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नई दिल्ली: आज किसानों के आंदोलन (Farmers Protest) का 35वां दिन है. आज दोपहर 2 बजे किसानों और सरकार के बीच एक बार फिर बातचीत होगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बातचीत से कोई सकारात्मक नतीजा निकलेगा और किसान अपना आंदोलन वापस लेने पर विचार करेंगे. लेकिन हमारे ही देश में कुछ ताकतें ऐसी हैं, जो चाहती हैं कि ये आंदोलन कभी समाप्त न हो और ऐसा लगता है कि अभी आंदोलनकारी किसान इसी ताकत के वश में हैं.
इनमें खालिस्तानी, टुकड़े टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल और वामपंथी शामिल हैं. लेकिन मोटे तौर पर इन ताकतों का वैचारिक रिमोट कंट्रोल वामपंथियों के हाथों में ही है और 1962 के युद्ध में चीन का साथ देने वाले कुछ वामपंथी आज भी भारत को चीन से आगे निकलते हुए नहीं देखना चाहते. भारत समेत पूरी दुनिया अब धीरे धीरे कोरोना वायरस (Coronavirus) जैसी महामारी से उबरने लगी है. पूरी दुनिया की नज़रें भारत पर हैं, क्योंकि इस महामारी की वजह से चीन (China) की छवि पूरी दुनिया में खराब हुई है और अब पूरी दुनिया भारत को चीन के विकल्प के तौर पर देख रही है. लेकिन ये बात भारत के कुछ वामपंथियों को बर्दाश्त नहीं है और ये वामपंथी, टुकड़े टुकड़े गैंग, खालिस्तानियों और अर्बन नक्सलियों का सहारा लेकर भारत की तरक्की के रास्ते में आंदोलन (Farmers Protest) की दीवार खड़ी करना चाहते हैं.
आपको याद होगा, जब नए नागरिकता कानून को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे थे तब उसमें भी एक खास धर्म के लोगों को जोड़ दिया गया था और उन्हें ये कहकर डराया गया था कि उनकी नागरिकता चली जाएगी और इस आंदोलन में भी एक खास धर्म और एक खास क्षेत्र के लोगों को ये कहकर डराया जा रहा है कि उनकी ज़मीनें छीन ली जाएंगी. ये वो फॉर्मूला है जिसका इस्तेमाल वामपंथी और देश विरोधी ताकतें आज से नहीं, बल्कि देश की आजादी के बाद से ही करती आ रही हैं और अब इसी डर के सहारे चीन को फायदा पहुंचाने की भी कोशिश हो रही है. इसे समझने के लिए आपको कुछ आंकड़ों और तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए.
किसानों के आंदोलन की वजह से अब तक सिर्फ पंजाब को ही 30 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है. एक और अनुमान के मुताबिक, इस आंदोलन की वजह से पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों को हर दिन औसतन साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है. यानी 34 दिनों में इन राज्यों को 1 लाख 19 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हो चुका है. पंजाब में तो इस आंदोलन के दौरान कई टेलीकॉम कंपनियों के टावर्स को भी नुकसान पहुंचाया गया. प्रदर्शनकारी किसानों ने करीब 1500 टॉवरों की बिजली काट दी और उन्हें क्षतिग्रस्त कर दिया.
भारत में वाहनों का प्रोडक्शन भी इस आंदोलन की वजह से प्रभावित हो रहा है. चीन अभी इस मामले में पूरी दुनिया में पहले नंबर पर है, जबकि भारत चौथे नंबर पर है. दुनिया की बड़ी बड़ी वाहन निर्माता कंपनियां अब ज्यादा से ज्यादा संख्या में भारत में गाड़ियों का निर्माण करना चाहती हैं और चीन से बाहर निकलना चाहती हैं..लेकिन इस आंदोलन की वजह से इस क्षेत्र को बहुत नुकसान हो रहा है.
इसी तरह मोबाइल फोन के निर्माण के मामले में भारत चीन के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर है. लेकिन आंदोलन की वजह से इसमें भी बाधा पड़ सकती है. भारत के छोटे और बड़े व्यापारियों को इस आंदोलन की वजह से पिछले कुछ दिनों में 5 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है.
किसी देश में जब इस तरह के आंदोलन होते हैं तो उस देश की अंतरराष्ट्रीय छवि पर भी असर पड़ता है और बड़ी बड़ी कंपनियां वहां निवेश करने से बचने लगती हैं. जाहिर है अगर भारत की छवि को चोट पहुंचेगी तो इसका सबसे ज्यादा फायदा चीन को ही पहुंचेगा. भारत के जो वामपंथी चीन को अपना वैचारिक पूर्वज मानते हैं वो शायद ऐसा ही चाहते हैं इसलिए ये वामपंथी एक बार फिर उसी फॉर्मूले पर काम कर रहे हैं जो इन्होंने वर्ष 1962 में भारत और चीन के बीच हुए युद्ध के दौरान अपनाया था.
चीन भी जानता हे कि ये 1962 का नहीं, बल्कि 2020 का भारत है और चीन के लिए भारत से युद्ध जीतना इतना आसान नहीं है. चीन, लद्दाख और डोकलाम में ऐसा नहीं कर पाया. इसलिए चीन अब नए तरीके आजमा रहा है और उसने भारत में बैठे अपने एजेंट्स यानी वापमंथियों का रिमोट कंट्रोल चीन ने अब पूरी तरह से अपने हाथ में ले लिया है और वो इनके सहारे बिना युद्ध लड़े भारत को कमज़ोर कर रहा है.
वर्ष 1959 में जब भारत की तत्कालीन सरकार ने इस बात का खुलासा किया कि लद्दाख के आस पास चीन भारत की जमीन पर अतिक्रमण कर रहा है तो चीन का विरोध करने की बजाय वामपंथियों ने बिल्कुल चुप्पी साध ली थी और यहां तक कि उस दौरान वापमंथी पार्टियों ने कुछ ऐसे बयान भी जारी किए, जो चीन के तो हित में थे लेकिन भारत की संप्रभुता के लिए खतरा थे.
यहां तक कि 60 वर्ष पहले जब चीन की सेना ने तिब्बत पर जबर्दस्ती कब्जा किया तब भी वामपंथियों ने चीन का साथ दिया और कहा कि चीन, तिब्बत के लोगों को अंधकार से बाहर निकालने का काम कर रहा है.
यहां तक भी ठीक था लेकिन जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया. तब भी कई वामपंथी नेताओं ने भारत की जगह चीन का साथ दिया. यहां तक कि जो वामपंथी भारत के सैनिकों के लिए खून देना चाहते थे या पैसों से भारतीय सेना की मदद करना चाहते थे, उन्हें ऐसा करने से रोक दिया गया.
जब कुछ बड़े वामपंथी नेताओं ने इसका विरोध किया तो पार्टी में उनका पद घटाकर उन्हें सज़ा दी गई. यहां तक कि उस समय कई वामपंथी नेता चीन के समर्थन में रैलियां तक कर रहे थे. 1962 के युद्ध में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी CPI चीन का इस तरह से समर्थन कर रही थी कि तत्कालीन सरकार को इस पार्टी के नेताओं को जेल भेजना पड़ा था और इसी बीच CPI टूट गई और CPIM का गठन हुआ. वामपंथी भारत की जगह चीन का साथ तब दे रहे थे, जब वो भारत में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थे. ऐसा लगता है कि आज भी कई वामपंथी चीन को फायदा पहुंचाने के लिए 1962 के फॉर्मूले पर ही काम कर रहे हैं.
लद्दाख में चीन के साथ ताज़ा सीमा विवाद अब भी पूरी तरह से सुलझा नहीं है और दोनों देशों की सेनाओं ने भीषण ठंड के बावजूद सीमा पर डेरा डाला हुआ है. ऐसे में भारत के सैनिकों को लगातार रसद पहुंचाया जाना जरूरी है. लद्दाख में तैनात सैनिकों तक रसद पहुंचाने के लिए पंजाब के रास्ते ही जाना होता है. लेकिन आंदोलन के नाम पर तमाम रास्तों को बंद किया जा चुका है और यहां तक कि ट्रेनों को भी नहीं चलने दिया जा रहा.
इस बात का जिक्र कुछ दिनों पहले देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों के नाम अपनी एक चिट्ठी में भी किया था. अब देश के लोगों को सोचना चाहिए कि अगर चीन के साथ सीमा पर तैनात सैनिकों के पास खाने पीने का सामान और कपड़े नहीं पहुंचेंगे तो इसका सबसे ज्यादा फायदा किसे होगा ? इस सवाल का जवाब भी चीन ही है.
वामपंथी कैसे अपने फायदे के लिए इस आंदोलन को हाईजैक कर रहे हैं. इसका जिक्र कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भाषण में भी किया था.
कहा जाता है कि 1962 के युद्ध के दौरान अगर चीन और रूस के रिश्ते अच्छे होते, तो शायद अपने देश का साथ देने वाले वामपंथियों की संख्या न के बराबर होती है. उस दौरान चीन और रूस एक दूसरे के कट्टर दुश्मन थे. उस समय भारत के कई वामपंथी चीन की राजधानी बीजिंग से आदेश आने का इंतज़ार करते थे, जबकि बाकी के वामपंथी रूस की राजधानी मॉस्को की तरफ देखते थे. लेकिन वामपंथियों के दोनों ही धड़ों में से राष्ट्र की परवाह शायद ही किसी को थी.
चीन के इशारे पर अपनी नीति तय करने का काम वापमंथी आज भी करते हैं. इसी साल जब गलवान में भारत और चीन के सैनिकों के बीच लड़ाई हुई तो CPI(M) पोलित ब्यूरो ने एक बयान जारी करके इस घटना को दुर्भाग्य पूर्ण बताया, लेकिन इस बयान में कहीं भी चीन का नाम नहीं लिया.
इसी तरह 2017 में जब भारत का चीन के साथ डोकलम विवाद हुआ था. तब भी CPI(M) ने एक बयान जारी करके कहा था कि ये स्थिति इसलिए पैदा हुई है क्योंकि भारत तिब्बत के धर्म गुरू दलाई लामा को जरूरत से ज्यादा तवज्जो दे रहा है. यानी चीन का विरोध करने की बजाय, वामपंथी उस समय भारत सरकार की नीतियों पर ही सवाल उठा रहे थे.
आज हमने वापमंथियों के इतिहास को करीब से जानने वाले कुछ विशेषज्ञों से बात की. आज पूरे देश को इनकी बातें सुननी चाहिए, ताकि देश के साथ साथ आंदोलन कर रहे किसानों को भी ये बात समझ आ जाए कि उनके नाम पर वामपंथी कैसे चीन को फायदा पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं.
वामपंथियों की तरह कांग्रेस के कई नेताओं पर भी ये आरोप लगते हैं कि समय आने पर ये नेता भारत का साथ देने की बजाय चीन का साथ देने लगते हैं और अगर ये खुलकर चीन का साथ नहीं दे पाते, तो भारत पर ही सवाल उठाने लगते हैं.
उदाहरण के लिए डोकलाम और गलवान विवाद के बाद, वायनाड से कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने ये दावा किया था कि चीन ने भारत की ज़मीन पर कब्जा कर लिया है. अब आप सोचिए कि अगर ये भारत की सेना का अपमान नहीं है तो और क्या है ?
2008 में कांग्रेस और चीन की Communist Party के बीच एक MOU पर हस्ताक्षर हुए थे. जिसका उद्देश्य दोनों पार्टियों के संबंधों को मजबूत बनाना था. बीजिंग में हुए इस समझौते पर खुद राहुल गांधी ने हस्ताक्षर किए थे और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी इस कार्यक्रम में मौजूद थीं.
गांधी परिवार की संस्था राजीव गांधी फाउंडेशन पर चीन से चंदा लेने के आरोप लग चुके हैं. ये तथ्य हमने आज आपके सामने इसलिए रखे हैं ताकि देश के आम लोग ही नहीं, बल्कि आंदोलन कर रहे किसान भी ये समझ सकें कि उनके साथ कितना बड़ा छल किया जा रहा है.
भारत में आंदोलनों का इतिहास सैंकड़ों वर्ष पुराना है. लेकिन दुर्भाग्य ये है जो भारत में जिन पार्टियों का जन्म आंदोलन से हुआ, उनके नेता सत्ता के लालच में आंदोलनों को डिजाइनर बनाने पर तुल गए और आंदोलन अपने असली उद्देश्यों से भटकने लगे.
आज किसानों का जो आंदोलन चल रहा है उसे आप ध्यान से देखेंगे तो आपको समझ आ जाएगा कि ये अचानक नए कृषि कानूनों और सरकार के प्रति पैदा हुए असंतोष का परिणाम नहीं है, बल्कि एक सोची समझी योजना है. जो किसान खेतों में सिर्फ फसल नहीं, बल्कि अपना दिल उगाते हैं उनके साथ आज कुछ ताकतें बहुत बड़ा धोखा कर रही हैं.
हमारी टीम पिछले कई दिनों से सिंघू बॉर्डर से रिपोर्टिंग कर रही है. इस दौरान हमें पता चला है कि किसानों को लगातार ये कहकर भड़काया जा रहा है कि तीनों नए कृषि कानून पूरी तरह से किसानों के खिलाफ हैं. किसान दिल्ली के अलग अलग बॉर्डर्स पर प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि सिंघू बॉर्डर पर इस आंदोलन के लिए विशेष तैयारी की गई है. सिंघू बॉर्डर पर किसानों के लिए यू ट्यूब चैनल चलाने वाले लोग भी लगातार मौजूद रहते हैं. ये लोग मीडिया को लोगों के बीच जाकर इस बात की जांच करते हैं कि कौन इनकी खबर चला रहा और कौन नहीं. अगर इन्हें पता चलता है कि कोई रिपोर्टर इनके खिलाफ खबर दे रहा है तो ये लोग सुनियोजित तरीके से उसे निशाना बनाने लगते हैं.
धार्मिक और भावनात्मक रूप से किसानों को उकसाने के लिए कई तरह के आयोजन भी किए जा रहे हैं. इस सुनियोजित आंदोलन की कुछ तस्वीराें में जो किसान आंदोलन में हिस्सा ले रहे हैं वो सबसे पहले वहां ट्रैक्टर ट्राली को खड़ा कर देते हैं. इसके बाद इन ट्रैक्टर्स को ही एक मकान में बदल दिया जाता है. रातों रात वहां कंबल और दूसरे जरूरी सामान पहुंचा दिए जाते हैं. खाने पीने की व्यवस्था कर दी जाती है. यहां पहुंचकर आपको ऐसा लगेगा जैसे आप किसी मेले में आ गए हैं.
मनोरंजन का भी इंतजाम होता है, किसानों की थकावट मिटाने के लिए मसाज चेयर्स का भी इस्तेमाल किया जाता है. Pizza और Dry Fruits की व्यवस्था की जाती है और यहां तक कि दिल्ली सरकार ने आंदोलन कर रहे किसानों को फ्री WiFi भी उपलब्ध कराने की घोषणा कर दी है.
पिछले कुछ दिनों से हमारे रिपोर्ट्स ग्राउंड पर जाकर ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि 6 महीने तक आंदोलन करने की तैयारी करके आए किसानों के लिए इन सभी सुविधाओं का इस्तेमाल कैसे होता है.
अब हम आपको बताएंगे कि आंदोलन और आयोजन यानी Event में क्या फर्क होता है.
आंदोलन और आयोजन में ये अंतर होता है कि आंदोलन का एक उद्देश्य होता है और आंदोलन करने वाले इसी उद्देश्य के लिए लड़ते हैं. लेकिन आयोजन करने वालों का मकसद सिर्फ अपने एजेंडे का प्रचार और प्रसार करना होता है. सच में क्रांति लाना नहीं होता.
इस पर शहीद भगत सिंह ने एक बार कहा था-
'इंक़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है'
यानी क्रांति के केंद्र में विचार होते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि आज के जमाने की क्रांति के केंद्र में सिर्फ प्रचार ही बचा है.
भगत सिंह की जो बात अभी हमने कही वो आज किसानों के आंदोलन का प्रचार करने के लिए शुरू किए गए अखबार ट्रॉली टाइम्स पर भी, भगत सिंह की तस्वीर के साथ लिखी हुई है. लेकिन हमारा सवाल ये है कि क्या सिर्फ एक क्रांतिकारी के शब्दों का इस्तेमाल करके आंदोलन को आयोजन में बदलने से रोका जा सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कुछ दिनों पहले कहा था कि कुछ लोग आंदोलन को एक इवेंट की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं.
अब आपको ये समझना चाहिए कि पंजाब के किसानों के आंदोलन में लेफ्ट पार्टियों की इतनी दिलचस्पी क्यों हैं. इसलिए आपको पंजाब में लेफ्ट के इतिहास को समझना होगा.
भारत की आजादी की मांग के साथ. वर्ष 1913 में अमेरिका में गदर पार्टी की स्थापना हुई थी. पंजाब में लाला हरदयाल के नेतृत्व में गदर मूवमेंट शुरू हुआ. गदर पार्टी, रूस की बोलशेविक क्रांति से बहुत प्रभावित थी. रूस में हुई ये क्रांति वामपंथी विचारधारा पर ही आधारित थी. इसके अलावा पंजाब के शहीद भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी भी समाजवाद की विचारधारा से बहुत प्रभावित थे. लेकिन पंजाब में वामपंथ की जिस विचारधारा का मकसद देश को आजाद कराना था. उसका स्वरूप समय के साथ-साथ सत्ता के लालच और चीन और रूस जैसे वामपंथी देशों के दबाव में बिगड़ने लगा.
भारत में वर्ष 1951 में जब पहले आम चुनाव हुए थे. तब पंजाब में लेफ्ट पार्टियों का वोट शेयर 16 प्रतिशत था. 1977 में पंजाब विधानसभा में 17 विधायक लेफ्ट पार्टियों के थे. एक समय में पंजाब में हरकिशन सिंह सुरजीत, विमला डांग और सतपाल डांग जैसे बड़े वापमंथी नेता बहुत प्रभावशाली थे. सतपाल डांग तो वर्ष 1966 में पंजाब में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार में मंत्री भी थे.
एक ज़माने में पंजाब के ग्रामीण इलाकों में वापमंथी पार्टियां बहुत मजबूत थी, यहां तक कि वामपंथियों के विरोध की वजह से पंजाब में कई फैक्ट्रियों को बंद भी करना पड़ा था.
लेकिन इन बड़े नेताओं की मृत्यु के बाद धीरे-धीरे पंजाब में वामपंथियों की पकड़ कमज़ोर होने लगी और पिछले 20 वर्षों में तो पंजाब से लेफ्ट की पॉलिटिक्स लगभग गायब हो गई. अकाली दल जैसी पार्टियों ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई, अकाली दल ने धर्म को पंजाब में राजनीति का मुख्य मुद्दा बनाया और लेफ्ट पार्टियां इसकी काट नहीं खोज पाई.
लेकिन अब इस आंदोलन में लेफ्ट पार्टियों को अपने लिए एक संजीवनी बूटी नज़र आ रही है और वोटों की फसल बोने के लिए ये पार्टियां किसानों के आंदोलन की सवारी कर रही हैं.
हमारे कुछ रिपोर्टर्स पंजाब के गांव गांव में घूमकर ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि इस आंदोलन पर राजनीति पार्टियों का कितना प्रभाव है. इस दौरान हमें पंजाब के एक गांव से इस आंदोलन में शामिल हुए 18 युवकों के बारे में पता चला. जब हमने जानकारी जुटाई तो पता चला कि इनमें से कोई युवा लेफ्ट पार्टियों जुड़ा है, कोई कांग्रेस से, तो कोई आम आदमी पार्टी से. हमें ये जानकारी भी मिली कि इन युवकों को कल अपने गांव वापस लौटना था. लेकिन इन्हें आंदोलन में ही रुकने की सलाह दी गई और कहा गया कि अभी गांव से 30 लोग और एक बस में बैठकर आंदोलन वाली जगह पर पहुंच रहे हैं.
पंजाब में एक वर्ग ऐसा भी है, जो पिछले विधान सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के साथ था. लेकिन आम आदमी पार्टी पंजाब में कुछ खास कर नहीं पाई और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित ये वर्ग अब किसानों के आंदोलन में अपनी ज़मीन तलाश रहा है और आंदोलन के लिए सुनियोजित रणनीति तैयार कर रहा है. कुल मिलाकर वामपंथी अब इस आंदोलन के ज़रिए खुद को पंजाब में पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं और कुछ वामपंथी तो इसके लिए पाकिस्तान और चीन जैसे देशों की मदद लेने के लिए भी तैयार हैं.
आंदोलन से उपजी कांग्रेस को देश की आजादी के बाद भंग किया जाना था और गांधी जी कांग्रेस को एक समाज सेवी संस्था में बदलना चाहते थे. लेकिन सत्ता के लालच में कुछ नेताओं ने कांग्रेस को परिवार सेवी पार्टी में बदल दिया. इसी तरह 2011 में जनलोकपाल बिल के लिए चलाए गए आंदोलन से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ और आज इस पार्टी की दिल्ली में सरकार है और ये पार्टी भी अब किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही है. इसी तरह वामपंथ की जो विचारधारा, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बनी और जिस विचारधारा के आधार पर पंजाब से देश की आजादी के लिए आंदोलन चलाया गया उस विचारधारा को मानने वाले नेताओं ने अपने सिद्धांतों की चीन जैसे देशों के इशारे पर नीलामी कर दी है और आज हम आंदोलन कर रहे किसानों को इन्हीं मौका परस्त लोगों से सावधान कर रहे हैं.