Ibn-E-Insha: "सैकड़ों दर थे मिरी जाँ तिरे दर से पहले"; इब्न-ए-इंशा के शेर

हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता... हर किसी की नज़र नहीं होती

एक दिन देखने को आ जाते... ये हवस उम्र भर नहीं होती

हम घूम चुके बस्ती बन में... इक आस की फाँस लिए मन में

रात आ कर गुज़र भी जाती है... इक हमारी सहर नहीं होती

हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे... तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले... दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले

इक साल गया इक साल नया है आने को... पर वक़्त का अब भी होश नहीं दीवाने को

हम किसी दर पे न ठिटके न कहीं दस्तक दी... सैकड़ों दर थे मिरी जाँ तिरे दर से पहले

यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया... बस्ती बस्ती काँटे देखे जंगल जंगल फूल मियां

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