Woman Harassment Suicide case: एक महिला ने सुसाइड किया तो सास और ननद पर आरोप लगा कि उन्होंने दहेज और बच्चा न होने के कारण महिला को आत्महत्या के लिए उकसाया था. हालांकि हाई कोर्ट ने अब जो फैसला दिया है वो भविष्य में तमाम मामलों में नजीर बन सकता है.
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आपने खबरों में पढ़ा या सुना होगा कि सुसाइड के मामले में उकसाने का भी आरोप लगाया जाता है. हालांकि पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने साफ कहा है कि अभियुक्त के खिलाफ केवल उत्पीड़न का आरोप आईपीसी की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है.
यह फैसला देते हुए हाई कोर्ट ने मृतक महिला की सास को बरी कर दिया, जिसे आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराया गया था. आरोप लगाया गया था कि दहेज की चाहत और बच्चा न होने के कारण सास और ननद दोनों बहू को प्रताड़ित कर रही थीं. निचली अदालत ने सास को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत दोषी ठहराया था.
जस्टिस कीर्ति सिंह- चूंकि आत्महत्या का कारण (खासतौर से आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध के संदर्भ में) मानवीय व्यवहार के बहुआयामी और जटिल पहलुओं से जुड़ा होता है इसलिए कोर्ट को आत्महत्या के लिए उकसाने को लेकर ठोस सबूतों की तलाश करनी चाहिए. किसी दूसरे शख्स की तरफ से मृतक को परेशान करने का आरोप तब तक पर्याप्त नहीं है जब तक अभियुक्त की ओर से ऐसा कोई कृत्य न हो जिससे मृतक आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो.
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कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के दो मूल तत्व हैं. पहला, एक शख्स का आत्महत् करना और दूसरा, किसी दूसरे व्यक्ति/व्यक्तियों की ओर से उसके लिए उकसाना.
उकसाने का मामला कब बनता है?
कोर्ट- आईपीसी की धारा 306 के तहत आरोप सिद्ध करने के लिए यह अनिवार्य रूप से साबित होना चाहिए कि अभियुक्त ने मृतक के खिलाफ किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्य के जरिए आत्महत्या की साजिश रची हो, मदद की हो या उसे उकसाया हो. जज साहब ने आगे कहा कि इस तरह की मदद या संलिप्तता को साबित करने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 107 में लिखी शर्तों में से एक को पूरा करना होगा.
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष इस मामले में ऐसी किसी भी परिस्थिति को साबित करने में विफल रहा जिसे अपीलकर्ता ने पैदा की हो या जिसके कारण मृतक महिला ने अपनी जान दे दी.
जज- मृतक महिला के पिता के बयान में कई विसंगतियां और विरोधाभास थे. उन्होंने अपनी जिरह में इस बात से इनकार किया कि पुलिस के समक्ष दर्ज अपने बयान में उन्होंने यह नहीं कहा था कि उनकी बेटी अपने ससुराल में सामान्य और सौहार्दपूर्ण जीवन जी रही थी और वह बच्चा न होने के कारण अवसाद में थी.
कोर्ट- अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों को ठोस सबूत नहीं माना जा सकता और कोई पुष्ट करने वाला दूसरा सबूत नहीं है.
कोर्ट- यह प्रथम दृष्टया साबित नहीं होता कि अपीलकर्ता का मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने, सहायता करने या उकसाने का कोई इरादा था. नि:संदेह एक युवती ने दुर्भाग्यपूर्ण घटना में अपनी जान गंवाई है लेकिन यह दर्शाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य का अभाव है कि अपीलकर्ता ने अपने शब्दों या कार्यों से मृतक को ऐसी स्थिति में धकेलने का इरादा किया था जहां आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा. ऐसे में अपीलकर्ता के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही जारी रखना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा.