खुदीराम बोस को भारत माता क पांव में पड़ी बेरियां पसंद नहीं थी. इसी वजह से उन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर आजादी की जंग में कूदे गए थे खुदीराम बोसवे जलसे जुलूसों में शामिल होते थे.
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नई दिल्ली : 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा...
11 अगस्त 1908 का वो दिन जब जब महज़ 18 वर्ष की उम्र में एक क्रन्तिकारी हाथों में गीता लिए भारत 'माता की जय' के नारे के साथ फांसी पर झूल जाता है. वो उम्र जब आज के युवा अपने भविष्य को लेकर उत्सुक रहते हैं उस उम्र में क्रन्तिकारी खुदीराम बोस शहीद हो गए थे. शायद तभी हमे ये आज़ादी विरासत में मिली है.
3 दिसंबर, 1889 को बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में जन्मे खुदीराम बोस जब बहुत छोटे थे, तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया था. उनकी बड़ी बहन ने उन्हें पाला था. 1905 में बंगाल का विभाजन के बाद खुदीराम बोस देश की आजादी के लिए आंदोलन में कूद पड़े. सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में खुदीराम बोस का योगदान अतुलनीय है. खुदीराम बोस आज की युवा पीढ़ी के लिए एक रोल मॉडल की तरह हैं.
गोरों की गुलामी के खिलाफ थे बोस
आज़ादी के दीवाने खुदीराम बोस स्कूल ने छात्र जीवन में ही राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे थे. 9वीं कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी और जंग-ए-आजादी में कूद पड़े। बोस जुलूसों में शामिल होकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ जमकर नारे लगाते थे. खुदीराम बोस रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदे मातरम् पैम्पलेट बांटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर हुए बम विस्फोट की घटना में बोस भी शामिल थे. इसके बाद बोस को अंग्रेज अधिकारी किंग्सफोर्ड को मारने की जिम्मेदारी दी गई और इसमें प्रफ्फुल चंद्र चाकी ने उनका साथ दिया. बोस ने बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में एक दिन मौका देखकर किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया. दुर्भाग्य से उस बग्घी में किंग्सफोर्ड मौजूद नहीं था. बल्कि दूसरे अंग्रेज़ अधिकारी की पत्नी और बेटी थीं जिनकी इसमें मौत हो गई. इसके बाद अंग्रेज पुलिस हाथ धो कर उनके पीछे लग गयी. अंततः वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया गया.
मुजफ्फरपुर जेल में फांसी
पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल कुमार चाकी ने तो खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी लेकिन खुदीराम पकड़े गए. मुज़फ्फरपुर जेल में मजिस्ट्रेट ने उन्हें फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया. बताते हैं कि मजिस्ट्रेट ने बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फांसी के तख्ते की तरफ बढ़ रहे थे. महज़ 18 साल 8 महीने और 8 दिन की उम्र में बोस को 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई.उसके बाद नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर 'खुदीराम बोस' लिखा होता था.
एक बार विदाई दे मां ...
मुजफ्फरपुर के जिस कारावास में खुदीराम को फांसी दी गई उसे शहीद खुदीराम बोस कारावास का नाम दिया गया. सोमवार की शाम खुदीराम बोस जेल परिसर व भवन को कृत्रिम बल्बों से सजाया गया. आधी रात से जेल परिसर में ‘एक बार विदाई दे मां ...’ गूंजने लगा. शहीद खुदीराम बोस वार्ड को भी खूब सजाया गया. हालांकि,कोरोना की वजह से शहादत दिवस समारोह में शामिल होने के लिए किसी भी मेहमान को आमंत्रित नहीं किया गया था. यहां तक की आयुक्त, आईजी, डीएम व एसएसपी भी इसमें शामिल नहीं हुए. जेल प्रशासन ने साधारण तरीके से समारोह आयोजित किया और शहीद खुदीराम बोस की शहादत को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि दी.
दूसरी ओर मुजफ्फरपुर के कंपनीबाग स्थित शहीद खुदीराम बोस स्मारक स्थल को भी सजाया गया. खुदीराम के शहादत को अंतिम सलामी पुलिस की ओर से खुदीराम बोस स्मारक पर दी जाती है. इसी जगह सड़क पर खुदीराम बोस ने जज के बग्गी पर बम फेंका था.