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नई दिल्ली : कम बजट की और बिना किसी स्टार वाली फिल्में अकसर आती हैं और बाजार में बिना किसी तरह की चर्चा पैदा किए बगैर वापस चली जाती हैं। लेकिन सबके शीर्षक ऐसे नहीं होते कि उनपर ध्यान ना जाए। ‘यहां सबकी लगी है’ ऐसी ही एक फिल्म है।
इस ट्रैजिकॉमेडी (त्रासदी और हास्य) फिल्म में शहरों में रहने वाले युवा की बेचैनी दिखायी गयी है। इसकी कहानी ऐसी है जिसपर ध्यान जाता ही जाता है।
फिल्म एक सड़क यात्रा की कहानी है जो गड़बड़ हो जाती है। यह फिल्म अपने अच्छे विषय की वजह से सामान्य से कहीं ऊपर हैं। टीना ए बोस और सायरस आर खंबाटा की पहली फिल्म स्वतंत्र मुंबईया फिल्मों के पैरामीटर से अलग एक रचनात्मक क्षेत्र से आती है।
सतह पर यह तीन अलग लोगों के सफर की कहानी है। लेकिन इसके नाटकीय तह में समाज की कई खामियां दिखती हैं। अपशब्दों से भरे संवादों में कई भाषाओं - हिन्दी, अंग्रेजी, बंगाली और थोड़ी मराठी का मिश्रण हैं।
एक लापरवाह मजेंट नेवी अधिकारी (वरूण ठाकुर), एक धनी लेकिन विद्रोही लड़की केसांग (इडेन श्योढ़ी) और उसका कार चालक चंदू (हीरोक दास) केसांग के एसयूवी में सफर पर निकलते हैं।
तीनों केसांग के पूर्व प्रेमी का जन्मदिन मनाने गोवा जा रहे हैं। लेकिन तीन बीड़ीबाज, मोटरसाइकिल सवार गुंडे उनका रास्ता रोकते हैं और उन्हें नशा खिला देते हैं। जब तीनों होश में आते हैं तो खुद को एक जंगल में पाते हैं और उनका कोई सामान उनके पास नहीं होता। इस जगह से फिल्म आगे और पीछे जाती है जहां उन कारणों का खुलासा किया जाता है जिनकी वजह से वे इस मुश्किल में पड़ते हैं।
फिल्म मुख्य रूप से आजादी की तलाश कर रहे मोहभंग के शिकार युवाओं की कहानी है। फिल्म में एक जगह बॉब मार्ले, जिम मॉरिसन और बुद्ध की ओर भी इशारा किया गया है। फिल्म में कई जगहों पर ज्यादा गति और स्पष्टता की जरूरत थी। लेकिन इन्हें दरकिनार कर देखें तो फिल्म में एक तरह का दर्शन है और अच्छे कलाकारों के उर्जावान अभिनय एवं शानदार संवादों ने फिल्म को संतुलित रखा है।
फिल्म का लय और जायका खुद का ही है। यह फिल्म उन लोगों के लिए है जो लीक से हटकर बनी फिल्में देखना चाहते हैं।