सवर्ण आरक्षण पर बिहार में सियासत गरम हैं. वहीं अब जातीय जनगणना को सार्वजनिक करने की मांग उठने लगी है.
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शैलेंद्र/पटनाः विकास की राजनीति के बीच शुरू हुई आरक्षण पॉलिटिक्स को लेकर राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का दौर भी शुरू हो गया है. राजद ने आरक्षण के जरिये केंद्र सरकार पर बरगलाने का आरोप लगाया है, तो सत्ताधारी दलों का कहना है कि ये सबका साथ, सबका विकास की राजनीति है. हम विकास के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ेंगे.
यह सवाल इसलिए उठ खड़ा हुआ है, क्योंकि जिस तरह से विकास की राजनीति पर चुनाव लड़ने की बात हो रही थी. उसके बीच अचानक गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण के फैसले ने पूरे परिदृश्य को ही बदल दिया है. अब आरक्षण को लेकर नयी तरह से मांग शुरू हो गई है. जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी का नारा फिर से बुलंद होने लगा है.
वहीं, जातीय जनगणना को फिर से सार्वजनिक किये जाने की मांग बुलंद होने लगी है. राजनीतिक दल अब इस बात पर गुणा गणित लगाने में जुड़े हैं कि 2019 से पहले कैसे आरक्षण की नाव पर सवार होकर जीत का समीकरण सेट किया जाये. विपक्षी राजद का कहना है कि भागीदारी के हिसाब से आरक्षण दिया जाना चाहिए.
राजद ये कह कर केंद्र सरकार पर भी निशाना साध रहा है कि 2014 में जो वादे किए थे वह तो जुमला साबित हो रहा है. कहीं, सवर्ण आरक्षण पर भी आगे ऐसा नहीं हो, लेकिन सरकार में शामिल जदयू और भाजपा के नेताओं का कहना है कि हमने विकास की इतनी लंबी लाइन खींची है, जिसके सामने और मुद्दे गौण हो जायेंगे. फिर आरक्षण भी तो सबका साथ, सबका विकास में आता है.
विकास के नारे के बीच मंडल-कमंडल की पॉलिटिक्स ने जिस तरह से इंट्री की है, उससे साफ है कि ये मुद्दा आनेवाले दिनों में और गरमाता जायेगा. चुनावी समीकरणों के देखते हुये लोकसभा और राज्यसभा में विरोधी दल भले ही सवर्ण आरक्षण बिल का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन पिछड़ों को संख्या के आधार पर आरक्षण देने की मांग भी अब तेजी से बुलंद होगी. ऐसे में साफ है कि राजनीतिक दल भले ही कुछ कहें, लेकिन 2019 के चुनाव की धुरी में आरक्षण ही मुख्य मुद्दा रहेगा.