प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को अब भी ये लगता है कि वो अपने विरोधियों से निपट लेंगे और अपनी कुर्सी बचा ले जाएंगे.
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नई दिल्ली: भारत विरोधी एजेंडा चलाने वाले, नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली पर कई गंभीर सवाल उठ चुके हैं. ओली से उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता इस्तीफा मांग रहे हैं, लेकिन अपनी कुर्सी बचाने के लिए ओली भी हर तरह के हथकंडे अपना रहे हैं. अब सवाल यही है कि ओली इस्तीफा देंगे या फिलहाल किसी तरह अपनी कुर्सी बचा लेंगे?
नेपाल में संसद सत्र चल रहा था, लेकिन प्रधानमंत्री ओली ने राष्ट्रपति के आदेश से गुरुवार को अचानक इसे रद्द करवा दिया. ओली ने ऐसा इसलिए किया, ताकि उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ना आ सके और उन्हें कुछ अतिरिक्त समय मिल जाए.
अब इस नाटकीय राजनीति में दो ही रास्ते दिखते हैं, या तो ओली, अपने विरोधी गुट के नेताओं के साथ कोई समझौता कर लें, या फिर ये भी हो सकता है कि उनकी पार्टी ही टूट जाए. इसके अलावा ओली ने दूसरा दांव भी खेला है जिसके तहत वो ऐसा अध्यादेश लाने की तैयारी में हैं, जिसमें पार्टी टूटने पर ओली को फायदा होगा.
नेपाल के कानून के मुताबिक पार्टी में विभाजन के लिए उसके 40 प्रतिशत सांसद और 40 प्रतिशत केंद्रीय समिति के सदस्यों का समर्थन जरूरी है. लेकिन नए अध्यादेश के मुताबिक इन दोनों में से किसी एक के समर्थन से भी पार्टी का विभाजन हो जाएगा.
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ओली इसका फायदा इस तरह से उठा सकते हैं कि अगर पार्टी में टूट के बाद, संसद में दोनों गुटों के बीच कोई सहमति नहीं बनती है या किसी गठबंधन को बहुमत नहीं मिलता है, तो वो संसद भंग करके मध्यावधि चुनाव भी करा सकते हैं. यानी तब तक वो कुर्सी पर बने रहेंगे.
लेकिन केपी ओली की चाल कामयाब होगी या नहीं, ये कहना मुश्किल है, क्योंकि उनकी पार्टी यानी नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी का एक बड़ा गुट, ओली के विरोध में है. ये नेता सीधे तौर पर अब कह रहे हैं कि केपी ओली को हर हाल में इस्तीफा देना होगा, क्योंकि वो सरकार नहीं चला पा रहे हैं, वो पूरी तरह से नाकाम साबित हो चुके हैं और अपनी नाकामी छुपाने के लिए भारत विरोधी बातें कर रहे हैं. इन नेताओं में नेपाल के तीन पूर्व प्रधानमंत्री भी हैं, जिनमें पुष्प कमल दहल, माधव कुमार नेपाल और झाला नाथ खनाल का नाम शामिल है.
इनमें पुष्प कमल दहल, जो प्रचंड के नाम से मशहूर हैं, वो नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी के सह अध्यक्ष भी हैं. नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थाई समिति की 6 दिन से लगातार बैठक चल रही है. इन बैठकों में आने से और पार्टी के नेताओं का सामना करने से केपी ओली बच रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि स्थाई समिति के 45 में से 30 सदस्य उनके खिलाफ हैं. पहले केपी ओली से ये मांग कई गई थी कि वो या तो पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ें या प्रधानमंत्री पद छोड़ें, लेकिन अब ओली विरोधी गुट, हर हाल में प्रधानमंत्री पद से ओली को हटाना चाहता है.
लेकिन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को अब भी ये लगता है कि वो अपने विरोधियों से निपट लेंगे और अपनी कुर्सी बचा ले जाएंगे. ओली के इस भरोसे के पीछे, एक तो चीन है, और दूसरी बात है, नेपाल की आंतरिक राजनीति. पिछले कुछ वर्षों में नेपाल के कम्यूनिस्ट राजनैतिक तौर पर बहुत मजबूत हो चुके हैं. इसका एक बड़ा कारण है केपी शर्मा ओली और प्रचंड की कम्यूनिस्ट पार्टियों का एक साथ आ जाना.
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2017 में दोनों की पार्टियों ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, उस चुनाव में ओली की पार्टी को 80 जबकि प्रचंड की पार्टी को 36 सीटें मिली थीं. इन दोनों पार्टियों ने 165 में से 116 सीटों पर जीत दर्ज करके सरकार बनाई. लेकिन इस दौरान ओली और प्रचंड ने एक और बड़ा फैसला लिया. दोनों ने अपनी-अपनी पार्टियों का विलय करके नई पार्टी, नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी बनाई.
इस गठबंधन में ये तय हुआ था कि सरकार फिफ्टी-फिफ्टी के फॉर्मूले पर चलेगी. यानी दोनों ने तय किया कि 5 साल के कार्यकाल में ढाई साल केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री रहेंगे और अगले ढाई साल प्रचंड पीएम बनेंगे. पहले ढाई साल सब ठीक चला लेकिन जब प्रचंड की बारी आई तो विवाद शुरू हो गया. नेपाल में इस समय हो रही राजनैतिक उठापटक का मुख्य कारण भी यही है.
आप इसको इस तरह भी समझ सकते हैं कि केपी शर्मा ओली के पास 80 सांसद है और प्रचंड के पास 36 सांसद. अगर प्रचंड, सरकार से अलग होकर जाना चाहें तो भी वो किसी भी पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं. क्योंकि नेपाल के दूसरे विपक्षी दल कमजोर स्थिति में हैं. जैसे मुख्य विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस के पास सिर्फ 23 सीटें हैं.
ऐसे में ओली जानते हैं कि अभी उनको सत्ता से दूर करना इतना आसान नहीं है. लेकिन मुसीबत ये है कि ओली की कार्यशैली से पार्टी में उनके खिलाफ विद्रोह बढ़ता जा रहा है. उधर, प्रचंड भी जानते हैं कि ओली के 80 सांसदों में से करीब 50 प्रतिशत सांसद उनसे नाराज हो चुके हैं, ऐसे में केपी शर्मा ओली पर दबाव बढ़ाने का ये सबसे सही मौका है.
केपी शर्मा ओली ने पिछले कुछ महीने में भारत विरोधी कार्ड खेला. उदाहरण के तौर पर उन्होंने नेपाल का नया नक्शा पास करवाया, इसमें भारत के तीन इलाकों को शामिल कर लिया. फिर वो ये कहने लगे कि भारत, उनकी सरकार गिराने में लगा है. ओली ने ये सब इसलिए किया कि वो अपनी नाकामियों को छुपा सकें और पार्टी में विरोधी गुट की आवाज बंद कर सकें, लेकिन ओली के ये हथकंडे फेस हो गए.
अब ओली से उनकी पार्टी के नेता कह रहे हैं कि वो भारत के खिलाफ लगाए गए आरोपों को सिद्ध करें या फिर इस्तीफा दें. जैसे प्रचंड ने ये कहा कि भारत के खिलाफ ओली के आरोप गलत हैं, क्योंकि ओली का इस्तीफा भारत नहीं, बल्कि खुद प्रचंड मांग रहे हैं और अगर ओली को ये लगता है कि काठमांडू में भारतीय दूतावास उनकी सरकार गिराने में जुटा है, तो फिर ओली ने भारत के राजदूत को अब तक निकाला क्यों नहीं?
ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि केपी शर्मा ओली की चालों के पीछे चीन का हाथ है. नेपाल में ओली और प्रचंड की पार्टियों के विलय और ओली को प्रधानमंत्री बनाने में चीन की मुख्य भूमिका थी. इसलिए ओली, भारत विरोधी बातें करके चीन का कर्ज उतार रहे हैं. माना जाता है कि ओली की कुर्सी पहले ही चली जाती, लेकिन चीन ने दखल देकर किसी तरह से उनकी सत्ता बचा ली थी. अब भी चीन यही कर रहा है, और ओली को किसी तरह से नई राजनैतिक मुसीबत से बचाने में जुटा है.
कहा जाता है कि नेपाल में चीन की राजदूत, वहां के कम्यूनिस्ट नेताओं से लगातार संपर्क में है. चीन की राजदूत इन नेताओं के साथ लगातार मीटिंग कर रही हैं. चीन को इस बात का डर है कि नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी टूट ना जाए और अगर ऐसा हुआ, तो नेपाल में चीन की पकड़ कमजोर हो जाएगी. इसलिए चीन ने पूरा जोर लगा दिया है कि केपी शर्मा ओली अभी प्रधानमंत्री पद से ना हटें, क्योंकि ऐसा होने पर ये संकेत चला जाएगा कि नेपाल के मामले में भारत, चीन से जीत गया है.
ये भी बताया गया है कि नेपाल के मामले में चीन ने अब पाकिस्तान को भी सक्रिय कर दिया है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान, केपी शर्मा ओली से बातचीत करना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने समय मांगा है. यानी भारत के खिलाफ चीन, नेपाल और पाकिस्तान का गठबंधन बनाना चाहता है और भारत को हर तरफ से घेरने की कोशिश कर रहा है.
नेपाल और भारत के बीच आज के नहीं, हजारों वर्ष पुराने आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध हैं. दोनों देशों के बीच करीब 18 सौ किलोमीटर की खुली सीमा है, जिसमें कहीं भी आने जाने पर कोई रोक-टोक नहीं है. नेपाल के करीब 60 लाख नागरिक, भारत में रहते हैं और करीब 6 लाख भारतीय, नेपाल में रहते हैं. 45 हजार से ज्यादा नेपाली नागरिक भारतीय सेना और पैरामिलिट्री के सैनिक हैं.
नेपाल की सीमा पर उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड जैसे राज्यों के लोगों के रिश्ते नेपाल में हैं. दोनों देशों के बीच का रिश्ता, रोटी-बेटी का रिश्ता कहा जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कम से कम तीन बार नेपाल के दौरे पर जा चुके हैं. वर्ष 2014 में पहली बार जब वो प्रधानमंत्री बने थे, तो जिन देशों में वो सबसे पहले गए, उनमें नेपाल भी शामिल था. तब 17 वर्षों के बाद भारत का कोई प्रधानमंत्री नेपाल के दौरे पर गया था.
लेकिन नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के व्यक्तिगत हितों और सत्ता में बने रहने की महत्वाकांक्षा ने आज नेपाल और भारत के बीच दीवार खड़ी करने की कोशिश की है. भारत ने तो नेपाल के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा, लेकिन ओली ने नेपाल को भारत का दुश्मन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अब ओली की कुर्सी रहे या ना रहे, बड़ा सवाल ये है कि भारत से जो दूरियां ओली ने बना दी हैं, वो अब कैसे खत्म होंगी.