इस शख्स ने खोली भारत में पहली कार फैक्टरी? कहलाते हैं `फादर ऑफ ट्रांस्पोर्टेशन`
First Car Factory in India: आपका भी सपना होगा कि आप अपने जीवन में कभी ना कभी अपनी ड्रीम कार जरूर खरीदें. लेकिन भारत में अगर कार की बात करें, तो क्या आपको यह पता है कि आखिर भारत में पहली कार फैक्टरी किसने खोली थी?
Who Opened First Car Factory in India: आज देश में मारुति हो या टाटा, कई तरह की कारें देखने को मिलती हैं. ग्लोबलाइजेशन के कारण विदेशी कंपनियां भी भारत में अपनी तरह-तरह की कारें बेचती हैं. आज भारत में हर तीसरे घर में आपको कार देखने को मिल जाएगी. आपका भी सपना होगा कि आप अपनी ड्रीम कार खरीदें. लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में पहली कार फैक्ट्री किसने बनाई थी? अगर नहीं, तो आपको इसके बारे में जरूर पता होना चाहिए.
कहलाते हैं फादर ऑफ ट्रांस्पोर्टेशन इन इंडिया
दरअसल, वे भारतीय प्रतिभावान और उद्योगपति वालचंद हीराचंद दोशी हैं, जिन्होंने वालचंद ग्रुप की स्थापना की थी. 1882 में महाराष्ट्र के सोलापुर में जन्मे वालचंद ने 1945 में मुंबई के पास प्रीमियर ऑटोमोबाइल्स की स्थापना की. 1949 में उनकी फैक्ट्री से पहली कार निकली. उन्हें 'फादर ऑफ ट्रांस्पोर्टेशन इन इंडिया' कहा जाता है. इतना ही नहीं, हीराचंद ने भारत में पहला मॉडर्न शिपयार्ड और पहली एयरक्राफ्ट फैक्टरी भी स्थापित की थी.
पहले पैसे उधार देने का करते थे काम
वालचंद हीराचंद दोशी ने मुंबई विश्वविद्यालय से बीए की डिग्री हासिल की थी और ग्रेजुएशन होने के बाद अपने फैमिली बिजनेस में शामिल हो गए. हीराचंद शुरू में कपास का बिजनेस और पैसे उधार देने का काम करते थे. लेकिन कुछ सालों बाद उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें फैमिली बिजनेस में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसलिए, उन्होंने नौकरी छोड़ने का फैसला किया और एक पूर्व रेलवे क्लर्क के साथ साझेदारी में कंस्ट्रक्शन संबंधी काम के लिए रेलवे ठेकेदार बन गए.
इनकी कंपनियां देश के 10 सबसे बड़े व्यापारिक घरानों में से एक
इसके बाद में वे सरकार के अन्य विभागों में ठेकेदार बने. निर्माण कार्य में लगे ठेकेदार के रूप में उनका सबसे बड़ा ग्राहक ब्रिटिश सरकार थी. हालांकि, उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया था. 1947 तक, वालचंद ग्रुप की कंपनियां देश के 10 सबसे बड़े व्यापारिक घरानों में से एक थीं. 1949 में उन्हें स्ट्रोक हुआ और अगले साल उन्होंने व्यवसाय से संन्यास ले लिया. उनके अंतिम वर्षों में उनकी पत्नी कस्तूरबाई ने उनकी देखभाल की. अप्रैल 1953 में गुजरात में उनका निधन हो गया.