डियर जिंदगी : 'यह भी गुजर जाएगा.'
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डियर जिंदगी : 'यह भी गुजर जाएगा.'

एक बरस बाद सेठ के वही ठाठ हो गए, जो कुछ बरस पहले थे. बस उनके मिजाज में यह फर्क आ गया कि उन्होंनेअब मांगना छोड़ दिया. उसकी जगह देना शुरू कर दिया.

जब तक मनुष्‍य डरेगा, वह प्रेम से दूर ही रहेगा. जब तक प्रेम से दूरी है, समाज अपने संकटों का मिलजुल कर सामना नहीं कर सकेगा

दयाशंकर मिश्र

एक सूफी फकीर नगर सेठ के यहां पहुंचे. सेठ ने उनका भरपूर सत्‍कार किया. उनके पिता ने कहा, बाबा से कुछ मांग लो. सेठ ने कहा, काम थोड़ा मंदा चल रहा है. आशीष दीजिए. फकीर ने कहा 'यह भी गुजर जाएगा.' कुछ महीनों बाद फकीर फिर उधर सेगुजरे. अबकी बार सेठ ने दोगुना सत्‍कार किया. उसके बाद वही अनुरोध दोहराया. फकीर बाबा ने कहा, 'यह भी गुजर जाएगा.'

एक साल बाद. फकीर का फिर वहां से जाना हुआ. सेठ दौड़े-दौड़े आए. तन पर फटे, मैले-कुचौले कपड़े पहने हुए. बोले इस बार कैसे सत्‍कार करूं. अब कुछ बचा ही नहीं. फकीर ने एक नजर उन पर दौड़ाई. और बोले. चिंता मत कर, 'यह भी गुजर जाएगा.' कहते हैं कि एक बरस बाद सेठ के वही ठाठ हो गए, जो कुछ बरस पहले थे. बस उनके मिजाज में यह फर्क आ गया कि उन्होंने अब मांगना छोड़ दिया. उसकी जगह देना शुरू कर दिया. अभिलाषा की जगह वह साझा करने में भी समय बिताने लगे. उसके बाद उनको कभी किसी फकीर, देवता से अर्जी लगाते नहीं सुना, देखा गया. शायद उन्होंने जीवन का वह मर्म समझ लिया, जिसमें सारे जीवन का सार है. 'यह भी गुजर जाएगा.'

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यह समय एकदम उलट है. अखबार पढ़िए. लोगों से मिलिए. सभा में जाइए. सोशल मीडिया में टहलिए. जो जहां है, उसमें असंतोष का भाव इस कदर भरा है कि उसके भीतर कुछ और समाना असंभव है. हर कोई नाराज है. थोड़ी सी कमी हमें भीतर से खिन्‍न कर देती है. जमाने लद गए 'जब थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है' गुनगुनाते हुए हम जिंदगी के रास्‍ते पर इत्‍मिनान की चादर के साथ हर एहसास से सुकून से गुजरते थे'. हमारे भीतर का संयम था. खुद पर भरोसा और अपने हासिल किए पर गहरा संतोष था.

घर परिवार, समाज के रूप में हम कहीं अधिक स्‍नेही थे. एक-दूसरे के लिए हमारे दिलों में जो गली थी, वह कुछ संकरी हो गई है. इसकी एक वजह शायद शहरों का बढ़ना, मनुष्‍य का खुद में सिमटना और एकाकी होते जाना है. जैसे ही हम खुद में सिमटते हैं, सारी चिंताएं हमारे दिमाग, जीवन पर भारी पड़ने लगती हैं, क्‍योंकि हम इस गुजरने को भुला चुके हैं. हम खुद को किसी संघर्ष में नहीं देखना चाहते. देखना तो दूर उसकी कल्‍पना से भी कांपने लगते हैं.

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यह कांपना हमारा असली डर है. और जब तक मनुष्‍य डरेगा, वह प्रेम से दूर ही रहेगा. जब तक प्रेम से दूरी है, समाज अपने संकटों का मिलजुल कर सामना नहीं कर सकेगा. इसलिए आप कितने ही पड़ावों तक पहुंचते रहें, लेकिन मन में थोड़ी सी जगह फकीरी के लिए जरूर रखें. यह चिंता की इस सुनामी को थाम लेगी. भले ही तूफान आपकी छत क्‍यों न उड़ा ले जाए...

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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