किस राह पर नीतीश कुमार
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किस राह पर नीतीश कुमार

जीतन राम मांझी को सत्ता से बेदखल करने के बाद नीतीश कुमार बिहार की बागडोर संभालते ही प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर नई राजनीतिक समीकरण तैयार करने में जुट गए। लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल, मुलायम सिंह यादव की पार्टी समाजवादी पार्टी, ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल, एच डी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेक्यूलर और नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के विलय की प्रक्रिया अंतिम चरण में हैं। इस सिलसिले में नीतीश कुमार दिल्ली में इन तमाम पार्टियों के नेताओं से विचार विमर्श भी कर चुके हैं। इतना ही नहीं उन्होंने तिहाड़ जेल जाकर भ्रष्टाचार के मामले में सजायाफ्ता ओम प्रकाश चौटाला से भी भेंट की।
 
इससे इतर नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात की। इसी दरम्यान यह खबरें आई थीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने भाजपा नेताओं और नीतीश कुमार के साथ गठबंधन की संभावनाएं तलाशने के लिए कहा है। यह बात अलग है कि नीतीश और जदयू के दूसरे नेताओं ने अब भाजपा के साथ दोबारा गठबंधन की किसी भी संभावना से इनकार किया है।

एक समय था भाजपा और जदयू गठबंधन की नीतीश सरकार के दौरान बिहार के विकास की चर्चा देश ही नहीं दुनिया में हो रही थी। कई राज्य नीतीश कुमार के विकास मॉडल को अपनाने की बात करने लगे थे। राजनैतिक हालात ने करवट ली, भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने भाजपा के साथ 17 साल पुराना नाता तोड़कर अपने चीर प्रतिद्वंदी लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद के समर्थन से सरकार बना ली। परन्तु लोकसभा चुनाव में जदयू को करारी हार का सामना करना पड़ा। उनकी पार्टी दो सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई।
 
वोट की राजनीति में जहां जाति और धर्म बहुत मायने रखता है। वहां नीतीश का नया समीकरण कारगर साबित होता दिख रहा है। क्योंकि प्रदेश में मुस्लिम, यादव और कुछ पिछड़ी जातियों को मिला दिया जाए तो जनता परिवार को प्रचंड बहुमत मिल सकता है। यह वोट बैंक अधिकांशतः भाजपा को वोट नहीं करता है। इस लोकसभा चुनाव में राजद को 29 फीसदी और जदयू को 19 फीसदी वोट मिले थे।

अगर दोनों के वोट प्रतिशत को मिला दिया जाय तो 48 प्रतिशत हो जाता है। शायद इसी आंकड़े को देखते हुए नीतीश और लालू ने एक साथ आने का फैसला किया। उधर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की पार्टी लोकसभा चुनाव में 80 में से केवल 5 सीटें ही जीत पाई। राजद के चार, जदएस और इनेलोद के 2-2 सदस्य ही संसद पहुंच सके। ऐसे में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए इन सभी को एक साथ आना मजबूरी भी है। लेकिन यह परिवार कितना एकजुट रह पाएगा कहना मुश्किल है।

राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव करीब 900 करोड़ के चारा घोटाले में दोषी करार दिए चुके हैं। सजा भी सुनाई जा चुकी है। फिलहाल जमानत पर बाहर हैं। वे चुनाव नहीं लड़ सकते। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव पर भी यदाकदा आय से अधिक संपत्ति का मामला सामने आता रहा है। यूपीए सरकार के दौरान वे कह चुके हैं कि सरकार सीबीआई का डर दिखाती है। इनेलोद अध्यक्ष ओम प्रकाश चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में तिहाड़ जेल में बंद हैं।

कहने का मतलब साफ है, जनता परिवार के इन नेताओं की छवि कैसी है। यह किसी से छुपी नहीं है। फिर भी नीतीश कुमार इनके साथ जाने को आतुर हैं। क्या सत्ता पाना है पहला मकसद होता है? कौनसी पार्टी का किस पार्टी के साथ विलय हो रहा है। इससे जनता को कई मतलब नहीं है। जनता सिर्फ विकास, नौकरी, रोजगार, सुशासन और भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहती है। चाहे किसी की भी सरकार हो। अब वक्त बहुत बदल गया है। इसका जीता जागता उदारहण लोकसभा चुनाव में देखने को मिला।

नरेंद्र मोदी ने विकास और रोजगार के मुद्दे पर चुनाव लड़ा और जनता ने उन्हें प्रचंड बहुमत दिया। इसके लिए नेताओं की व्यक्तिगत छवि बहुत मायने रखती है। अब चुनाव में जनता जाति धर्म से ऊपर उठकर ईमानदार और जनहित का काम करने वाले को वोट करती है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ लोगों ने केजरीवाल की ईमानदार छवि पर भरोसा जताया। नीतीश कुमार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। नहीं तो बिहार का बंटाधार हो जाएगा।  
 

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