DNA ANALYSIS: मीडिया की टूटती मर्यादाएं, TRP के लालच में कब तक लांघेंगे 'लक्ष्मण रेखा'?
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DNA ANALYSIS: मीडिया की टूटती मर्यादाएं, TRP के लालच में कब तक लांघेंगे 'लक्ष्मण रेखा'?

मीडिया खबर के नाम पर आपको नौटंकी दिखा रहा है और ये नौटंकी ही आपके मनोरंजन में बदल गई है. इसलिए सवाल आपसे ही है कि आप ये नौटंकी देखकर अपना मनोरंजन करना चाहते हैं या फिर सच्ची खबरें देखना चाहते हैं?

DNA ANALYSIS: मीडिया की टूटती मर्यादाएं, TRP के लालच में कब तक लांघेंगे 'लक्ष्मण रेखा'?

नई दिल्ली: 1970 के दशक में एक मशहूर फिल्म आई थी, जिसका नाम था सफर. इस फिल्म में एक गाना था जिसके बोल हैं, जो तुम को हो पसंद वही बात कहेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे...आज मीडिया का भी यही हाल हो गया है. इसलिए आज हम ये सवाल लेकर आए हैं कि क्या भारत के लोग भी फरमाइशी खबरों का चित्रहार देखना चाहते हैं ? क्या भारत के लोग भी अब न्यूज़ चैनलों पर न्यूज़ की बजाय नौटंकी देखकर अपना मनोरंजन करना चाहते हैं ? न्यूज़ चैनलों पर इन दोनों जो दिखाया जा रहा है उस पर पूरे देश में बहस हो रही है. हमें भी कई लोगों ने ये लिखा है कि हमें इस पर बात करनी चाहिए. इसलिए आज हम न्यूज़ में हो रही नौटंकी वाली इस मिलावट का आत्म विश्लेषण करेंगे. 

सत्य में फेक न्यूज की मिलावट
आज सुशांत सिंह राजपूत केस और हाथरस हत्याकांड दो ऐसी बड़ी खबरें हैं जिनमें टीआरपी के नाम पर सत्य में फेक न्यूज की मिलावट होने लगी है, पत्रकारिता के नाम पर आम लोगों का मनोरंजन करने की होड़ मच गई और न्याय और सत्य इस फरमाइशी रंगमंच के पर्दे के पीछे चले गए और देश के लोग चुपचाप ये होते हुए देखते रहे.

कहते हैं, कलम यानी पत्रकारिता की ताकत, तलवार की ताकत से कई गुना ज्यादा होती है. लेकिन आज के दौर की समस्या ये है कि कलम से सत्य लिखने वालों की संख्या बहुत कम हो चुकी है, जबकि हाथ में माइक और कैमरा लेकर न्यूज़ की नाट्यशाला में करतब दिखाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. ऐसे में जब खबरों का अस्तित्व सिर्फ टीआरपी और फेक न्यूज के इर्द गिर्द सिमटकर रह जाता है तो लोकतंत्र की नींव कमजोर होने लगती है.

भारत का लोकतंत्र 4 स्तंभों पर टिका है...
भारत का लोकतंत्र जिन 4 स्तंभों पर टिका है उनकी नींव भी लगातार हिल रही है. ये चार स्तंभ हैं, विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका और मीडिया.

विधायिका यानी जो नेता हमारा और आपका प्रतिनिधित्व करते हैं वो अपने व्यवहार से लोकतंत्र के पहले स्तंभ को बहुत पहले ही खंडित कर चुके हैं. जिस कार्यपालिका पर जनता की सेवा की जिम्मेदारी है उसकी भूमिका पर भी पिछले कुछ वर्षों से लगातार सवाल उठ रहे हैं. और ये स्तंभ भी जर्जर होने लगा है. लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी पत्रकारिता में अब फेक न्यूज़ की मिलावट हो चुकी है और इसकी नींव भी बहुत कमजोर स्थिति में है. कुल मिलाकर भारत का लोकतंत्र इस समय सिर्फ एक स्तंभ पर टिका है जिसे हम न्यायपालिका कहते हैं. लेकिन यहां भी झटके लगने की शुरुआत हो चुकी है और इसकी स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. हालांकि सबसे ज्यादा संकट पत्रकारिता के स्तंभ के कमजोर होने से खड़ा हुआ है. क्योंकि बाकी के तीन स्तंभों पर नजर रखने की जिम्मेदारी पत्रकारिता की होती है और अगर ये स्तंभ टूटा तो बाकी की तीनों व्यवस्थाओं के निरंकुश होने का खतरा बहुत बढ़ जाएगा. आज हम इसी खतरे का विश्लेषण कर रहे हैं.

झूठ का कारोबार
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में पटना में जो एफआईआर दर्ज हुई. उसमें कहीं भी हत्या का जिक्र नहीं है, यहां तक कि खुद सुशांत का परिवार भी हत्या की बात नहीं कह रहा है. फिर भी मीडिया का एक हिस्सा हर कीमत पर इसे हत्या साबित करना चाहता है, जबकि अभी तक इस मामले की जांच आत्महत्या की तरफ ही इशारा कर रही है. दूसरी तरफ हाथरस की बेटी के मामले में किसी भी मेडिकल रिपोर्ट में रेप की पुष्टि नहीं हुई लेकिन यहां भी मीडिया का एक हिस्सा इसे किसी भी कीमत पर गैंगरेप साबित करना चाहता है. हालांकि इस मामले में जब लड़की ने बयान बदला तो पुलिस ने भी एफआईआर में रेप की धारा को जोड़ दिया था. लेकिन अभी तक की जांच से रेप की बात साबित नहीं हो पाई है.

तथ्यों को तिलांजलि देकर, झूठ का ये कारोबार सिर्फ टीआरपी के लिए हो रहा है. समस्या ये हो गई है कि अगर किसी मामले पर कोई कुछ बोलता है तो मीडिया उसे उसी के खिलाफ इस्तेमाल करने लगता है और अगर कोई कुछ नहीं बोलता तो उसकी खामोशी को भी उसी के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है. इस देश में पहले लोग खाने पीने की चीजों में मिलावट की शिकायत करते थे. लेकिन अब लोगों की रगों में असत्य का वायरस पहुंचाया जा रहा है और कोई भी इस मिलावट शिकायत नहीं कर रहा. मीडिया में ये बदलाव देश के भविष्य के लिए खतरनाक है.

सुशांत सिंह राजपूत मामले की सच्चाई
हाथरस की तरह ही सुशांत सिंह राजपूत मामले की सच्चाई भी कुछ और ही निकल कर आ रही है. सुशांत सिंह राजपूत की मौत के कारणों की जांच के लिए एम्स के डॉक्टरों का एक मेडिकल बोर्ड बनाया गया था. कुछ चैनलों पर खबर चल रही थी कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की है. कुछ चैनल कह रहे हैं कि सुशांत की हत्या हुई है. इस पर एम्स के मेडिकल बोर्ड ने सफाई दी है.

- मेडिकल बोर्ड ने कहा है कि हमने अपनी जांच सीबीआई को सौंप दी है.

- सीबीआई ने भी एक बयान जारी करके कहा है कि वो इस मामले की अभी हर एंगल से जांच कर रही है.

सारी लड़ाई आधे अधूरे बयानों पर
एम्स और सीबीआई को आज इस मामले में इसलिए सफाई देनी पड़ी क्योंकि चैनलों की टीआरपी की लड़ाई में ये दोनों संस्थाएं अब फंस चुकी हैं. अधिकारी अब इतना डर गए हैं कि अगर वो अनौपचारिक तौर पर किसी पत्रकार से कोई बात करते हैं तो उनकी बातों को भी बिना उनकी इजाजत के रिकॉर्ड कर लिया जाता है और ये लोग चुप रहते हैं तो इन पर मिलीभगत के आरोप लगा दिए जाते हैं.

हैरानी की बात ये है कि एम्स की रिपोर्ट में क्या कहा गया है इसकी औपचारिक जानकारी अभी मीडिया में जारी नहीं की गई है. ये सारी लड़ाई आधे अधूरे बयानों और सूत्रों के दम पर लड़ी जा रही है और कोई भी सत्य के बाहर आने का इंतजार करने के लिए तैयार नहीं है.

अब आपको ये सोचना चाहिए कि मीडिया की इस विश्वसनीयता पर ये संकट आया क्यों है. वैसे तो हमें इसका विश्लेषण करने की जरूरत नहीं है क्योंकि अगर आप ध्यान से न्यूज़ चैनलों को देखेंगे तो सारी बात आपको खुद समझ आ जाएगी. फिर भी मीडिया की विश्ववसनीयता में आई इस कमी को आप इन दोनों बड़ी खबरों की पृष्ठभूमि में समझ सकते हैं.

खबर के नाम पर नौटंकी क्यों?
पहली बात ये है कि मीडिया खबर के नाम पर आपको नौटंकी दिखा रहा है और ये नौटंकी ही आपके मनोरंजन में बदल गई है. इसलिए सवाल आपसे ही है कि आप ये नौटंकी देखकर अपना मनोरंजन करना चाहते हैं या फिर सच्ची खबरें देखना चाहते हैं. भारत में इस समय 400 न्यूज़ चैनल हैं और इसलिए हर सच के सैकड़ों संस्करण आपके सामने रखे जा रहे हैं, ये आप पर है कि आपको इनमें से सच का कौन सा संस्करण देखना है. जिसे जो सच सूट करता है वो वही सच आपके सामने रख देता है आपके आंख और कान भी उसी सच तो देखना और सुनना चाहते हैं जो आपको पसंद है, आपकी आंखों और कानों के रास्ते संक्रमित सत्य का ये वायरस आपकी नसों में पहुंचाया जा रहा है और ये महामारी कोरोना से भी खतरनाक बन चुकी है. इसलिए इस समय पूरी दुनिया को कोविड 19 की वैक्सीन के साथ साथ सत्य की वैक्सीन की भी जरूरत है. लेकिन इन सबके बीच आपको ये भी नहीं भूलना चाहिए कि सच का कोई पक्ष नहीं होता और सच निष्पक्ष होता है और कोई भी इसे चाहकर भी ज्यादा दिनों तक नहीं दबा सकता.

दूसरी बात ये है कि मीडिया में इन दिनों आपको खबरों का फरमाइशी चित्रहार दिखाया जा रहा है. इस चित्रहार को हर हफ्ते आने वाली टीआरपी देखकर तैयार किया जाता है और ये टीआरपी इस बात पर निर्भर करती है कि एक दर्शक के तौर पर आप क्या देखना पसंद कर रहे हैं. आप ऐसी खबरों की फरमाइश बंद कर देंगे तो ये फरमाइशी चित्रहार भी अपने आप बंद हो जाएगा.

तीसरी बात ये है कि टीआरपी नहीं बल्कि विश्वसनीयता को सफलता का पैमाना बनाना चाहिए, असत्य और मनोरंजन भरी नौटंकी दम पर हासिल की गई टीआरपी और सच्ची खबरों के दम पर हासिल की गई विश्नसनीयता की तुलना नहीं की जा सकती. विश्नसनीयता का कोई विकल्प नहीं होता और ये बात दर्शकों को ही नहीं, बल्कि मीडिया को भी नहीं भूलनी चाहिए. 

चौथी बात ये है कुछ लोग हर खबर को सिर्फ प्रोपेगेंडा का आधार बना लेते हैं. जब सीबीआई का फैसला इन्हें पसंद नहीं आता, तो ये कहते हैं कि सीबीआई बिकी हुई है, जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला इन्हें पसंद नहीं आता तो ये कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट बिक गया है. जब नेता चुनाव हार जाते हैं तो ये ऐसे ही आरोप चुनाव आयोग और वोटिंग मशीनों पर लगाने लगते हैं. यानी जब इन्हें सच सूट नही करता तो ये उस सत्य को ही झूठा साबित करने लगते हैं.

इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में बदल गए हैं न्यूज़ चैनल
ज़ी न्यूज़ की शुरुआत 26 वर्ष पहले हुई थी. ज़ी न्यूज़ देश का पहला प्राइवेट न्यूज़ चैनल है.  मैंने भी वो दौर देखा है जब बड़े बड़े नेता न्यूज़ चैनलों पर आने के लिए उत्सुक रहते थे. ये नेता अपने घरों पर पत्रकारों के आने का इंतजार करते थे, ये नेता न्यूज़ चैनलों के स्टूडियोज में आने से कभी मना नहीं करते थे. लेकिन अब न्यूज़ चैनल सवाल पूछने वाले मंच के बजाय किसी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में बदल गए हैं और फरमाइशी खबरें और फरमाइशी इंटरव्यूज दिखाने वाले मीडिया की गंभीरता पर सवाल उठने लगे हैं.

दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश में मीडिया की शक्ति
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने क्वारंटीन तोड़कर रविवार को एक चुनावी रोड शो किया है. 3 दिन पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने कोरोना पॉजिटिव होने की जानकारी दी थी. इस खबर का असर वहां होने वाले राष्ट्रपति चुनाव पर भी पड़ सकता है. पिछले कुछ दिनों से ट्रंप की टीम लगातार उनकी तस्वीरें और वीडियो जारी कर रही है. ये संदेश देने की कोशिश है कि ट्रंप पर कोरोना संक्रमण का कोई खास असर नहीं हुआ है. 

ट्रंप का स्वास्थ्य ठीक है और अस्पताल में भी वो अमेरिका के लोगों के लिए लगातार काम कर रहे हैं. इसे आप ट्रंप की टीम का पीआर चैलेंज भी कह सकते हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका मीडिया की है. जिसमें मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया दोनों शामिल हैं. ट्रंप जैसे दुनिया के बड़े नेता भी जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए मीडिया पर आश्रित हैं. यानी दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश में भी मीडिया की शक्ति बहुत ज्यादा है.

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