रमज़ान में ज़कात के फर्जीवाड़े से बचने की सलाह क्यों दे रहे है इस्लामिक विद्धान?
जैसे ही रमज़ान के महीने की शुरुआत होती है तो गरीब, यतीम या मदरसों के नाम पर ज़कात मांगने वाले लोगों की संख्या भी एक दम बढ़ जाती है.
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नई दिल्ली: नमाज़, रोज़ा और हज की तरह ही इस्लाम में ज़कात देना भी फर्ज (जरूरी) है. यूं तो ज़कात कभी भी दी जा सकती है, लेकिन मुसलमान ज्यादातर रमज़ान के महीने में इस फ़र्ज़ को अदा करना मुनासिब समझते है. ज़कात खासकर गरीबों, विधवा महिलाओं, अनाथ बच्चों या किसी बीमार व कमजोर व्यक्ति को दी जाती है.
क्या होती है ज़कात ?
अपनी आमदनी से पूरे साल में जो बचत होती है, उसका 2.5 फीसदी हिस्सा किसी गरीब या जरूरतमंद को दिया जाता है, जिसे जकात कहते हैं. अगर किसी मुसलमान के पास तमाम खर्च करने के बाद 100 रुपये बचते हैं तो उसमें से 2.5 रुपये किसी गरीब को देना जरूरी होता है.
मौजूदा दौर की मुश्किल ये है कि जैसे ही रमज़ान के महीने की शुरुआत होती है तो गरीब, यतीम या मदरसों के नाम पर ज़कात मांगने वाले लोगों की संख्या भी एक दम बढ़ जाती है. ऐसे में इस्लामिक जानकार मान रहे है कि बगैर किसी को जाने या उसकी तस्दीक किए ज़कात दी जाएगी तो वो सही नहीं, क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ी है जो ज़कात लेने के नाम पर फर्जीवाड़ा करते है.
दिल्ली में रहने वाले ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन जफ़र महमूद कहते है कि उनके संग़ठन के नाम पर भी कई संग़ठन फर्जी तौर पर इंटरनेट पर बनाए गए हैं. ऐसे संगठनों से बेहद सावधान रहने की जरूरत है. जफ़र महमूद ज़कात के पैसों से अल्पसंख्यक समाज के छात्रों को यूपीएससी की तैयारी कराते हैं.
दिल्ली के पार्लियामेंट रोड पर मौजूद जामा मस्जिद के इमाम मुहिबुलल्लाह नदवी भी इस बात को मानते हैं कि रमज़ान में ज़कात का पैसा लेने की कुछ फर्जी लोगों में होड़ लग जाती है. लेकिन ये तय ज़कात देने वालों को करना है कि वो जिसे पैसा दे रहे है वो वाकई जरूरतमंद है या नहीं. साथ ही वो ज़कात के पैसे को सगठन के तौर पर खर्च करने को सही मानते है.
ज़कात देने का मकसद इस्लाम मे गरीब, यतीम लोगों की मदद करना है, ताकि वो भी अपनी ज़िंदगी बेहतर ढंग से जी सके, लेकिन अगर ज़कात का पैसा सही मायनों में गरीबों तक पहुंचेगा ही नहीं तो फिर इसका फायदा क्या होगा. इसलिए जो ज़कात मांगे उसके बारे में पूरी जानकारी लेना ही बेहतर है.