बिहार चुनाव: जाति के नाम पर वोट जुगाड़
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बिहार चुनाव: जाति के नाम पर वोट जुगाड़

बिहार में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सियासी पारा चढ़ने लगा है। हालांकि अभी चुनाव होने में कुछ महीने शेष हैं, लेकिन सभी राजनीतिक दल अपनी रणनीतियों को अंजाम देने में जुट गए हैं। ज्ञात हो कि बिहार की राजनीति हमेशा पेचीदगियों से भरी रही है। तकरीबन अब तक हुए हर चुनाव में जातिगत समीकरणों की एक अहम भूमिका रही है। यूं कहें कि जाति के नाम पर सियासी दलों ने वोट बैंक को पक्‍का करने की हर जुगत की और इन दलों को काफी हद तक कामयाबी भी मिली।

मगर बीते लोकसभा चुनाव के बाद सूबे की राजनीति ने कुछ ऐसी करवट ली कि पक्‍के दोस्‍त 'दुश्‍मन' बन गए और 'पक्‍के दुश्‍मन' अब दोस्‍त बन बैठे हैं। जाहिर है कि इस गठबंधन के पीछे जातिगत समीकरण भी एक अहम वजह है। हालांकि, बिहार में बीते लोकसभा चुनाव में मोदी के नेतृत्‍व में एनडीए को तगड़ी कामयाबी हाथ लगी लेकिन अब विधानसभा चुनावों में अपनी दावेदारी को मजबूत करने के लिए लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने आपस में हाथ मिलाकर एनडीए को मजबूत चुनौती दी है। इसमें जातिगत वोट बैंक भी अहम कारक है। सितंबर-अक्‍टूबर महीने में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। सूबे के सभी समीकरणों के मद्देनजर बीजेपी ने अभी तक अपना उम्मीदवार भी घोषित नहीं किया है। भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे कर के विकास के नाम पर ही वोट लेने की राजनीति में मशगूल है।

साल में 1989 में 'मंडल' राजनीति के बाद बिहार में पिछड़ी जातियों का खासा उदय हुआ और उसके बाद से सत्‍ता की बागडोर इनके राजनीतिक नेतृत्व के हाथों में चला गया। साल 1990 से 2005 तक लालू-राबड़ी और इसके बाद से नीतीश कुमार का शासन अभी तक चलता चला आ रहा है। ज्ञात हो कि दोनों ही नेता पिछड़ी जाति से आते हैं। हालांकि, इन नेताओं के आने के बाद पिछड़ी जातियों के वोट भी बंटे। लालू ने जहां यादव-मुसलमान तो नीतीश ने उच्च जातियों, अन्य-पिछड़ी जातियों के कुर्मी-कोइरी और दलितों का एक सामाजिक गठबंधन बना लिया। करीब ढाई दशक से बिहार की राजनीति इसी सामाजिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द घूम रही है।

अब राजनीतिक चुनाव की आहट के बाद सभी राजनीतिक दल फिर से जातीय समीकरण को साधाने में जुट गए हैं। सूबे में चुनाव पहले से ही जातीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं। हालांकि, साल 2005 और 2010 के विधानसभा चुनावों के दौरान जाति-कार्ड के बजाय विकास को मुख्य मुद्दा बनते लोगों ने देखा था। इस दौरान यह लगा था कि बिहार के लोग जातीय भावना से अब ऊपर उठ गए हैं, उन्‍होंने इसी में बदलाव के तहत नीतीश कुमार के हाथों में सत्‍ता सौंपी थी। हालांकि, उस समय नीतीश की पार्टी जेडीयू एनडीए का अहम हिस्‍सा थी। एक सकारात्‍मक दिशा की ओर बढ़ने को लेकर लोगों में उम्‍मीद जगी। लालू राज से निकलने की जद्दोजहद के बीच सूबे के मतदाताओं ने नीतीश के नाम पर वोट किया और उन्‍हें सत्‍ता की बागडोर सौंपी। परंतु इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन चुनावों में भी वोटों को अपने अपने तरीके से जाति के नाम पर साधा गया। एक बार तो लगा था कि जातिगत मुद्दे थोड़ा कमजोर पड़ेंगे लेकिन जाति कार्ड खूब चला। साल 2015 आते-आते अब सभी दलों का जोर फिर से जातीय समीकरण बिठाने पर है। 'मोदी बयार' अब उतने सशक्‍त तरीके से बहती नजर भी नहीं आ रही है। इसी के तहत बीजेपी ने एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान और आरएलएसपी प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा को साथ लेकर इन वोट बैंक को पक्‍का करने की पूरी रणनीति बनाई। यह जातिगत वोट ही है जो बीजेपी को मांझी के साथ आने के लिए मजबूर कर रहा है। इस सबके बावजूद बीजेपी का यह कहना है कि पार्टी बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैश्विक छवि के आधार पर लड़ेगी और इसमें जीत हासिल करेगी। यह चुनाव जाति या धर्म के आधार पर नहीं लड़ा जाएगा।

सूबे में दलित और महादलित के मुद्दे पर तो राजनीति पहले से ही सरगर्म रहती थी, लेकिन अब विभिन्‍न पार्टियां की ओर से जातियों की गोलबंदी भी तेज हो गई है। सभी राजनीतिक दल विभिन्न जातियों पर पकड़ रखने वाले नेताओं को अपनी ओर लाने में जुटे हैं। इस बात को इससे समझा जा सकता है कि सूबे में जाति-सम्मेलनों का दौर बदस्‍तूर जारी है। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि नीतीश की अगुवाई वाली सरकार ने तेली, बढ़ई, चौरसिया जाति को अति पिछड़ा वर्ग में और लोहार जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने का निर्णय कर चुकी है। इस फैसले को भी आगामी चुनावों के मद्देनजर जाति-साधना के नजरिए से ही देखा जा रहा है। यह फैसला साबित करता है कि चाहे वो जेडीयू हो या आरजेडी, दोनों दल शुरू से ही जाति की राजनीति करते आ रहे हैं। हाल में चौरसिया सम्मेलन में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बतौर मुख्य अतिथि उसमें शामिल हुए। वहीं, प्रजापति सम्मेलन में लालू प्रसाद ने शिरकत की और समाज के नेताओं का मनुहार भी किया। जो यह दर्शाता है कि इस बार के चुनाव में भी राजनीतिक पार्टियां जातिगत आधार पर वोटों को लुभाने के लिए जी-जान से जुटे हैं। तेली महासम्मेलन, कुर्मी सम्मेलन, गोस्वामी महासभा आदि का आयोजन पहले ही हो चुका है, अब कायस्थ सम्मेलन होना प्रस्तावित है। चुनाव होने तक दलों के नेता इसमें शिरकत कर जाति समीकरणों को पुख्‍ता करते रहेंगे।

दूसरी ओर, बीजेपी ने पहले महादलित नेता जीतनराम मांझी को अपने पाले में किया, जबकि दलित नेता रामविलास पासवान उसके साथ केंद्र की सरकार में शामिल हैं ही। बीजेपी की यह कवायद भी जातिगत समीकरणों के इर्द गिद है। बीजेपी की यह कोशिश एक तरह से पूरे दलित वोट को अपने कब्जे में करने का प्रयास है। बीजेपी यह भी मानती है कि सूबे के भूमिहार समाज के लोगों को साधने में गिरिराज सिंह और राजपूत नेता राधामोहन सिंह के केंद्रीय कैबिनेट में होने का फायदा उसे इस चुनाव में जरूर मिलेगा। बीजेपी का यह भी मानना है कि उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए में होने से कुर्मी और कोइरी यानी कुशवाहा जाति के वोटों में भी सेंध लगेगा। वैसे, इन जातियों के वोटों पर पिछले चुनाव तक नीतीश कुमार का कब्‍जा माना जाता रहा है, परंतु कुशवाहा के अलग दल बना लेने से कुछ वोट इस बार कटने का अंदेशा जेडीयू को भी है। वहीं, सांसद पप्पू यादव भी अलग पार्टी बनाकर यादवों का नेता बनने में लगे हुए हैं। पप्पू के प्रभाव वाले जिले पूर्णिया, सहरसा और मधेपुरा में यादव वोट उनके पक्ष में जा सकता है। वैसे बिहार में लालू प्रसाद की यादवों और मुस्लिम वोटरों के बीच खास पक़ड मानी जाती रही है। आज बिहार में विभिन्न दलों के नेता जिस वोट बैंक को लेकर सबसे ज्यादा आशंकित हैं, वह है यादवों का वोट। एक समय यादव वोट पर लालू प्रसाद यादव का एकाधिकार था। हालांकि, जेडीयू में शरद यादव से लेकर विजेंद्र यादव और नरेंद्र नारायण यादव जैसे नेता हैं। फिर भी यादव वोटों को पूरी तरह साधना इस बार इतना आसान नहीं होगा। यदि पप्पू यादव, यादवों के जितने वोट काटेंगे, उससे आरजेडी को ही नुकसान होगा। लालू-राबड़ी के कार्यकाल में बिहार की राजनीति पर यादवों का साम्राज्य कायम था। लालू जब पहली बार वर्ष 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब बिहार में यादव विधायकों की संख्या 63 थी। लालू जब राजनीति के शिखर पर थे, तब 1995 में संख्या 86 हो गई। साल 2000 में यादव विधायकों की संख्या 64 थी, जबकि 2005 के बाद ये आंक़डा घटने लगा। वर्ष 2005 में 54 और 2010 में महज 39 यादव नेता ही विधायक बने थे। वर्तमान समय में 39 विधायक यादव जाति के हैं, उनमें से 19 जेडीयू और 10 बीजेपी के हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि भाजपा में कमजोर कड़ी नहीं है।

मौजूदा समय में बिहार में नीतीश के टक्कर का कोई नेता बीजेपी के पास नहीं है। यही वजह है कि आरजेडी-जेडीयू गठबंधन ने चुनाव के लिए नीतीश को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया है, लेकिन भाजपा अभी तक अपने किसी नेता को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में सामने नहीं ला पाई है। बिहार में चुनाव पहले से ही जातीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं। साल 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में हालांकि जाति कार्ड के बजाय विकास को मुख्य मुद्दा बनते देखा गया था। लेकिन अब राजनीतिक दलों का जोर एक बार फिर से जातीय समीकरण बिठाने पर है।

इस बार के चुनाव में ये सवाल भी जरूर उठेगा कि क्‍या बीते 10 साल में बिहार का विकास हुआ है? क्‍या आपने अथवा आपके समुदाय ने तरक्‍की की है? किसी जाति विशेष को खास लाभ हुआ है? क्‍या नीतीश सामाजिक परिवर्तन के रोल मॉडल बनकर उभरे हैं। इस सबसे के बीच बीजेपी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुके बिहार चुनाव इस बार इतना आसान नहीं रहेगा जैसा कि लोकसभा चुनावों के समय रहा था। लोकसभा चुनाव के बाद दस विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी का लगभग सूपड़ा साफ हो गया था। इस परिणाम के बाद नरेंद्र मोदी की छवि बुरी तरह प्रभावित हुई।

पिछले विधानसभा चुनाव में जेडीयू के साथ चुनाव लड़कर गठबंधन ने 247 सदस्यीय विधानसभा में 206 सीटें हासिल की थीं। लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने 40 में से 31 सीटें जीत लीं। हालांकि उन्हें 31 फीसदी ही वोट मिले थे। अब बिहार में बीजेपी के के सहयोगी दल भी मान रहे हैं कि अगर वे जीतन राम मांझी के साथ मिलकर अपना अलग फ्रंट बना कर चुनाव लड़ते हैं तो मुसलमान वोट भी उनकी ओर जा सकता है। पप्पू यादव के भी कुछ इलाकों में प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती है। बिहार में छह-सात फीसदी कुशवाहा, 12 से 13 फीसदी यादव, करीब 18 फीसदी दलित और महादलित, छह फीसदी भूमिहार, डेढ़ फीसदी  कुर्मी और करीब 14 फीसदी मुसलिम वोट हैं। ऐसे में पासवान, कुशवाहा, मांझी और पप्पू यादव के साथ आने से उन्हें जीत हासिल हो सकती है। क्योंकि उस हालत में मुस्लिम मतदाताओं का भी उनके प्रति स्वाभाविक झुकाव हो सकता है। लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्‍त खाने के बाद इस बार नीतीश कुमार की अगुवाई में जेडीयू और आरजेडी जनता को लुभाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है। अब नीतीश कुमार ने 'बढ़ा चला बिहार' कार्यक्रम की शुरुआत की है और एक अलग संदेश देने की कोशिश की है। नीतीश सरकार के इस नए कैंपेन के पीछे जेडीयू कार्यकर्ता सभी समीकरणों को पुख्‍ता करने की कोशिश करेंगे।

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