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हमारी छवि एक ऐसे देश की है, जिसने अहिंसा को धर्म का दर्जा दिया. हम इसका जिक्र भी गर्व से करते हैं कि हम अहिंसक, शांतिप्रिय समाज हैं. हम बहुसंख्यक तौर पर शांतिप्रिय हैं भी लेकिन हाल ही कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं, जो हमें चिंतित करने के लिए पर्याप्त हैं. यह घटनाएं न केवल हमारे सामाजिक सोच-समझ पर सवाल खड़े कर रही हैं, बल्कि हमारे भीतर उभरती हिंसा को रेखांकित कर रही हैं. झारखंड में लोगों का समूह गिनती के लोगों के बच्चे चोर होने के संदेह भर में हत्या कर देता है. इस हत्या के सैकड़ों गवाह रहे, साक्षी रहे. किसी के मन में इनके लिए चिंता नहीं उमड़ी. यह दिल्ली से बहुत दूर की खबर है. मोटे तौर पर ग्रामीण समाज से आई खबर है. उस ग्रामीण समाज से जहां हम अभी भी मानवीय सरोकार के गहराई से होने की उम्मीद किए बैठे हैं.
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दूसरी खबर ठीक दिल्ली से सटे गुरुग्राम की है. एक महिला से गैंगरेप और उसकी बेटी की जिस हैवानियत से हत्या की गई. उसके बारे में सोचते हुए मन कांप जाता है. जब से यह घटना सामने आई, हम दोषियों की निंदा कर रहे हैं, उन्हें सजा देने की बात कर रहे हैं. दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए. इसके लिए इसे रेयरेस्ट केस की श्रेणी में डालने के लिए जो भी किया जा सकता है, करना चाहिए. लेकिन यह इस घटना का केवल एक पक्ष है. दूसरा पक्ष इससे कहीं अधिक भयावह है.. वह है... अपराधों का निरंतर क्रूरता की नई सीमाएं पार करते जाना. मनुष्य का क्रूर से क्रूरतम की ओर बढ़ना बेहद डरावना है. इसके खतरे में आज नहीं तो कल कहीं भी कोई भी आ सकता है.
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एक समाज के रूप में हमारे सामने हिंसा और बिना झिझक के किसी की भी हत्या का विचार सबसे बड़ी चुनौती है. भीड़ तंत्र की ओर समाज का बढ़ता रुझान हममें से हर किसी को कभी भी अपनी गिरफ्त में ले सकता है. हम कभी भी इसकी चपेट में आ सकते हैं. लोग अकेले में अच्छा आचरण करते हैं, लेकिन जैसे ही वह समुदाय/भीड़ में आते हैं, उनके भीतर अपने से असहमत हर व्यक्ति के लिए क्रूरता घर कर लेती है. भीड़ का न तो अनुशासन होता है और न ही उसे शासन का भय होता है. क्योंकि उसमें से हर किसी को यह पता होता है कि वह एक सामूहिक आचरण का हिस्सा है. इसलिए उसके खिलाफ कार्रवाई का होना बेहद मुश्किल है.
कुछ दशक पहले तक इस तरह के मामले अपवादस्वरूप हमारे सामने आते थे, लेकिन अब इस तरह की घटनाएं नियमित अंतराल पर देश के विभिन्न हिस्सों से आ रही हैं. यह अकेले पुलिस, सरकार का मसला नहीं है, यह विशुद्ध रूप से एक सामाजिक समस्या है. इसलिए समाज को अपने भीतर झांकने की जरूरत है. सरकार का काम समाज के बाद शुरू होगा.
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समाज के हिंसा के उभार के बड़े कारणों में से एक है, हिंसा को समाधान के एक टूल (उपकरण) के रूप में मान्यता दे देना. समाज में यह मान्यता खतरनाक रूप से स्वीकार होती जा रही है कि किसी भी आंदोलन पर मीडिया, सरकार का ध्यान तभी जाता है, जब वह हिंसक स्वरूप धारणा कर लेता है. जब वह सार्वजनिक और निजी संपत्तियों का ध्वंस करने पर आमादा हो जाए, उन्हें नुकसान पहुंचाए. तभी उसकी मांगों पर विचार संभव है.
यह एक धारणा है. दुखद धारणा, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से इस धारणा को समाज में लोकप्रियता मिल रही है. इसलिए यह भारतीय समाज के लिए इस समय सबसे बड़ी चुनौती है. जब एक बार हिंसा की प्रवृत्ति हमारी चेतना में घर कर लेती है, तो वह मनुष्य को समाज, कानून की मर्यादा के पालन से दूर कर देती है. वह उचित, अनुचित के बंधन को तोड़ मनमानी करने पर उतर आता है. क्योंकि उसे किसी का भय नहीं होता.
समाज के हिंसा की ओर आकर्षित होने, निरंतर हिंसक होने के कारण एक बच्चे की पिटाई से लेकर नैतिक शिक्षा की कमी, एक दूसरे के लिए प्रेम का अभाव, असमानता और सरकारों की लापरवाही तक सब बराबर जिम्मेदार हैं. हमें उस पर ध्यान देना चाहिए जो हम तुरंत कर सकते हैं. खुद को हिंसक होने से बचाने, दूसरों को इस ओर से जाने से रोकने के लिए. धैर्य, दूसरों की बात सुनना और प्रतिक्रया देने में विनम्रता, दूसरे का ख्याल. सबसे पहले उठाए जाने वाले कदम होने चाहिए.
हिंसक प्रवृत्ति एक रोज में पनपने वाली चीज नहीं है, इसका विकास धीरे-धीरे हमारे भीतर सामाजिक शिक्षा की कमी, प्रेम की न्यूनता, अफवाहों पर भरोसा करने की आदत और बॉलीवुड की कचरा फिल्मों ने किया है. जिसमें कभी हर दूसरी फिल्म के नायक को अपने परिवार का बदला लेने के लिए हत्याएं करनी होती थीं. हम इन्हें देखते हुए ही बड़े हुए हैं, यह फिल्में सिनेमाघरों से भले तुरंत जाती हैं, लेकिन उनका अवचेतन पर गहरा असर होता है. हम इस असर के साथ ही बड़े होते हैं. सोशल मीडिया के जरिए सबसे बड़ा काम अफवाह फैलाने का होता है. चूंकि हमारे पास सही सूचनाओं तक पहुंचने का धैर्य नहीं है, इसलिए समाज आए दिन इनके भ्रम का शिकार हो रहा है. यह भी हिंसा के छुपे हुए कारणों में से एक है.
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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