DNA Analysis: कूड़े के पहाड़ में लगी आग कितनी भीषण और खतरनाक?
DNA Analysis: दिल्ली के भलस्वा में लैंडफिल साइट वर्ष 1994 में शुरु हुई थी, 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक वहां कूड़े की ऊंचाई बढ़कर 62 मीटर तक पहुंच गई है. ये ऊंचाई कुतुब मीनार से सिर्फ 11 मीटर ही कम है, कुतुब मीनार की ऊंचाई 73 मीटर है.
DNA Analysis: दिल्ली में कूड़े के पहाड़ में मंगलवार यानी 26 अप्रैल को शाम करीब 6 बजे आग लग गई थी और उसकी दहकती आग और धुएं और बदबू ने आसपास के लोगों की हालत ख़राब कर रखी है. ये Landfill Site दिल्ली के भलस्वा में हैं और इसे काफ़ी पहले ही बंद हो जाना चाहिए था लेकिन आज भी कूड़े का ये बड़ा पर्वत खड़ा है. कूड़े के पहाड़ में लगी आग की वजह से वहां चल रहे एक स्कूल को बंद कर दिया गया है, कूड़े के पहाड़ की आग से स्कूल के खिड़की दरवाजे तक पिघल गए हैं. सोलर पैनल ने काम करना बंद कर दिया है ऐसे में उस स्कूल में पढ़ने वाले छोटे छोटे बच्चों की हालत कैसी होगी ये आप बेहतर समझ सकते हैं. भलस्वा लैंडफिल साइट पर आग लगने के कारण स्कूल आने वाले बच्चों को सांस लेने में परेशानी हो रही थी, उनकी तबीयत ख़राब हो रही थी . इसीलिए स्कूल प्रशासन ने तय किया कि जब तक आग बुझ नहीं जाती , बच्चे स्कूल नहीं आएंगे.
कूड़े का ये पहाड़ किसी मुसीबत से कम नहीं
हालांकि वहां आग को कंट्रोल करने का दावा किया जा रहा है लेकिन अभी भी डंपिग साइट पर कुछ जगहों पर आग लगी हुई है. अभी भी डंपिंग ग्राउंड से घना धुआं निकल रहा है. ये धुआं इतना ख़तरनाक है कि इससे न सिर्फ बच्चों को बल्कि बड़े लोगों को भी घुटन महसूस हो रही है, उन्हें भी सांस लेने में तकलीफ़ हो रही है और पिछले करीब 50 घंटे से वो इस परेशानी से जूझ रहे हैं. अगर कोई व्यक्ति ऐसे धुएं के बीच लगातार 60 दिन तक रहे तो उसके फेफड़े को उतना नुकसान होता है, जितना 10 साल तक सिगरेट पीने से होता है. आप कह सकते हैं कि कूड़े का ये पहाड़ किसी मुसीबत से कम नहीं है. जिसे आसपास के लोग लंबे समय से झेल रहे हैं. हर लैंडफिल साइट की एक उम्र होती है. यानी सरकार और प्रशासन द्वारा निर्धारित किया जाता है कि किस स्थान पर कितने वर्षों तक कूड़ा डाल सकते हैं.
ये कैसा सरकारी सिस्टम है?
इसी के तहत NGT यानी National Green Tribunal ने भलस्वा लैंडफिल साइट को इसी वर्ष जून 2022 में तक बंद करने का लक्ष्य तय किया था लेकिन लेकिन अभी भी यहां उत्तरी दिल्ली का करीब 2 हज़ार 500 मीट्रिक टन कचरा डाला जा रहा है. एक ट्रक में करीब 10 टन कचरा आता है, ऐसे में आप समझ सकते हैं कि भलस्वा लैंडफिल साइट पर करीब 250 ट्रक भरकर कचरा डंप किया जा रहा है. सोचिए ये कैसा सरकारी सिस्टम है. जिस लैंडफिल साइट को अगले दो महीने में बंद हो जाना चाहिए था, उसमें अभी सिर्फ 22 फीसदी यानी करीब 18 लाख मीट्रिक टन कचरे का ही निस्तारण किया गया है जबकि अभी भी 62 लाख मीट्रिक टन कचरा भलस्वा लैंडफिल साइट पर जमा है, यानी आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सिर्फ भलस्वा में ही कितने ट्रक कचरे का ढेर लगा हुआ है. इस लापरवाही पर उत्तरी दिल्ली नगर निगम पर दिल्ली सरकार ने 50 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है. दिल्ली सरकार की तरफ से ये जुर्माना DPPC यानी दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने लगाया है, लेकिन क्या इस जुर्माने से लोगों की परेशानियां कम हो जाएंगी.
1994 में शुरु हुई थी लैंडफिल साइट
भलस्वा में ये लैंडफिल साइट वर्ष 1994 में शुरु हुई थी, 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक वहां कूड़े की ऊंचाई बढ़कर 62 मीटर तक पहुंच गई है . ये ऊंचाई कुतुब मीनार से सिर्फ 11 मीटर ही कम है, कुतुब मीनार की ऊंचाई 73 मीटर है. भलस्वा लैंडफिल साइट करीब 36 एकड़ में फैली हुई है. इसके अलावा गाज़ीपुर लैंडफिल साइट की ऊंचाई करीब 65 मीटर है और ओखला में कूड़े के पहाड़ की ऊंचाई करीब 40 मीटर है. ये विडम्बना ही है कि अकेले भलस्वा में कूडे के इस बड़े पहाड़ की वजह से दिल्ली के लाखों लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और ये वो लोग हैं जो इस कूड़े के पर्वत के आसपास के क्षेत्रों में रहते हैं और अब इन लोगों को इस गंदगी के साथ जीने की आदत हो गई है या फिर न चाहते हुए भी ये लोग यहां रहने को मजबूर है. ऐसा लगता है कि प्रशासन और सरकार को इन लोगों के दर्द और दुख से कोई लेना देना नहीं है . क्योंकि अगर चिंता होती तो दिल्ली में जो कूड़े के तीन बड़े पहाड़ हैं , गाज़ीपुर, भलस्वा और ओखला, नियमों के तहत इन तीनों ही लैंडफिल साइट्स को अब तक बंद हो जाना चाहिए था. गाज़ीपुर लैंडफिल साइट को तो वर्ष 2002 में ही बंद हो जाना चाहिए था लेकिन वहां आज भी लाखों टन कूड़ा जमा है . एक अनुमान के मुताबिक इस समय तीनों लैंडफिल साइट्स पर करीब 280 लाख टन कूड़ा कचरा जमा है. और कचरे के इन तीनों पहाड़ों को खत्म करने की डेडलाइन दिसंबर 2024 रखी गई है. लेकिन जिस तरह से कूड़ा हटाने का काम चल रहा है और लगातार इनमें कचरा भी डाला जा रहा है ये डेडलाइन भी छोटी नज़र आ रही है.
लोगों की औसत लंबाई और वजन घट गया है
दिल्ली में तीनों लैंड फिल साइट्स के पास रहने वालों लोगों पर 2018 में एक सर्वे किया गया. सर्वे के मुताबिक तीनों जगहों पर रहने वाले लोगों की औसत लंबाई और वजन घट गया है. राजधानी की तीन लैंडफिल साइट पर रहनेवाले लोगों की लंबाई छोटी और वजन सामान्य से 9 किलो कम पाया गया है. पैदल चलते समय सांस फूलने की समस्या आम है. लैंडफिल साइट के आसपास का पानी ज़हरीला हो चुका है. लैंडफिल साइट के आसपास के पानी को 15 साल पीया जाए तो कैंसर हो सकता है. लैंडफिल साइट्स के धुएं में कॉर्बन मोनो ऑक्साइड और दूसरी टॉक्सिक गैसें निकलती हैं. इससे हीमोग्लोबिन में मौजूद ऑक्सीजन का स्तर कम होता है. इससे रेड ब्लड सेल्स, हार्ट और नर्वस सिस्टम के टिशू को नुकसान पहुंचता है. हाई ब्लड प्रेशर की समस्या भी आम है. दिल्ली की तीनों लैंडफिल साइट्स को बंद करके वहां पार्क बनाने की डेडलाइन कई बार टूट चुकी है, इस बार भी 2024 तक तीनों लैंडफिल साइट्स को बंद करने का लक्ष्य रखा गया है, उम्मीद करते हैं कि ये लक्ष्य इस बार सच में पूरा हो, सरकारें जाग जाएं और देश की राजधानी कचरा होने से बच जाए, यहां के लोगों की जिंदगी का कचरा भी खत्म हो.
पानी को बना रहा जहरीला
केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने इसी वर्ष अपनी एक रिपोर्ट में दिल्ली की तीनों लैंडफिल साइट्स के बारे में बताया था जिसके मुताबिक तीनों लैंडफिल साइट्स Ground Water को ज़हरीला बना रही हैं , रिपोर्ट में बताया गया था कि कूड़े के इन पहाड़ों के आसपास के रिहाइशी इलाकों के Ground Water में Calcium Carbonate, Sulfate Iron और Magnesium जैसे Chemicals मिले हैं. ये शरीर के लिए बेहद हानिकारक होते हैं. समझने वाली बात ये है कि ऐसे इलाकों में जो लोग पीने के पानी का इस्तेमाल करते हैं , उसमें TDS यानी Total Dissolved Solids की मात्रा 1400 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गई. जबकि पानी में TDS की ये मात्रा 500 मिलीग्राम प्रति लीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए . इससे ज्यादा TDS हमारे और आपके शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं.
देश में ऐसी 3 हजार 135 Landfill Sites
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कूड़े के पहाड़ों की समस्या सिर्फ़ दिल्ली में है. भारत में इस तरह की 3 हज़ार 135 Landfill Sites हैं और इनमें से ज्यादातर 20 से 30 साल पुरानी हैं, जिन्हें अब तक बन्द कर देना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सरकारें इन Sites को इसलिए बन्द नहीं कर पाती क्योंकि उनके पास कूड़े का निपटारा करने के लिए ज्यादा विकल्प ही नहीं है. भारत के लोग हर दिन लगभग डेढ़ लाख टन कूड़ा पैदा करते हैं, जिनमें से सिर्फ़ 68 प्रतिशत कूड़ा ही Processed हो पाता है और बाकी कूड़े को इस तरह की लैंडफिल साइट्स पर डालना पड़ता है. और इस तरह हर रोज़ इन साइट्स पर इतना कूड़ा जाता है कि यहां कूड़े के पहाड़ बन जाते हैं.