PoK, UN में कश्मीर, चीन को UNSC की स्थायी सीट, सोमनाथ की उपेक्षा... नेहरू की किन भूलों को BJP भूलने नहीं देती
Jawaharlal Nehru: PoK,सीजफायर, UN में कश्मीर मुद्दा, चीन को UNSC की स्थायी सीट, सोमनाथ की उपेक्षा और तिब्बत समेत और कौन-कौन से बड़े मुद्दे हैं, जिनको लेकर पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के फैसले को भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़े कई संगठन सवाल उठाते हैं और उन्हें ऐतिहासिक भूल करार देते हैं.
Nehruvian Blunder : संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा में जम्मू-कश्मीर से जुड़े दो बिल जम्मू-कश्मीर आरक्षण संशोधन विधेयक – 2023 (Jammu and Kashmir Reservation (Amendment) Bill – 2023) और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन संशोधन विधेयक- 2023 (Jammu and Kashmir Reorganization (Amendment) Bill- 2023) पेश करने के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की गलती वाले बयान पर सियासी घमासान मचा है. बीजेपी और कांग्रेस के बीच इस मुद्दे को लेकर जुबानी जंग जारी है. अमित शाह ने लोकसभा में कहा था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की दो ‘ऐतिहासिक भूलो’ के कारण जम्मू-कश्मीर को नुकसान उठाना पड़ा. पहला जल्दी युद्धविराम की घोषणा करना और दूसरा कश्मीर मामले को लेकर संयुक्त राष्ट्र में जाना. शाह ने सदन में कहा, ‘पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (PoK) भारत का हिस्सा होता. अगर पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू की तरफ से सही कदम उठाए जाते.’ इसके बाद पंडित नेहरू की ऐतिहासिक भूलों को लेकर भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता हमलावर हो गए. वहीं, कांग्रेस नेता और समर्थक बचाव और पलटवार में लग गए. जानने की कोशिश करते है कि आखिर कौन-कौन से बड़े मुद्दे हैं जिन पर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कदमों को लेकर भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़े और संगठन सवाल उठाते हैं और गलती करार देते हैं.
जम्मू कश्मीर विलय, सीजफायर, पीओके, यूएन से लेकर विशेष दर्जा तक सिलसिलेवार भूल
सबसे पहले उन मुद्दों की बात जिनके बारे में अमित शाह ने संसद में याद दिलाई. 1948 में जल्दी युद्धविराम की घोषणा किए जाने को अमित शाह ने पंडित नेहरू की गलती करार दिया. उन्होंने कहा कि अगर उनकी ओर से सही कदम उठाए जाते और जल्दी सीजफायर नहीं किया जाता तो पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (PoK) भारत का हिस्सा होता. अमित शाह ने इसके अलावा देश के आंतरिक कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने और आर्टिकल 370 के तहत कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने को भी ऐतिहासिक नेहरूवियन बलंडर करार दिया. वहीं, पिछले साल पंडित नेहरू की जयंती और उससे पहले भारत में जम्मू और कश्मीर के प्रवेश (27 अक्टूबर, 1947 ) की वर्षगांठ पर तत्कालीन कानून मंत्री किरण रिजिजू ने अपने आलेख 'कश्मीर पर पांच नेहरूवादी भूलों की 75वीं सालगिरह' के जरिये बड़ा हमला बोला था. रिजिजू ने लिखा था कि नेहरू की नीति थी पहले दोस्त फिर भारत. देश ने सात दशक तक उनकी नीतियों का नुकसान उठाया है. किरण रिजिजू ने लिखा कि पहली भूल, जुलाई 1947 में ही महाराजा हरि सिंह भारत में विलय चाहते थे, नेहरू ने नकार दिया. दूसरी गलती, नेहरू ने बाद में शर्तों के साथ विलय को मंजूरी दी. तीसराी, जब आर्टिकल 35 के तहत UNO में मामला लेकर गए, 51 का इस्तेमाल नहीं किया. चौथी भूल, UN के दखल के बाद कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग खुलेआम उठने लगी और पांचवी गलती आर्टिकल 370 लगाया, जिससे अलगाववाद की भावना जन्मी. रिजिजू ने लिखा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन गलतियों को ठीक कर चुके हैं. इसका असर दिखने लगा है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट थाली में सजाकर चीन को देना और तिब्बत का मसला
ये तो था पंडित नेहरू की कश्मीर और पीओके केंद्रित गलतियों के लेकर भाजपा की ओर से बार-बार निशाना. इसके बाद आता है चीन और तिब्बत का मुद्दा. चीन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट थाली में सजाकर दिए जाने का आरोप पंडित नेहरू पर मढ़ा जाता है. हाल ही में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि था पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट थाली में सजाकर चीन को दे दी थी. जी20 सम्मेलन के समापन के दौरान अमेरिका, रूस, फ्रांस ने भारत की अध्यक्षता में इस बैठक के परिणाम की तारीफ की और उसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सुरक्षा परिषद के विस्तार की फिर जोरदार पैरवी की करते हुए सभी वैश्विक संगठनों में सुधार पर जोर दिया. इसके तुरत बाद यानी भाजपा के ऑफिशियल हैंडल से सोशल मीडिया ‘एक्स' पर पोस्ट किया गया था, ‘‘आज भारत प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में विश्व को एक आकार दे रहा है तथा दुनिया सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट के लिए भारत की ओर से की जा रही कोशिश का समर्थन कर रही है जबकि नेहरू ने थाली में सजाकर यह स्थायी सीट चीन को दे दी थी. हमारे इतिहास पर गांधी परिवार के गैर-देशभक्ति पूर्ण कृत्य का साया है.'' फिलहाल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस पांच स्थायी सदस्य हैं. सुरक्षा परिषद में विस्तार और वैश्विक संगठनों में सुधार की जोरदार पैरवी करते हुए पीएम मोदी ने अपने भाषण कहा था कि दुनिया को बेहतर भविष्य की ओर ले जाने के लिए जरूरी है कि वैश्विक व्यवस्था वर्तमान वास्तविकताओं के अनुसार हो.
तिब्बत पर ड्रैगन का कब्जा, भारत से चीन का युद्ध और माओ त्से तुंग की नापाक मंशा
तिब्बत 1949 में ब्रिटेन से आजाद होने बाद चीन ने 1950 में एक आजाद मुल्क तिब्बत पर आक्रमण कर दिया. चीन ने क्रूरता करते हुए तिब्बत से एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा छीन लिया. चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने 1950 में तिब्बत पर हमला किया तो उस वक्त पंडित जवाहर लाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे. पंडित नेहरू के जिम्मे तिब्बत से जुड़ी ऐतिहासिक भूल भी बताई जाती है. इतिहासकारों के मुताबिक, तत्कालीन नेहरू सरकार चाहती तो तिब्बत आज भारत और चीन के मध्य एक बफर स्टेट के रूप में रह सकता था. फ्रांसीसी मूल के लेखक, पत्रकार और तिब्बत की इतिहास के जानकार क्लाउडे अर्पी (Claude Arpi) ने ‘विल तिब्बत एवर फाइंड हर सोल अगेन (Will Tibet find her soul again)’ नाम की अपनी पुस्तक में कई ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से लिखा है कि जब चीनी सेना तिब्बत को तबाह कर रही थी तो पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के खाने के लिए चावलों की सप्लाई भारत से हो रही थी. हिंदी-चीनी भाई-भाई के दौर में भारत के भेजे हुए चावल खाकर चीनी ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया. पंडित नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेलउस दौरान तिब्बत पर ड्रैगन के आक्रमण, छल-प्रपंच और अजगर की तरह निगल जाने के बारे में व्यापक रूप से सहमत नहीं थे. इसके एक दशक बाद 1962 में चीन के भारत को उकसाने, युद्ध करने और जमीन दबाने को पंडित नेहरू ने खुद धोखा माना था. एक चर्चित तथ्य है कि चीन के नेता माओ ने तिब्बत को चीन की हथेली और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और नेफा को इसकी पाँच ऊँगलियाँ कहा था, लेकिन भारत कभी भी माओ त्से तुंग के इस बयान की गहराई और मंशा को नहीं पहचान पाया. विस्तारवादी चीन आज भी पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के खिलाफ संवेदनशील सामरिक रणनीतियां बनाता रहता है.
सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर नाखुशी जताना, राजेंद्र बाबू को रोकने की कोशिश
कुछ साल पहले गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी जब सोमनाथ मंदिर में पूजा करने पहुंचे थे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वेबसाइट के टि्वटर हैंडल पर उनके हवाले से कई पोस्ट में लिखा गया, ''अगर सरदार पटेल ना होते तो सोमनाथ में मंदिर संभव ना होता. आज कुछ लोग सोमनाथ को याद कर रहे हैं. मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आप इतिहास भूल गए हैं क्या? आपके परिवार के सदस्य, हमारे पहले प्रधानमंत्री यहां मंदिर बनाने के पक्ष में ही नहीं थे. जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद को यहां सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन करने के लिए आना था, तो इस पर पंडित नेहरू ने नाख़ुशी जताई थी.'' इतिहासकारों के मुताबिक, भारत ने विभाजन के बाद रियासतों के एकीकरण के दौरान तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल 12 नवंबर, 1947 को जूनागढ़ पहुंचे और उसे मिला लिया. इसके बाद उन्होंने भारतीय सेना को इस क्षेत्र को स्थिर बनाने निर्देश दिए. इसके साथ ही सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का आदेश दिया. सरदार पटेल, कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी और कांग्रेस के दूसरे नेता सोमनाथ पुनर्निर्माण के प्रस्ताव के साथ महात्मा गांधी के पास गए. बताया जाता कि महात्मा गांधी ने इस फैसले का स्वागत किया, लेकिन सुझाव दिया कि निर्माण के सरकारी खजाने की जगह, मंदिर बनाने के खर्च में लगने वाला पैसा आम जनता से दान के रूप में इकट्ठा किया जाना चाहिए. इसके कुछ दिनों बाद ही महात्मा गांधी की हत्या हो गई. फिर सरदार पटेल भी नहीं रहे.
सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की ज़िम्मेदारी नेहरू सरकार में खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री केएम मुंशी पर आ गई. साल 1950 के अक्टूबर में सोमनाथ मंदिर के जर्जर हिस्सों को ढहाया गया. साथ ही वहां मौजूद मस्जिद जैसे ढांचे को कुछ किलोमीटर दूर सरकाया गया. मुंशी के निमंत्रण पर मई, 1951 में भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर पहुंचे थे. इस अवसर पर उन्होंने कहा था, ''सोमनाथ मंदिर इस बात का परिचायक है कि पुनर्निर्माण की ताकत हमेशा तबाही की ताकत से ज्यादा होती है.'' इसके बाद चर्चा होने लगी थी कि पंडित नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर ना जाने की सलाह दी थी. नेहरू का कहना था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है. इसलिए राष्ट्रपति के किसी मंदिर के कार्यक्रम में जाने से दुनिया में गलत संकेत जाएगा. हालांकि, डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उनकी राय नहीं मानी. इसके बाद सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण से नेहरू ने खुद को अलग रखा था. उन्होंने तत्कालीन सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र तक लिखकर कहा था कि सोमनाथ मंदिर पुनर्निर्माण परियोजना के लिए सरकारी फंड का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.