अब बिना देरी किए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 6 जून को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मिलने उनके आवास 'मातोश्री' जा रहे हैं.
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हालिया दौर के उपचुनावों में बीजेपी की करारी शिकस्त के बाद विपक्षी एकता को तो बल मिला ही है लेकिन इसका पॉजिटिव साइड इफेक्ट केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ एनडीए कैंप में भी देखने को मिलने लगा है. दरअसल सत्ता में आने के बाद पिछले चार सालों में बीजेपी के कई सहयोगी दलों ने दबे सुर में अपनी 'उपेक्षा' की बात कही. लेकिन राज्य दर राज्य बीजेपी के चुनावी रथ को मिलती कामयाबी के कारण ये चुप रहने के लिए मजबूर हुए.
अमित शाह और उद्धव ठाकरे की मुलाकात
इन सहयोगियों में पहला मुखर विरोध शिवसेना ने यह कहते हुए किया कि वह अगली बार बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ेगी. नतीजतन हाल में महाराष्ट्र के पालघर और भंडारा-गोंदिया लोकसभा उपचुनाव में दोनों दल एक-दूसरे के खिलाफ लड़े. इनमें बीजेपी, पालघर में जीती लेकिन भंडारा में हारी. पालघर में शिवसेना दूसरे स्थान पर रही. भंडारा में विपक्षी एकता के कारण बीजेपी हार गई. यानी साफतौर पर बीजेपी के लिए संकेत निकले कि यदि शिवसेना-बीजेपी 2019 में अलग-अलग लड़े एवं कांग्रेस-राकांपा साथ-साथ लड़े तो बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि यूपी के बाद लोकसभा सीटों के लिहाज से महाराष्ट्र में सर्वाधिक 48 सीटें हैं.
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नतीजतन अब बिना देरी किए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 6 जून को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मिलने उनके आवास 'मातोश्री' जा रहे हैं. क्या सहयोगियों की उपेक्षा की बात कहने वाली नाराज शिवसेना को अमित शाह मना पाएंगे? यह आने वाले दिनों में पता चलेगा.
नीतीश कुमार के बदलते तेवर
इसी कड़ी में बिहार से भी बीजेपी के सहयोगी अलग सुर अख्तियार करते दिख रहे हैं. नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने साफतौर पर कह दिया कि बिहार में एनडीए के नेता नीतीश कुमार होंगे. जदयू ने तो बाकायदा राज्य की 40 में 25 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा करते हुए 15 सीटें बीजेपी के लिए छोड़ दी. वह 2009 लोकसभा चुनाव के गठबंधन फॉर्मूले के आधार पर बिहार में 'बड़े भाई' की भूमिका में दिखना चाहती है, जबकि पार्टी को 2014 में केवल दो सीटें मिलीं. उधर बीजेपी ने अकेले दम पर 22 सीटें जीतीं और लोजपा की छह और रालोसपा की तीन सीटों के साथ एनडीए का आंकड़ा 31 पहुंचा. अब हाल में 14 लोकसभा और विधानसभा सीटों के उपचुनावों में बीजेपी की हार के बाद नीतीश कुमार ने नोटबंदी को परोक्ष रूप से विफल प्रयास बताया.
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हालांकि 2016 में जब नोटबंदी को लागू किया गया तो इसका समर्थन करने वाले नीतीश कुमार पहले मुख्यमंत्री थे. हालांकि उस दौरान वह विपक्ष के साथ थे. उसके बाद से फिर से नीतीश कुमार ने बिहार को विशेष राज्य के दर्जे की मांग को जीवित कर दिया है. सात जून को बिहार में एनडीए घटक दलों की बैठक से पहले एकतरफा तरीके से 25 सीटों से चुनाव लड़ने की घोषणा ये बताती है कि अब बीजेपी के जूनियर पार्टनर सीट-शेयरिंग सौदेबाजी में बराबरी की मांग करने लगे हैं.
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रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा
इसी तरह लोजपा नेता रामविलास पासवान ने पिछले दिनों अमित शाह से मुलाकात कर अपनी चिंताओं को जाहिर किया है. इसी तर्ज पर रालोसपा नेता उपेंद्र कुशवाहा ने पिछले दिनों कहा कि बीजेपी को एनडीए को पार्टी हितों से ऊपर रखना चाहिए. कुल मिलाकर बिहार में बीजेपी के ये सभी सहयोगी 2019 के चुनावों में सीट-शेयरिंग के मामले में बदलती सियासी परिस्थितियों में बीजेपी के साथ तगड़ी सियासी सौदेबाजी के मूड में दिखते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि बिहार में राजद-कांग्रेस का गठबंधन पहले की तुलना में उपचुनावों में मिली सफलता के बाद मजबूत हुआ है और इस कारण यदि एनडीए में बिहार के किसी सहयोगी को अपेक्षित चुनावी सीटें नहीं मिलीं तो वह दूसरे खेमे का हाथ भी थाम सकता है. ये बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल का सबब हो सकता है.
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चंद्रबाबू नायडू
सिर्फ इतना ही नहीं कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी का सत्ता से बाहर रह जाना और जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की 2019 में एक साथ चुनाव लड़ने की घोषणा ने भी बीजेपी को खासा परेशान कर दिया है. इस कारण यह है कि पिछली बार राज्य की 28 सीटों में से बीजेपी को अकेले दम पर 17 सीटें मिली थीं. इस बार यह गठबंधन बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती साबित होने वाला है. इसी तरह आंध्र प्रदेश से चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देसम पार्टी (टीडीपी) का एनडीए से बाहर जाना बीजेपी के लिए शुभ संकेत नहीं हैं.