'उसके साथ चाय का आखिरी कप' की कहानियों में आप सुन सकते हैं अपनी ही धड़कनें
'उसके साथ चाय का आख़िरी कप' की कहानियां पढ़कर ऐसी की दुनिया आपके सामने खुलती है, जो आप ही की दुनिया है लेकिन आप उन्हें देख नहीं पाये.
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जो दुनिया हम खुली आंखों से देखते हैं, उसी के समानांतर एक और दुनिया है जो हमारे अवचेतन में, हमारे सपनों में जीवित होती है. जब हम कहते हैं कि हम वही लिख रहे हैं जो हम देख रहे हैं तो वास्तव में हम यथार्थ से भाग रहे होते हैं. यथार्थ वह नहीं है जो हम देखते हैं. यथार्थ उसके परे कहीं होता है.
सुधांशु गुप्त अपनी कहानियों में अनदीखती, सपनीली और उनींदी दुनिया से यथार्थ पकड़ते हैं. हाल ही में उनका दूसरा कहानी संग्रह आया है 'उसके साथ चाय का आख़िरी कप'. इस संग्रह की कहानियां पढ़कर आप चकित रह सकते हैं. 24 कहानियों के इस संग्रह में ऐसी की दुनियाएं आपके सामने खुलती हैं, जो आप ही की दुनिया है लेकिन आप उन्हें देख नहीं पाये.
इन कहानियों कथ्य के हिसाब से तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहले हिस्से में प्रेम कहानियां रखी जा सकती हैं. उसके साथ चाय का आखिरी कप, प्यार कोई कान्सेंट टर्म नहीं, एक मौन प्रेम कथा, अगले जन्म का प्यार, यह सपना नहीं है, बगैर सूरज के एक दिन और के की डायरी.
इन सभी कहानियों में प्रेम आपको एक अलग धरातल पर ले जाता दिखाई देगा. कहीं ये आपको अगले जन्म में ले जाएगा तो कहीं सपनों में, कहीं ये आपको परिस्थितियों और परिवेश की सैर कराता दिखाई देगा तो कहीं कल्पना के उस लोक में जो रियल से भी ज्यादा रियल है.
'यह सपना नहीं है' कहानी में नायक अपने पुस्तकालय में ही एक लड़की से मिलता है और यह मानने लगता है कि यह लड़की किसी किताब का ही कोई किरदार है. यहां रियल और अनरियल वर्ल्ड के बीच दुविधा को लेखक ने पूरी आत्मीयता से चित्रित किया है. कहानी का अंत आपको चौंकाता भी है और यथार्थ को जानकर आप भयभीत भी हो सकते हैं. 'के की डायरी' में लेखक ने कहानी कहने के लिए डायरी का प्रयोग किया है. वास्तव में सुधांशु अपनी हर कहानी के लिए अलग डिवाइस का प्रयोग करते हैं.
संग्रह के दूसरे हिस्से में आप आपको मध्यवर्गीय इच्छाएं, सपने, तनाव, आपसी रिश्तों की टकराहट, गरीबी, बेरोजगारी का रिश्तों पर पड़ता प्रभाव और उम्मीदें दिखाई देंगी. डबल बेड, सामान के बीच रखा पियानो, नोटिस बोर्ड, आभास, चौथा पहर, पहली तनख्वाह, अक्स अकेली रोशनी, एक छोटी सी इच्छा, कुछ हुआ क्या, शायद लाइट दोबारा जाए, धूप का एक टुकड़ा, घड़ी अब भी बंद है, टाइमिंग और सड़क शामिल हैं.
ये कहानियां आपको नई कहानी आंदोलन की याद दिला सकती हैं. लेकिन ये कहानियां न तो काल्पनिक यथार्थ गढ़ती हैं और न हो इनका भूगोल अपरिचित है. ये वास्तविक जिंदगी से निकली कहानियां हैं इसलिए इन्हें पढ़ना एक सुखद अहसास से गुजरना है.
सुधांशु की कहानियों में इतनी महीन डिटेलिंग है कि आपको अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है. यही डिटेलिंग आपको यथार्थ तक ले जाती है. संग्रह के तीसरे और अंतिम हिस्से में केवल दो कहानियां है- 'कंट्रोल जेड' और संत समीर और सुधीर. कंट्रोल जेड संभवतः संग्रह की सबसे मजबूत कहानी है. कंप्यूटर की एक कमांड कंट्रोल जेड के जरिये लेखक ने पूरी दुनिया को चित्रित किया और कल्पना की है कि काश इस कमांड के जरिये दंगों और हिंसा जैसी बुराइयों का अंत किया जा सके. इस कहानी में 90 के दशक से वर्तमान दौर आपको चलता फिरता दिखाई देता है, यही कहानी की ताकत है. लेकिन कहीं भी कथ्य कमजोर नहीं पड़ता. आप बराबर कहानी के साथ साथ आगे बढ़ते हैं.
दूसरी कहानी 'संत, सत्यवान और सुधीर' में लेखक ने सामूहिक अपराध बोध की बात की है. नायक चैनल पर एक संत के काले कारनमों को देखता है, जिस पर हजारों करोड़ रुपए एकत्रित करने के अलावा अनेक लड़कियों से बलात्कार के आरोप भी हैं. टीवी चैनलों पर इस संत को लेकर लगातार बहसें हो रही हैं. लेखक काल्पनिक स्तर पर इन बहसों में शामिल होता है और खुद को ही संत के रूप में देखता है. लेखक कहानी में यह दिखाते हैं कि इस तरह के अपराधों की जिम्मेदारी भी सामूहिक होनी चाहिए.
पूरे संग्रह में अलग आस्वाद की कहानियां हैं. इस तरह की कहानियां आपको अमूमन पढ़ने को नहीं मिलतीं. अलग परिस्थितियों, और मनोवेगों की इन कहानियों की सबसे खूबसूरत बात है कि इनका कंटेंट हवा में से नहीं आया है. ये सभी कहानियां यथार्थ की बिल्कुल ठोस जमीन में अंकुरित हुई हैं. इसलिए आम से आम पाठक ये कहानियां पढ़ते हुए इनमें अपनी धडकनें सुन सकता है.
किताब- उसके साथ चाय का आख़िरी कप [कहानी संग्रह ]
लेखक-सुधांशु गुप्त
प्रकाशक-भावना प्रकाशन, पड़पड़ गंज दिल्ली-91
कीमत -395 रूपये सजिल्द
पृष्ठः 152