Bihar Political Crisis: कुछ चीजें नियति में तय होती हैं. कुछ बातें मुकद्दर में लिखी होती हैं. उसमें हम और आप कुछ भी नहीं कर सकते. कहने और सुनने का कोई फायदा भी नहीं, क्योंकि होइहें वहीं जो राम रचि राखा. बिहार भाजपा की नियति कुछ ऐसी ही है. उसके मुकद्दर में लगता है मुख्यमंत्री पद है ही नहीं. जब सीटें कम थीं तब तो मुख्यमंत्री पद कम होने का सवाल ही नहीं था पर अब जबकि जेडीयू की तुलना में करीब दोगुनी सीटें हैं, तब भी उसके हिस्से में डिप्टी सीएम का पद ही आ रहा है. अंतर बस इतना ही है कि जब सीटें कम थीं तब आडवाणी के फैसले होते थे और जब नंबर ज्यादा हैं तब नरेंद्र मोदी के फैसले हावी हैं. 


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कहते हैं, किसी को भी समय से पहले और भाग्य से ज्यादा कुछ भी हासिल नहीं होता. बिहार भाजपा के साथ भी यही है. 2020 में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और गठबंधन में नंबर वन बनकर उभरी पर ताज सजा नीतीश कुमार के सिर. आज जब नीतीश कुमार जब केवल अपनी पार्टी बचाने के लिए एनडीए का हिस्सा बन रहे हैं तब भी ताज किसके सिर सजेगा- नीतीश कुमार के सिर. नियति ने शायद बिहार भाजपा के हिस्से में शायद कुर्बानी ही लिखी है. केवल डिप्टी सीएम का पद और विरोधी दल का नेता ही भाजपा के हिस्से में आएगा, यही उपरवाले की मर्जी है. इसमें कोई क्या कर सकता है. 


2005 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 102 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसके केवल 55 सीटें मिली थीं. वहीं जनता दल यूनाइटेड 139 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसे 88 सीटें हासिल हुई थीं. उस समय गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार को प्रोजेक्ट किया गया था तो स्वाभाविक तौर पर मुख्यमंत्री पद की शपथ नीतीश कुमार ने ली. 


2010 के विधानसभा चुनाव में बिहार भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 91 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी. जनता दल यूनाइटेड ने 141 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे और उसे 115 सीटें हासिल हुई थीं. स्वाभाविक तौर पर उस समय भी नीतीश कुमार एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री बनाए गए थे. 


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2015 में सीन अलग था. नीतीश कुमार एनडीए से नाता तोड़कर राजद के साथ जा चुके थे और वे मुख्यमंत्री पद के लिए महागठबंधन के साझा उम्मीदवार थे. तब जेडीयू को 71, राजद को 80, भाजपा को 53 और कांग्रेस को 27 सीटें हासिल हुई थीं. सरकार के 2 साल भी नहीं हुए थे कि नीतीश कुमार ने महागठबंधन को झटका दे दिया और एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री बन बैठे. भाजपा ने तब भी नीतीश कुमार को पूरा सहयोग दिया और डिप्टी सीएम पद से संतोष किया. 


2020 के विधानसभा चुनाव में राजद सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर सामने आया. उसे तब 75 सीटें हासिल हुई थीं. भाजपा एक सीट पीछे रह गई थी और उसके 74 सीटों से संतोष करना पड़ा था. जनता दल यूनाइटेड को 43 सीटें मिली थीं. वामदलों को 16 तो एआईएमआईएम के 5 विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. जेडीयू से भाजपा लगभग दोगुनी सीटों से आगे थी, लेकिन चूंकि गठबंधन के मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में नीतीश कुमार के नाम पर चुनाव लड़ा गया था तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनाए गए. ठीक दो साल बाद नीतीश कुमार ने पलटी मारी और वे महागठबंधन के मुख्यमंत्री बनकर बैठ गए. तब से वे ही मुख्यमंत्री हैं. 


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अब जबकि नीतीश कुमार एक बार फिर पलटी मारकर एनडीए के कैंप में आ रहे हैं तो भाजपा एक बार फिर नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने जा रही है. जबकि आज भी भाजपा की सीटें नीतीश कुमार की तुलना में बहुत अधिक है. क्योंकि लोकसभा चुनाव सिर पर है और भाजपा इस समय कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं दिख रही है. भाजपा नहीं चाहती कि थोड़ी सी चूक उसे दिल्ली की गद्दी से दूर कर दे. इसी को भाग्य कहते हैं. बिहार भाजपा का यही भाग्य है. यही नियति है. कबूलना तो होगा ही.