'कयामत से कयामत तक' की रिलीज के 30 साल बाद इसकी एक बार फिर स्क्रीनिंग होने जा रही है. एक प्रसिद्ध रेडियो स्टेशन ने फिल्म की खास स्क्रीनिंग का इंतजाम किया है. 12 मई को मैटरडन दीपक सिनेमा में 30 साल बाद एक बार फिर 'कयामत से कयामत तक' को बड़े पर्दे पर दिखाया जाएगा.
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1988 में एक मासूम लव स्टोरी 'कयामत से कयामत तक' रिलीज हुई थी. जवां दिलों की धड़कन को पेश करती मंसूर खान की इस फिल्म में एक्टर्स से लेकर डायरेक्टर तक सब नए थे. फिल्म जब बॉक्स ऑफिस पर रिलीज हुई तो उसने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए. पब्लिक ने इसको भरपूर सराहा. इसका फायदा हर किसी को मिला. आमिर खान के रूप में एक नए सुपरस्टार का जन्म हुआ. शोख-चंचल एक्ट्रेस जूही चावला का इंडस्ट्री में जलवा देखने को मिला. पिछले दिनों इसी 'कयामत से कयामत तक' फिल्म के 30 साल पूरे हुए हैं.
इसके चलते 'कयामत से कयामत तक' की रिलीज के 30 साल बाद इसकी एक बार फिर स्क्रीनिंग होने जा रही है. एक प्रसिद्ध रेडियो स्टेशन ने फिल्म की खास स्क्रीनिंग का इंतजाम किया है. 12 मई को मैटरडन दीपक सिनेमा में 30 साल बाद एक बार फिर 'कयामत से कयामत तक' को बड़े पर्दे पर दिखाया जाएगा और आमिर खान से लेकर फिल्म की पूरी कास्ट मिलकर फिल्म का लुत्फ उठाएगी.
'जूही चावला': आज भी जिनकी मुस्कान के कायल हैं लोग
इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल अब यह उठ रहा है कि एक पीढ़ी बीतने के बाद इस कामयाब फिल्म को क्या अब 'क्लासिक' का दर्जा दिया जा सकता है? ऐसा इसलिए क्योंकि इस फिल्म ने बॉलीवुड के लिहाज से कई नए प्रतिमान बनाए. नतीजतन हिंदी फिल्मी उद्योग का रंग-ढंग काफी बदल गया. मसलन आजादी के चार दशक बाद रिलीज हुई इस फिल्म में बुर्जुगों की युवाओं से अपेक्षा और इस कारण उनको अपने सपनों को तिलांजलि देने के लिए मजबूर होने की कश्मकश को दिखाया गया है.
इस लिहाज से इस जोन की मूवीज में यह अंतिम बड़ी कड़ी दिखाई देती है क्योंकि उसके बाद वैश्वीकरण(1991) की घटना ने बाजार को जहां एक तरफ खोला तो वहीं दूसरी तरफ नई युवा पीढ़ी उस कश्मकश से उबरकर अपने निर्णयों में आजाद दिखाई देने लगी. उसके बाद की फिल्मों में नायक-नायिका को स्वतंत्र और कुछ हद तक स्वच्छंद कर दिया.
आज से 30 साल पहले आमिर खान ने किया था बॉलीवुड में डेब्यू
मंसूर खान ने इस फिल्म के बारे में कहा कि पहले वह इस फिल्म का अंत सुखांत करना चाहते थे लेकिन जैसे-जैसे फिल्म का प्रवाह आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे उन्होंने अपने आपको इसके साथ छोड़ दिया और इस कारण अंत दुखांत के रूप में देखने को मिला. इस रूप में भी इसको मील का पत्थर कहा जा सकता है क्योंकि इसके बाद 1990 के दशक से फिल्मों का यथार्थ चित्रण देखने को मिलने लगा. फिल्में काल्पनिक दुनिया के बजाय वास्तविक जिंदगी की पटरी पर उतरने लगीं. फिल्मों की इस धारा को मल्टीप्लेक्स सिनेमा कल्चर का बड़ा सहारा मिला और ये आज मुख्यधारा के सिनेमा का सबसे प्रमुख आकर्षण है.