डियर जिंदगी : आपके होने से फर्क पड़ता है...
मरीना बीच, चेन्नई जो गए हैं और जो नहीं भी गए हैं, वो समंदर के इस खूबसूरत दरवाजे के बारे में बखूबी जानते हैं. जो नहीं ही जानते हैं, वह गूगल बाबा से अभी पता कर सकते हैं. कुछ वक्त पहले एक दिन मैंने वहां कुछ ऐसा देखा, जो जिंदगी के बारे में बेहद आशा, कोमलता और प्रेम से भरपूर नजारा था. शाम होने को थी और मैं तट पर यूं ही टहल रहा था. मैंने देखा कि थोड़ी दूरी पर एक लड़का जल्दी-जल्दी नीचे झुकता और कुछ उठाकर उसे समंदर में फेंक देता. पास पहुंचकर देखा कि वह मछलियों को उठाकर समंदर में फेंक रहा है.
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मैंने पूछा, आप बहुत देर से इस काम में जुटे हैं. जरा मुझे भी समझाइए यह आप क्या कर रहे हैं. उसने कहा, आप यहां के जैसे दिखते हैं, लेकिन हैं नहीं. मेरे हां कहते ही उसने कहा, तभी... आप इसे नहीं समझ पा रहे हैं. दरअसल समंदर का पानी अचानक उतरने के कारण ये मछलियां किनारे की रेत में फंस जाती हैं. अगर मैं इन्हें वापस नहीं फेंकूंगा तो यह मर जाएंगी. मैंने कहा, लेकिन यहां तो काफी मछलियां हैं... आप सभी को तो नहीं बचा सकते हैं. आपके अकेले से कितना फर्क पड़ेगा... उसने मुस्कुराते हुए, एक मछली को उठाया और समंदर में फेंकते हुए कहा... इसे तो फर्क पड़ेगा. मैं जिसे बचा सकता हूं उसे तो फर्क पड़ा ना. मैं जो कर सकता हूं, वही कर रहा हूं. और वह वापस अपने काम में जुट गया.
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इससे क्या फर्क पड़ेगा? यह पूरी तरह निगेटिव एनर्जी से भरा वाक्य है. अगर आप एक व्यक्ति की भी मदद कर सकें, तो आप अपनी भूमिका निभा रहे हैं. हमारी पृथ्वी पूरे ब्रह्मांड में मेरी मां की बिंदी बराबर ही तो है. न जाने कितनी ऐसी पृथ्वी और हैं, जिन्हें खोजा जाना बाकी है और हम हैं कि खुद की भूमिका को हमेशा कथित बड़े लक्ष्यों से जोड़े रहते हैं. हम जो आज कर सकते हैं, करना चाहिए. एक व्यक्ति की मदद जितनी कर सकें उतनी करिए. जरा सोचिए अगर हमारे बीच का हर तीसरा आदमी यही करने लगे तो दुनिया की न सही, आपकी गली, मोहल्ले और कॉलोनी की तस्वीर तो बदली ही जा सकती है.
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इन दिनों हमारे आसपास जिस तेजी से डिप्रेशन और आत्महत्या का खतरा बढ़ा है, उसके मूल में सबसे अहम तत्व यही है... मैं क्या कर सकता हूं... इससे क्या होगा? यह जीवन और ब्रह्मांड के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भागना है और कुछ नहीं. आप रास्ते में किसी घायल की मदद इसलिए नहीं करते कि समय नहीं है बल्कि यह सोचकर टाल देते हैं कि कोई और कर देगा. उससे आपका क्या नाता है. आप भूल जाते हैं कि किसी दूसरे शहर में आपके भाई, दोस्त, रिश्तेदार के मुश्किल में होने पर यही विचार वहां से गुजरने वाले किसी दूसरे के मन में भी आ सकता है. उस वक्त इसकी क्या कीमत आपके परिवार को चुकानी पड़ सकती है, इसका ख्याल आपको बेचैन करने के लिए पर्याप्त है. हमें इसी बेचैनी को स्थाई बनाने की जरूरत है, दूसरों की मदद, अपरिचित की सहायता... एक अच्छा संक्रामक विचार है... इसे फैलाइए.
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दूसरों के अच्छे प्रयास की दिल खोलकर तारीफ करें. हमेशा सुपरिचितों से ही न मिले, उनकी मदद को तैयार न रहें... अपने दिल और दिमाग के रास्ते नए और अपरिचितों के लिए खोलें. बस इतने से ही आपको अपने होने का सबब मिल जाएगा.
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)