बटुकेश्वर दत्त को बहुत कड़ी सजा दी गई, जिसे उस समय 'काला पानी की सज़ा' कहा जाता था और इस सज़ा में कैदी को अंडमान द्वीप पर बनाई गई सेल्युलर जेल में उम्रभर के लिए बंद कर दिया जाता था.
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नई दिल्ली: शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा...
ये शेर आपने अक्सर सुना होगा और इसे सुनने के बाद आपके मन मे शहीदों के लिए सम्मान बढ़ता होगा. उनसे देश के लिए त्याग की सीख मिलती होगी. लेकिन क्या हमारा देश अपने शहीदों की कुर्बानी के साथ न्याय कर रहा है? ये सवाल हम इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि पश्चिम बंगाल में चुनाव कवर करते हुए जब हमारी टीम वर्धमान जिले के औरी गांव में पहुंची तो वहां शहीदों के निशां धूल में दबे हुए थे. मेला तो यहां दूर दूर तक नहीं था, लेकिन इस विरासत के प्रति सरकार और प्रशासन की उपेक्षा जरूर देखने को मिली.
वर्धमान जिले के इस गांव में आजादी के महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर 1910 को हुआ था. बटुकेश्वर दत्त ने केवल 19 साल की उम्र में 8 अप्रैल 1929 को शहीद भगत सिंह के साथ अंग्रेजों की संसद पर बम फेंका था.
इस घटना के बाद शहीद भगत सिंह को तो फांसी की सजा हो गई लेकिन बटुकेश्वर दत्त को बहुत कड़ी सजा दी गई, जिसे उस समय 'काला पानी की सज़ा' कहा जाता था और इस सज़ा में कैदी को अंडमान द्वीप पर बनाई गई सेल्युलर जेल में उम्रभर के लिए बंद कर दिया जाता था. पर जब 1947 में देश आजाद हुआ तो बटुकेश्वर दत्त जेल से निकल आए और बिहार की राजधानी पटना में रहने लगे. यहां उनकी जिंदगी बहुत मुश्किल में रही. देश के लिए बड़ी कुर्बानी का कोई सम्मान नहीं हुआ. बटुकेश्वर दत्त को परिवार पालने के लिए एक सिगरेट कंपनी में नौकरी करनी पड़ी थी. एक बार तो किसी सरकारी योजना का लाभ देने के लिए उनसे प्रमाण पत्र भी मांग लिया गया था. बटुकेश्वर दत्त को टीबी की बीमारी हो गई थी. फिर 20 जुलाई 1965 में उनका देहांत हो गया. पटना में उनकी बेटी अब भी रहती हैं. हमने जब उनसे मिलने की कोशिश की तो वो सामने नहीं आईं क्योंकि, उन्हें कोरोना की जांच के बाद क्वारंटीन किया गया है.
आज हम आपके लिए एक ग्राउंड रिपोर्ट लेकर आए हैं. इसे पढ़िए और जानिए कि हमारे इतिहास में देश के महापुरुषों के साथ कैसे अन्याय किया गया है.
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत देश कभी नहीं भूलेगा, लेकिन 1947 में आजाद हुआ भारत उस महान सेनानी को भूल गया. जिसने वर्ष 1929 में केवल 19 साल की उम्र में भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों की सरकार को इंकलाब के नारों से हिला दिया था. बटुकेश्नवर दत्त का जन्म 18 नवंबर 1910 को हुआ था. आज हम आपको ये भी बताएंगे कि महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के गांव की स्थिति क्या है और उनको लेकर सरकारों की रवैया क्या है.
पश्चिम बंगाल में चुनाव हैं. प्रदेश के वोटर पांच साल के लिए सरकार का चुनाव करेंगे. इन्हीं चुनावों की राजनीति को आप तक पहुंचाने के लिए ज़ी न्यूज़ की टीम इन दिनों पश्चिम बंगाल के गांव गांव तक पहुंच रही है. ज़ी न्यूज की टीम जब बटुकेश्वर दत्त के गांव पहुंची तो वहां हमने कई लोगों से शहीदों को भूल जाने वाले राजनेताओं पर भी बात करने की कोशिश की.
क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के गांव के लोग मानते हैं कि जिस गांव को देश के इतिहास में जगह मिलनी चाहिए थी, उसको वो सम्मान नहीं मिला जो जरूरी था. लोगों से बात करने के बाद हमारी टीम बर्धमान जिले के ओरी गांव में बने बटुकेश्वर दत्त के घर पहुंची. बटुकेश्नवर दत्त का घर बाहर से जितना अच्छा नजर आता है, अंदर से उसके हालात वैसे नहीं है. हम उनके घर के अंदर भी गए. दत्त के गांव में वो घर भी है जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम की एक बड़ी घटना का गवाह है.
वर्ष 1929 नेशनल असेंबली में बम फेंककर अंग्रेजी हुकूमत को इंकलाब का नारा सुनाने की योजना इसी घर में बनाई गई थी. भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इसी घर में बैठकर नेशनल असेंबली में बम फेंकने की प्लानिंग की थी. आज ये घर खंडहर बन गया है. इसी घर में वो तहखाना है जहां वह छिपे थे.
आज ये इमारत एक खंडहर बन चुकी है, लेकिन उस दौर में यहां भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पूरे 18 दिनों तक अंग्रेजों से छिपकर रहे और क्रांति की मशाल जलाकर पूरे देश में युवाओं का आदर्श बन गए. भगत सिंह तो सभी को याद हैं, लेकिन बटुकेश्वर दत्त को भुला दिया गया.
बटुकेश्वर दत्त को सम्मान देने की छोटी सी पहल जरूर हुई थी जिसमें उनके नाम पर एक म्यूजियम बनाया गया. लेकिन म्यूजियम कही जाने वाली उस इमारत में जब हम पहुंचे तो वहां सिर्फ खानापूर्ति थी. जिस क्रांतिकारी ने 19 साल की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम में अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया. उसको 1947 में आजाद हुए भारत में अपनी पहचान तक साबित करने लिए मशक्कत करनी पड़ी थी.
बटुकेश्वर दत्त आजादी के बाद गुमनाम क्यों रहे इसे लेकर इतिहासकार सर्वजीत कहते हैं कि वह पटना में रहने लगे जीवन संग्राम में लगे रहे. ऐसा भी कहा जाता है कि उनसे आडेंटिटी कार्ड तक मांगा गया था. बर्धमान स्टेशन का नाम बटुकेश्नर दत्त के नाम पर होना था, लेकिन नहीं हुआ. कुछ लोग विरोध में थे. भारत के पहले इंकलाबी हैं, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त. इनमें भी बटुकेश्वर दत्त पहले बंगाली इंकलाबी हैं, लेकिन किसी ने कुछ नहीं दिया.