डियर जिंदगी : बच्चे स्कूल में ही फेल होते हैं...
आर के लक्ष्मण याद हैं न आपको. आज वर्ल्ड कार्टूनिस्ट डे है. इस नाते उनकी याद आनी स्वाभाविक है. लेकिन 'डियर जिंदगी' में उनको याद करने की वजह यह नहीं है. वह हमें इसलिए, याद आ रहे हैं, क्योंकि हमारे स्कूल और कॉलेज बरसों से प्रतिभा को पहचानने और उसे सहेजने, संभालने में असफल रहे हैं. लक्ष्मण सर की कहानी भी इससे अलग नहीं है.
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लक्ष्मण साहब के कार्टून हमारी जिंदगी के सुख-दुख सहने के साथ हमें एक किस्म की ताकत देने का काम भी करते रहे हैं. दशकों तक सुबह की चाय और उनके कार्टून पर्यायवाची रहे. ऐसे लक्ष्मण को भारत में कला के सबसे बड़े केंद्र मुंबई के सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट ने उनके काम को स्तरीय न बताते हुए प्रवेश देने से इंकार कर दिया था.
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भारत सहित दुनियाभर में लगभग हर क्षेत्र से ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जहां रिजेक्ट हुए छात्र आगे चलकर उस क्षेत्र में अपने समय के सबसे बड़े हस्ताक्षर बने. क्या इसकी एक वजह शिक्षकों का अब तक बने बनाए खांचे में सोचने का तरीका है. पिछले दिनों हिंदी साहित्य, आलोचना के सुपरिचित नाम डॉ. विजय बहादुर सिंह के एक लेखक, चिंतक शिष्य से मुलाकात हुई.
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उन्होंने शिक्षा पर बात करते हुए यह बेहद प्रेरणादायक किस्सा बताया. आप भी पढ़िए. एक बार डॉ. सिंह ने कॉलेज की एक निबंध प्रतियोगिता में उनके निबंध को सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार दिया. लेकिन नंबर उन्हें कम मिले. कम नंबर के बाद भी उनका निबंध सर्वश्रेष्ठ चुना गया.
डॉ. सिंह ने जो कहा उसे स्कूल, कॉलेजों की हर क्लास में चस्पा कर देना चाहिए 'जिस छात्र को सबसे अधिक नंबर मिले हैं, उसने उस शैली का पालन किया जो पढ़ाई और समझाई गई थी. जबकि मेरी नजर में सर्वश्रेष्ठ वह है, जिसकी लेखन, भाषा की नवीन दृष्टि और शैली है. इसने वह सब लिखा जो मैंने पढ़ाया ही नहीं. उसमें वह है, जिसे भाषा, समय खोज रहे हैं.
ऐसे प्रसंग दुर्लभ से हैं, हमें छात्रों को चुनने की जो कहानियां मिलती हैं. उनमें नवाचार की कमी और लीक पर चलने की आदत है. शिक्षकों का यह नजरिया एक मायने में अपने समय से अन्याय है. यह बेहतर छात्र, मनुष्य के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है. हमारे नायकों में से अधिकांश की खोज स्कूलों ने नहीं की है. वह अपने संकल्प, उन जीवन मूल्यों से आगे बढ़े जो उन्होंने अपनी दृष्टि और जीवन से हासिल किए. स्कूलों की भूमिका बहुत बड़ी है, लेकिन स्कूलों की नियामक संस्था की विफलता और समाज के लापरवाह रवैए ने उन्हें बेहद छोटा बना दिया है.
स्कूल रटे हुए को कॉपी में लिखने की कला बताने वाली वर्कशॉप में बदल गए हैं. जब तक हम स्कूलों के रोबेट तैयार करने वाले कल्चर को नहीं बदलेंगे, हमारे बच्चे आपसी प्रतिस्पर्धा, नकल और रटंतू तोते जैसी आदतों से बाहर नहीं आ सकते. और जब बच्चों को तैयार करने वाली संस्थाएं इतनी लापरवाह होंगी तो वहां से निकलने वाले बच्चों के साथ हमारा समाज कैसा होगा.
जब तक स्कूल नहीं बदलेंगे, उनके दरवाजे से लाखों लक्ष्मण ऐसे ही बैरंग लौट जाएंगे...
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)