Durga Puja Mithila Dashmi Gosauni: जनकपुर, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, समस्तीपुर, दरभंगा, सीतामढी और जनकपुर धाम जैसे इलाकों की गली में अगर नवरात्र और दशहरा के दौरान आप का चक्कर लग गया, तो स्थानीय बोली-भाषा में कुछ अनोखा सुनाई देगा. यहां लोग खासतौर पर महिलाएं ये कहते हुए दिख जाएंगी कि 'गोसाउनि बिठाउलीं हईं'.
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पटना: Durga Puja Mithila Dashmi Gosauni: बिहार राज्य के मिथिला क्षेत्र में जितनी दूर तक चलते चले जाएंगे परंपराओं के रंग और गहराई में खिलते नजर आएंगे. देश से लेकर प्रदेश भर में नवरात्र और दशहरा का तरीका लगभग एक जैसा है.
नौ दिन तक मां दुर्गा की पूजा, शस्त्र पूजन, रामलीलाओं के मंचन, दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापना, दशमी को रावण दहन और प्रतिमा विसर्जन या माता की विदाई. लेकिन मिथिला में शारदीय नवरात्र की यह परंपराएं अपना अलग ही रुख अख्तियार कर लेती हैं.
मां दुर्गा की इस रूप में पूजा
जनकपुर, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, समस्तीपुर, दरभंगा, सीतामढी और जनकपुर धाम जैसे इलाकों की गली में अगर नवरात्र और दशहरा के दौरान आप का चक्कर लग गया, तो स्थानीय बोली-भाषा में कुछ अनोखा सुनाई देगा. यहां लोग खासतौर पर महिलाएं ये कहते हुए दिख जाएंगी कि 'गोसाउनि बिठाउलीं हईं'. इसके अलावा टूटे-फूटे सुरों में और मैथिली बोली में कुछ ऐसे गीत सुनने को मिल जाएंगे जिनमें देवी आराधना का जिक्र होगा.
जरूरी नहीं कि इनमें मां दुर्गा के शक्ति स्वरूप का वर्णन हो ही, बल्कि इन गीतों में जिस देवी की बात की जाती है वह जनकदुलारी सीता जी हैं. मिथिला के लोग उन्हें ही शक्ति स्वरूपा मानकर पूजते हैं. उनकी पूजा घर की बड़ी बेटी की तरह होती है और गोसाउनि या गुसाइन कहकर उन्हें ही पुकारा जाता है. दशमी के दिन जब गोसाउनि विदा होती हैं तो मिथिला के लोग भरी-भीगी पलकों के साथ उन्हें विदाई देते हैं.
मैथिली भाषा के एक प्रसिद्ध कवि और लोकगीतकार रहे हैं बाबा विद्यापति. उन्होंने गोसाउनि परंपरा पर अपनी कलम खूब चलाई है. उनके लिखे मैथिली गोसाउनि गीत आज भी लोगों के बीच प्रचलित हैं. उन्होंने देखिए कैसे देवी की वंदना की है.
जय जय भैरवि असुर भयाउनि,
पशुपति भामिनि माया.
सहज सुमति वर दिय हे गोसाउनि,
अनुगति गति तुअ पाया.
वासर रैनि सवासन शोभित
चरण चन्द्रमणि चूडा.
कतओक दैत्य मारि मुँह मेललि
कतओ उगिलि करु कुड़ा.
शाक्त परंपरा का केंद्र रहा है बिहार
दरअसल, सीता जी को देवी शक्ति मानने के कई आधार हैं. देवी भागवत पुराण के मुताबिक संसार की जो पराशक्ति हैं वह त्रिशक्ति यानी महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली हैं. इनमें देवी लक्ष्मी के ही विस्तृत स्वरूप, दुर्गा, पार्वती, सती, वैष्णवी व अन्य हैं. इन सभी की सम्मिलित शक्ति ललिता देवी हैं.
देवी लक्ष्मी ने मिथिला में ही सीता के रूप में जन्म लिया था, इसलिए शाक्त परंपरा के अनुसार उन्हें देवी शक्ति भी माना जाता है. एक समय में बिहार शाक्त परंपराओं को मानने वाले लोगों और उसके अनुयायियों का केंद्र रहा है, जिसकी पूरी झलक 'गोसाउनि पूजा' में मिलती है.
गोसाउनि की पूजा हर घर की परंपरा
मिथिला में शक्ति के रूप में नारी की पूजा की परंपरा त्रेता के बहुत पहले अनादिकाल से है. इसके उदाहरण शास्त्र-पुराणों में भरे पड़े हैं. शक्ति के रूप में नारी की पूजा की परंपरा मिथिला में आज भी कायम है. पंचोदेवोपसना की भूमि मिथिला में शक्ति की पूजा की परंपरा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदुओं के हर घर में शक्ति की पूजा प्रतिदिन गोसाउनि के रूप में होती है.
हर हिन्दू परिवार में कुलदेवी के रूप में शक्तिरूपा भगवती स्थापित हैं. इन्हें गोसाउनि कहते हैं. घरों के जिस कमरे में कलश रूप में गोसाउनि स्थापित हैं, उसे गोसाउनि-घर कहा जाता है. गोसाउनि की पूजा प्रतिदिन शाम-सबेरे होती है. किसी भी शुभ कार्य के पहले गोसाउनि की पूजा का विधान है. गोसाउनि की पूजा के पहले महिलाएं गोसाउनि के गीत गातीं हैं. परिवार का कोई भी सदस्य घर से बाहर जाए या घर में प्रवेश करे, तो पहले वह गोसाउनि को प्रणाम करता है.
अलग है नवरात्र पूजन का विधान
मिथिला में नवरात्र-पूजन का अपना अलग विधान है. अपनी अलग परंपरा है. यह विधान और परंपरा बंगाल के विधान और परंपरा से पूरी तरह भिन्न है. इस मायने में कि, मिथिलांचल के प्रत्येक हिन्दू परिवार में प्रथम पूजा के दिन ही गोसाउनि-घर में पवित्र शक्तिकलश की स्थापना वैदिक तरीके से वेद मंत्रों के साथ होती है. पवित्र शक्तिकलश स्थापन का मुहूर्त मिथिला पञ्चाङ्ग के आधार पर तय होता है.
भरा जाता है माता को खोइंचा, दशहरा को गोसाउनि की विदाई
दशमी के दिन मां जब विदा होती हैं तो पूरा मिथिला रो पड़ता है. मिथिला की एक और परंपरा खास परंपरा है. जब बेटी घर से विदा होती है, तो उसे खोइंचा दिया जाता है. घर की बड़ी-बूढ़ी खोइंचा भरती हैं और बेटी के आंचल में ढेर सारी दुआएं डाल देती हैं. खोइंचा में धान (अन्न), दूब और द्रव्य (धन) दिया जाता है. साड़ी, चूड़ी और शृंगार सामग्री भी दी जाती है.
इसी परंपरा के तहत शारदीय नवरात्र की पूर्णाहूति के बाद जब देवी विदा होती हैं, तो महिलाएं उनका खोइंचा भरती हैं. इस दौरान उनकी आंखों में आंसू होते हैं. वह एक तरह से बिटिया को विदा कर रही होती हैं.
इन आंसुओं में एक ओर खुशी होती है कि बेटी इतने दिन सुख से रही, एक गम होता है कि बेटी को जाना ही पड़ता है और एक मिलाजुला भाव होता है, कि बिटिया अगले बरष जब बरखा होकर रुक जाए तो तुम फिर आ जाना. अंगना में छींटा हारसिंगार तुम्हारी राह देखेगा.