10 साल बाद कांग्रेस ने जब लोकसभा में 99 सीटें जीतीं तो ये कहा जाने लगा कि कांग्रेस वापसी कर रही है. 'मोदी मैजिक' ठंडा पड़ रहा है. उसके बाद छह महीने भी नहीं गुजरे कि कांग्रेस को हरियाणा और महाराष्‍ट्र में जबर्दस्‍त शिकस्‍त उठानी पड़ी. करारी हार इसलिए क्‍योंकि इन दोनों ही राज्‍यों से ग्राउंड रिपोर्ट कुछ इस तरह की आ रही थीं कि वहां कांग्रेस को फायदा मिल सकता है लेकिन परिणाम उलट रहे. जम्‍मू-कश्‍मीर विधानसभा में भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली और झारखंड में भी सीटों के लिहाज से पार्टी वहीं बनी रही जहां पिछली बार रही. सो सवाल उठता है कि आखिर कांग्रेस राज्‍यों में क्‍यों कुछ नहीं कर पा रही है?


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महाराष्‍ट्र और हरियाणा
महाराष्‍ट्र में लोकसभा चुनावों के दौरान महा विकास अघाड़ी का हिस्‍सा कांग्रेस को अच्‍छी सफलता मिली. कांग्रेस का गढ़ कहे जाने वाले विदर्भ की 10 सीटों में से सात पर एमवीए को कामयाबी मिली लेकिन विधानसभा चुनावों में पार्टी को कुल 16 ही सीटें मिलीं. राजनीतिक विश्‍लेषकों के मुताबिक बीजेपी जहां चुनाव अपने कार्यकर्ताओं, संगठन और आरएसएस के प्रबंधन पर लड़ती है वहीं कांग्रेस में इसका घोर अभाव दिखता है. हरियाणा और महाराष्‍ट्र दोनों ही जगहों पर बीजेपी के खिलाफ गुस्‍सा था लेकिन अपनी इस कमजोरी के कारण कांग्रेस उसका लाभ नहीं उठा सकी. वो नाराजगी उसके पक्ष में नहीं बदल सकी. उसका एक बड़ा कारण ये भी है कि कांग्रेस में आजकल रणनीतिकार, संगठन की तुलना में हावी हैं.


ये रणनीतिकार चुनावी स्‍ट्रैटेजी तो बना लेते हैं लेकिन टिकट कैसे-किस तरह बंटना चाहिए इन सब महत्‍वपूर्ण जगहों पर कांग्रेस की सांगठनिक ढांचे की कमजोरी उजागर हो जाती है. इसका असर ये होता है कि क्षेत्रीय क्षत्रप हावी हो जाते हैं और कई बार टिकट बांटने में गड़बड़ हो जाती है. हरियाणा में ये देखने को मिला. वहां चुनाव जाट बनाम गैर जाट मुद्दे पर कब शिफ्ट हो गया पता ही नहीं चला. संगठन में कमजोरी और क्षेत्रीय क्षत्रपों की आपसी खींचतान के कारण कांग्रेस माहौल नहीं बना सकी. 


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कुमारी सैलजा की नाराजगी की खबरें पूरे हरियाणा चुनाव के दौरान छाई रहीं. बीजेपी ने दलित कार्ड खेलते हुए इस मुद्दे को भुनाया लेकिन कांग्रेस इसका कोई जवाब नहीं दे सकी. विनेश फोगाट को पार्टी में लाने और भूपेंदर सिंह हुड्डा की कमान में चुनाव लड़ने से ये मैसेज गया कि कांग्रेस महज जाटों की पार्टी बनकर रह गई है. बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग, सीट दर सीट प्रत्‍याशी के चुनाव और मजबूत संगठन के दम पर एकदम हारे हुए लग रहे मैच को चमत्‍कारिक ढंग से पलट दिया. 


कांग्रेस की एक बड़ी कमी ये भी लग रही है कि जहां भी उसको जीतने की उम्‍मीद लगती है वहां अति-आत्‍मविश्‍वास के कारण वह फोकस लूज कर देती है. इससे पहले मध्‍य प्रदेश और छत्‍तीसगढ़ में भी यही देखने को मिला था. एमपी में कांग्रेस को ऐसा लगने लगा था कि कमलनाथ की वापसी होगी और छत्‍तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार रिपीट होगी. लिहाजा पूरी तरह से कमान इन नेताओं के हाथ में दे दी गई और संगठन की उपेक्षा हुई. नतीजा सबके सामने है. 


बीजेपी भी रणनीतिकारों पर भरोसा करती है लेकिन कभी भी वह उनको संगठन और पार्टी के हितों के ऊपर हावी नहीं होने देती. वह स्‍थानीय मुद्दों के आधार पर चुनाव लड़ती है. लोगों की नाराजगी को भांपते हुए जहां जरूरत पड़ती है वहां अपने कदम पीछे खींच लेती है. महाराष्‍ट्र में मराठा आरक्षण समेत कई मुद्दे थे लेकिन बीजेपी ने अपने हिंदुत्‍व कार्ड के साथ, लाडकी बहिन, किसानों के इर्द-गिर्द नैरेटिव को बुना और कामयाब रही.


वहीं इसके बरक्‍स कांग्रेस ने क्‍या किया? कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपने पार्टी के नेताओं से बलिदान देने की बात तो कहते रहे लेकिन एमवीए की तरफ से उद्धव ठाकरे को मुख्‍यमंत्री पद का चेहरा नहीं बनाया गया. इसके बजाय नाना पटोले जैसे नेता पहले से ही ये कहते रहे कि कांग्रेस के नेतृत्‍व में सरकार बनेगी. शरद पवार भी ये कहते रहे कि जिसकी सबसे ज्‍यादा सीटें होंगी उस पार्टी का ही सीएम होगा. 


इन सबको यदि तुलनात्‍मक रूप से देखा जाए तो आप पाएंगे कि एक तरफ जहां बीजेपी की तरफ से देवेंद्र फडणवीस, एकनाथ शिंदे और अजित पवार जैसे चेहरे थे वहीं इसके बजाय एमवीए की तरफ से कोई भी पूरे चुनाव को खींचने वाला चेहरा नहीं था. उद्धव ठाकरे के रूप में ये कमी पूरी हो सकती थी लेकिन सभी घटक दल विरोधीभास बयान देते रहे.


एक तरफ जहां बीजेपी लाडकी बहिन और एक हैं तो सेफ है जैसे नारों पर खेल गई वहीं एमवीए के पास सिर्फ वादे करने के अलावा कोई भी कहने के लिए ठोस बात नहीं थी. कांग्रेस जातिगत जनगणना, आरक्षण बचाओ, अंबानी-अडानी के नाम का शोर करती रही लेकिन उसके पास स्‍थानीय मुद्दों के नाम पर कुछ भी महाराष्‍ट्र के लिए नहीं था. लिहाजा उसको हार का सामना करना पड़ा. 


कांग्रेस को ये बात समझनी चाहिए थी कि उद्धव ठाकरे-शरद पवार-कांग्रेस के नेतृत्‍व वाली एमवीए में कोई वैचारिक साम्‍यता नहीं थी इसलिए कम से कम कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम और सीएम फेस को लेकर आना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उद्धव सेना अपना अलग घोषणापत्र पेश करते हुए पाई गई तो एमवीए अलग एजेंडा देते हुए दिखा. 


कश्‍मीर और झारखंड
कुछ समय पहले कश्‍मीर में जब चुनाव हुए तो वहां भी कांग्रेस 90 में से केवल छह सीट ही जीत पाई. उमर अब्‍दुल्‍ला के जूनियर पार्टनर के रूप में संतोष करना पड़ा. कांग्रेस वहां कोई कमाल नहीं दिखा पाई. जो भी फायदा मिला वो उमर अब्‍दुल्‍ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस को मिला. इसी तरह झारखंड के चुनावों में देखेंगे तो पाएंगे कि कांग्रेस अपने पिछले प्रदर्शन को ही दोहरा पाई. पिछली बार की तरह इस बार भी 16 सीटों पर ही जीत पाई. इसका कारण ये है कि इन दोनों ही राज्‍यों में कांग्रेस कोई भी स्‍थानीय नेतृत्‍व को लंबे समय से उभारने में अक्षम रही है. झारखंड में जहां बीजेपी ने दो आदिवासी सीएम दिए और झामुमो ने इस बार आदिवासी बनाम बाहरी मुद्दे को भुनाया वहीं कांग्रेस अभी भी अपने पुराने ढर्रे पर ही चल रही है. इन वजहों से ही कांग्रेस को राज्‍यों में दूसरे पार्टियों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ रहा है और उसमें खुद का दमखम नहीं दिख रहा है.