भारत में रहते हुए आप नहीं पढ़ सकते ये 5 किताब, जानिए क्यों?
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भारत में रहते हुए आप नहीं पढ़ सकते ये 5 किताब, जानिए क्यों?

इन किताबों को  ना ही खरीद सकते हैं, ना पब्लिश कर सकते हैं और ना ही बेच सकते हैं.

भारत में रहते हुए आप नहीं पढ़ सकते ये 5 किताब, जानिए क्यों?

नई दिल्ली:  कहा जाता है कि किताबें ऐसी दोस्त होती हैं, जो हमेशा साथ रहती हैं. आजकल के डिजिटल दौर में लोगों को लगातार किताबें पढ़ने के लिए मोटिवेट भी किया जाता है. हालांकि, ये देखने को मिला है कि सोशल मीडिया वाली इस पीढ़ी का भी झुकाव किताबों की ओर रहा है. लोग किताबे खरीद भी रहे हैं और पढ़ भी रहे हैं. लेकिन अगर आप से कहा जाए कि भारत में कुछ ऐसी किताबे हैं, जिन्हें आप नहीं पढ़ सकते. जी हां! ये सच है कि भारत में कुछ किताबों को आप कानूनी रूप से नहीं पढ़ सकते हैं. क्योंकि इन पर बैन लगा हुआ है. ना ही खरीद सकते हैं, ना पब्लिश कर सकते हैं और ना ही बेच सकते है. आइए जानते हैं ऐसी ही पांच किताबों के बारे में...

1.द फेस ऑफ मदर इंडिया- इस किताब को कैथरीन मेयो ने लिखी है और यह साल 1935 में पब्लिश की गई थी. दअरसल, इस किताब में भारत की संस्कृति की आलोचना की गई है. यहां तक ब्रिटिश शासन के नजरिए से लिखी गई किताब में भारतीय को स्वशासन के अयोग्य बताया गया है. 

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2.द ट्रू फुरकान- इस किताब को अल सफी और अल महदी नाम के लेखकों ने मिलकर लिखा है. इसे साल 1999 में वाइन प्रेस पब्लिशिंग ने छापी थी. इस किताब पर आरोप लगे कि  इसमें मुस्लिमों का मजाक उड़ाया गया. और इसके जरिए ईसाइ धर्म अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. इस किताब के आयात पर भी बैन है. 

3.हिंदू हैवन- इस किताब को मैक्स वाइली ने साल 1933 में लिखी थी. माइक वाइली ये किताब अमेरिकी मिशनरीज के भारतीय काम पर लिखा गया है. इस किताब पर आरोप है कि इसमें काफी गलत बातें लिखी गई हैं. 

4. लेडी चैटर्लीज लवर- इस किताब को डी एच लॉरेंस ने लिखी है. इसे पहले लेखक ने खुद और बाद में पेंग्विन द्वारा प्रकाशित किया. इस किताब पर आरोप है कि इसमें काफी अश्लीलता परोसी गई है. यह किताब ब्रिटिश राज से बैन हैं और प्रतिबंध अभी तक चला आ रहा है. 

5. रंगीला रसूल- इस किताब को पंडित चमूपति एम ए ने लिखी है. हालांकि, कहा जाता है कि यह लेखक का असली नाम नहीं है. मो. रफी पब्लिकेशन से साल 1927 में छपी इस किताब पर मुस्लमानों की धार्मिक भावना को आहत करने का आरोप है. 

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