India Justice Report 2025: देशभर के 78% पुलिस थानों में महिला हेल्प डेस्क मौजूद हैं जबकि जिला न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी 38% है. 86% जेलों में अब वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा है. पुलिस बल में ST की हिस्सेदारी 12% और SC की 17% है. देशभर की जेलों में सिर्फ 25 मनोवैज्ञानिक या मनोरोग विशेषज्ञ तैनात हैं. पढ़ें ये पूरी रिपोर्ट...
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Indian Police: देश में महिलाओं और पुरुषों में समानता की लड़ाई दशकों से चली आ रही है. हर जगह महिलाओं की बराबर की भागीदारी की बात हो रही. देश के पुलिस महकमे में ही ये अनुपात बेहद खराब है. जजों की कमी है तो जेलें ओवर क्राउडेड हैं. भारत के 20 लाख पुलिस बल में सीनियर रैंक (सुपरिंटेंडेंट और डायरेक्टर जनरल) में 1000 से भी कम महिला अधिकारी हैं. गैर-आईपीएस अफसरों को जोड़ लें, तो यह संख्या केवल 25000 से थोड़ा ही ज्यादा है. नॉन-आईपीएस कैटेगरी के कुल 3.1 लाख अफसरों में महिलाएं सिर्फ 8% हैं, जबकि पुलिस बल में कार्यरत कुल महिला कर्मियों का 90% हिस्सा कांस्टेबल स्तर पर है. न्याय-व्यवस्था की गुणवत्ता पर ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ 2025 में कई बड़े खुलासे हुए हैं.
रिपोर्ट में इस बार भी 1 करोड़ से अधिक आबादी वाले 18 बड़े और मध्यम आकार के राज्यों में कर्नाटक पहले नंबर पर है. आंध्र प्रदेश पांचवें स्थान से चढ़कर दूसरे स्थान पर पहुंचा है. तेलंगाना (2022 में तीसरे) और केरल (2022 में छठे) स्थान पर रहे. दक्षिण भारत के पांच राज्यों ने सभी चार मापदंडों (पुलिस, न्यायपालिका, जेल और कानूनी सहायता) पर तुलनात्मक रूप से बेहतर प्रदर्शन किया. कर्नाटक ऐसा एकमात्र राज्य है जिसने पुलिस बल (कांस्टेबल और अधिकारी स्तर पर) और जिला न्यायपालिका में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए निर्धारित आरक्षण को पूरा किया है.
केरल में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की रिक्तियों की संख्या सबसे कम है. तमिलनाडु की जेलों में बंदियों की दर सबसे कम (77%) है, जबकि राष्ट्रीय औसत 131% से अधिक है. पुलिस के मामले में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश ने अन्य राज्यों को पीछे छोड़ते हुए क्रमशः पहला और दूसरा स्थान हासिल किया है.
सात छोटे राज्यों (जिनकी जनसंख्या एक करोड़ से कम है) में सिक्किम लगातार शीर्ष पर रहा (2022 में भी पहले स्थान पर था). इसके बाद हिमाचल प्रदेश (2022 में छठे स्थान पर) और अरुणाचल प्रदेश (2022 में दूसरे स्थान पर) रहे. IJR की रिपोर्ट के मुताबिक 2022 और 2025 के बीच बिहार ने सबसे अधिक सुधार किया है. इसके बाद छत्तीसगढ़ और ओडिशा का स्थान है. सुधार की अंक तालिका में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड ने हरियाणा, तेलंगाना और गुजरात सहित सात अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया.
पुलिस में महिलाओं की क्या है स्थिति
● पुलिस बल में कुल 2,42,835 महिला कर्मियों में से केवल 960 अधिकारी आईपीएस रैंक में हैं (कुल 4,940: डीआईजी, डीजी, आईजी, एआईजीपी, एडिशनल एसपी, एडीएलएसपी / डिप्टी कमिश्नर).
● गैर-आईपीएस श्रेणी में 24,322 महिलाएं हैं (कुल 3,10,444: डिप्टी एसपी, इंस्पेक्टर, एसआई और एएसआई).
● डिप्टी एसपी के कुल 11,406 पदों में से 1,003 पर महिलाएं हैं, जिनमें सबसे अधिक 133 मध्यप्रदेश में हैं.
● 2,17,553 महिलाएं कॉन्स्टेबल और हेड कॉन्स्टेबल के पदों पर कार्यरत हैं (कुल 17,24,312).
द इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (आईजेआर) की शुरुआत टाटा ट्रस्ट्स ने की थी और उसकी पहली रैंकिंग 2019 में आई थी. यह रिपोर्ट का चौथा संस्करण है. इस रिपोर्ट पर जस्टिस (रिटायर्ड) मदन बी. लोकुर ने कहा कि हम न्याय प्रणाली की अग्रिम पंक्ति जैसे पुलिस थानों, पैरालीगल वॉलंटियर्स और जिला अदालतों को पर्याप्त संसाधन और प्रशिक्षण देने में विफल रहे हैं. इसी कारण जनता का भरोसा टूटता है. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की चीफ एडिटर माया दारुवाला ने कहा कि भारत एक लोकतांत्रिक और कानून से चलने वाले देश के तौर पर सौ साल पूरे करने की ओर बढ़ रहा है. लेकिन यदि न्याय प्रणाली में सुधार तय नहीं होंगे, तो कानून के राज और समान अधिकारों का वादा खोखला रहेगा.
18 बड़े और मध्यम आकार के राज्यों की रैंकिंग इस प्रकार है:
18 राज्यों की रैंकिंग
सात छोटे राज्यों की रैंकिंग
सुधार को प्रोत्साहन, पर अंतर अभी भी बरकरार
न्यायपालिका: 1.4 अरब लोगों के देश में भारत में कुल 21,285 न्यायाधीश हैं. यानी प्रति 10 लाख आबादी पर केवल 15 जज. यह 1987 में विधि आयोग द्वारा सुझाए गए 50 न्यायाधीश प्रति 10 लाख की सिफारिश से काफी कम है. उच्च न्यायालयों में 33% और जिला न्यायपालिका में 21% पद रिक्त हैं. इससे न्यायाधीशों पर भारी कार्यभार पड़ता है, विशेष रूप से उच्च न्यायालयों में. उदाहरण के लिए इलाहाबाद और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालयों में एक न्यायाधीश पर औसतन 15,000 मामले लंबित हैं. वहीं, देशभर की जिला अदालतों में एक न्यायाधीश पर औसतन 2,200 मामले हैं.
पुलिस: पुलिस विभाग में भी भारी रिक्तियां हैं. अधिकारियों के 28% और सिपाहियों के 21% पद खाली हैं. देश में पुलिस-जनसंख्या अनुपात 1:831 है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार प्रत्येक एक लाख आबादी पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए. भारत में यह संख्या केवल 120 है (वास्तविक नियुक्तियों के अनुसार).
जेल: अधिकारियों में 28% पद खाली हैं. कैडर स्टाफ में 28% और सुधारात्मक कर्मचारियों में 44% पद खाली हैं. जेल कर्मचारियों में उच्च स्तर की रिक्तियां चिंता का कारण बनी हुई हैं. चिकित्सा अधिकारियों के 43% पद खाली हैं, जबकि मॉडल प्रिज़न मैनुअल(2016) में कैदी-डॉक्टर अनुपात पर गौर करें तो इसमें 300 कैदियों पर 1 डॉक्टर निर्धारित किया गया है, पर भारत का राष्ट्रीय औसत 775 कैदियों पर एक डॉक्टर है. वास्तव में, छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल सहित कई बड़े राज्यों में 1,000 से अधिक कैदियों पर एक डॉक्टर था.
फोरेंसिक: फोरेंसिक विज्ञान के क्षेत्र में, प्रशासनिक कर्मचारियों की 47% और वैज्ञानिक कर्मचारियों की 49% रिक्तियां हैं.
पैरालीगल वालंटियर्स या पीएलवी: सामुदायिक स्तर के पैरालीगल वालंटियर्स की संख्या 2019 और 2024 के बीच 38% तक गिर गई है, जिसमें तमिलनाडु, राजस्थान और पंजाब में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई है. अब एक लाख की आबादी पर केवल 3 पैरालीगल वालंटियर्स हैं. राष्ट्रीय स्तर पर, प्रशिक्षित 53,000 से अधिक पैरालीगल वालंटियर्स में से, केवल एक तिहाई को ही वास्तव में तैनात किया गया था.
इंफ्रास्ट्रक्चर: कुछ बुनियादी सुविधाओं में सुधार हुआ है, जैसे कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधा वाले जेलों की संख्या में वृद्धि (86%), कोर्ट हॉल की कमी में थोड़ी गिरावट (14.5%), सीसीटीवी वाले पुलिस स्टेशनों की संख्या में सुधार (83%) और प्रति जेल कानूनी सेवा क्लीनिक (1,330 जेलों में 1,215 क्लीनिक) हो गए हैं. गांवों में कानूनी सेवा क्लीनिकों की संख्या में कमी आई है (2017 में प्रति क्लीनिक 42 गांवों से घटकर 2024 में केवल 163). देश में जनवरी 2017 और जनवरी 2023 के बीच ग्रामीण पुलिस स्टेशनों में 735 की कमी आई है, जबकि शहरी पुलिस स्टेशनों में 193 की वृद्धि हुई है.
राष्ट्रीय स्तर पर जेलों में इंफ्रास्ट्रक्चर कमजोर दिखाई पड़ता है. भारत की जेलें क्षमता से अधिक भरी हुई हैं, जिनकी राष्ट्रीय औसत ऑक्युपेंसी रेट 131% से अधिक है. 2022 तक, उत्तर प्रदेश की हर तीसरी जेल में 250% से अधिक की ऑक्युपेंसी रेट दर्ज की गई. अपनी वर्तमान दर पर, भारत की जेलों में कैदियों की संख्या 2030 तक 6.8 लाख तक पहुंचने का अनुमान है, जबकि मौजूदा क्षमता की दर से इसकी जेल क्षमता 5.15 लाख तक बढ़ने की संभावना है.
दो-तिहाई से अधिक कैदी (76%) विचाराधीन हैं. विचाराधीन कैदियों का एक बड़ा हिस्सा जेलों में अधिक समय बिता रहा है, 3-5 साल के बीच जेलों में रहने वालों की हिस्सेदारी 2012 में 3.4% से लगभग दोगुनी होकर 2022 में 6% हो गई है. इसके अलावा, 5 साल से अधिक समय तक जेल में रहने वालों की संख्या तीन गुना हो गई है, जो इसी अवधि में 0.8% से बढ़कर 2.6% हो गई है.
2019 और 2023 के बीच के आंकड़ों से पता चलता है कि विभिन्न राज्यों में प्रदर्शन में महत्वपूर्ण अंतर है. इन समितियों ने पूरे देश में लगभग 2.5 लाख कैदियों की रिहाई की सिफारिश की है, और रिहाई की औसत दर 47 प्रतिशत है.
विविधता: अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग (एसी/एसटी/ओबीसी): पुलिस बल का 59% हिस्सा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग के कर्मियों से बना है. हालांकि, पद के अनुसार इसमें काफी असमानता है, जबकि कॉन्स्टेबल स्तर पर 61% कर्मी एससी, एसटी या ओबीसी जातियों से हैं, वहीं डीएसपी जैसे वरिष्ठ पदों पर उनकी हिस्सेदारी घटकर केवल 16% रह जाती है.
न्यायाधीश: जिला न्यायपालिका में, केवल 5% न्यायाधीश अनुसूचित जनजातियों से और 14% अनुसूचित जातियों से हैं. 2018 से नियुक्त 698 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से केवल 37 न्यायाधीश एससी और एसटी श्रेणियों से हैं.
लिंग: विविधता पर बढ़ते ध्यान के साथ, पुलिस में महिलाओं की हिस्सेदारी मामूली रूप से बढ़कर 12% हो गई है, हालांकि, अधिकारी स्तर पर यह केवल 8% पर स्थिर है. कुल महिला पुलिस बल का 89% हिस्सा केवल कॉन्स्टेबल पदों पर है.
जिला अदालतों (38%) में उच्च न्यायालयों (14%) और सर्वोच्च न्यायालय (6%) की तुलना में महिला न्यायाधीशों की हिस्सेदारी भी अधिक है. वर्तमान में, 25 उच्च न्यायालयों में केवल एक महिला मुख्य न्यायाधीश हैं.
न्याय के लिए बजट: कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति खर्च 7 रुपये तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि पुलिस पर खर्च 6 वर्षों में 55% बढ़ा है, और राष्ट्रीय औसत अब लगभग 1300 रुपये के करीब है. हालांकि, प्रशिक्षण पर खर्च बहुत कम बना हुआ है, पुलिस बजट में प्रशिक्षण बजट की राष्ट्रीय औसत हिस्सेदारी 1.25% है.
कानूनी सहायता: कानूनी सहायता पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति वार्षिक खर्च मामूली 6.46 रुपये है.
जेल: जेलों पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति खर्च 57 रुपये है। 2022-23 में, प्रति कैदी राष्ट्रीय औसत खर्च 2021-22 के 38,028 रुपये से बढ़कर 44,110 रुपये हो गया. आंध्र प्रदेश में प्रति कैदी वार्षिक खर्च सबसे अधिक 2,67,673 रुपये दर्ज किया गया है.
न्यायपालिका: न्यायपालिका पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति खर्च 182 रुपये है. कोई भी राज्य अपने कुल वार्षिक व्यय का एक प्रतिशत से अधिक न्यायपालिका पर खर्च नहीं करता है.
पुलिस: पुलिस पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति खर्च 1,275 रुपये है - जो चारों स्तंभों में सबसे अधिक है.
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