगती है. बेशक यह तथ्य तसल्ली से सोच-विचार की मांग कर रहा है, लेकिन अगर प्रदूषण से हमारी जान पर ही बन आई है तो विकास की बात को कुछ देर के लिए निलंबित करने के अलावा और चारा क्या है?

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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