Trending Photos
Podcast
नई दिल्ली: डीएनए में अब हम बात 1962 के दौर की, ये वो साल था जिसकी शुरुआत से ही चीन (China) ने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश (Arunachal Pradesh) की सीमा पर आक्रमक रुख दिखाना शुरू कर दिया था. उस समय की जवाहर लाल नेहरू सरकार हिंदी-चीनी भाई भाई के नशे में डूबी हुई थी. लेकिन ये नशा 20 अक्टूबर के दिन सुबह 5 बजे तब चूर चूर हो गया. जब चीन ने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर एक साथ हमला कर दिया.
20 अक्टूबर से 21 नवंबर 1962 तक चले इस युद्ध में भारत को हार मिली, भारत के सवा तीन हजार सैनिक शहीद हो गए. चीन ने भारत की करीब 43 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर तब कब्जा कर लिया. आज भी इसके एक बड़े हिस्से पर उसका कब्जा है. ये जमीन आकार में स्विटजरलैंड के क्षेत्रफल के बराबर है. साल 1962 की हार आज भी भारत की आत्मा पर एक बोझ है. असल में ये हार भारत की सेना की नहीं बल्कि भारत की तत्कालीन सरकार की हार थी.
साल 1962 में सितंबर और अक्टूबर के महीनों में चीन, भारत पर हमले की तैयारी कर रहा था. 8 सितंबर 1962 को तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू, कॉमनवेल्थ देशों के एक सम्मेलन में हिस्सा लेने देश के बाहर चले गए. वो 2 अक्टूबर को भारत लौटे और फिर 12 अक्टूबर को श्रीलंका चले गए और वहां से 16 अक्टूबर को यानी युद्ध शुरू होने से सिर्फ चार दिन पहले भारत वापस आए. उसी दौरान तत्कालीन रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन (VK Krishna Menon) भी 17 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की महासभा (UNGC) में हिस्सा लेने न्यूयॉर्क चले गए थे. वो भी युद्ध शुरू होने से 20 दिन पहले यानी 30 सितंबर 1962 को भारत वापस लौटे.
यहां तक कि तब भारतीय सेना के उस समय के चीफ ऑफ जनरल स्टाफ, लेफ्टिनेंट जनरल बृज मोहन कौल (Chief of General Staff, Lieutenant General Brij Mohan Kaul) भी कश्मीर में छुट्टियां मना रहे थे. वो युद्ध शुरू होने से 18 दिन पहले यानी 2 अक्टूबर को लौटे थे. यानी उस समय की सरकार और ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को इस बात का एहसास तक नहीं था कि चीन, सीमा पर हो रही छोटी मोटी झड़प को एक बड़े युद्ध में बदलने की तैयारी कर रहा है.
लेकिन इन लोगों की सारी गलतफहमिया 20 अक्टूबर 1962 को दूर हो गई. चीन भारत पर हमला कर चुका था और उसका इरादा लद्दाख में Chip Chap (चिप चैप) वैली और अरुणाचल प्रदेश में Namka Chu (नामका चू) नदी से भी आगे के इलाकों पर कब्जा करने का था. 24 अक्टूबर 1962 तक चीन भारत में 15 किलोमीटर अंदर तक आ चुका था. युद्ध शुरू होने के दो से तीन दिन के अंदर ही चीन, अरुणाचल प्रदेश के तवांग तक पहुंच गया और उस पर कब्जा भी कर लिया. उधर लद्दाख में भी इतने ही समय में चीन ने गलवान, पैंगोग लेक (Pangong Lake) और चुशुल जैसे इलाकों पर कब्जा कर लिया था.
एक तरह से भारत ये युद्ध असल में चार साल पहले ही हार गया था. 1957 तक चीन एक तरह से अक्साई चिन (Aksai Chin) पर कब्जा कर चुका था. जो भारत के लद्दाख का हिस्सा है. 1957 में चीन ने Xinjiang (शिनजियांग) को तिब्बत से जोड़ने वाली एक ऐसी सड़क बना ली थी. जो Aksai Chin से होकर गुजरती थी. लेकिन 1962 के युद्ध के बाद Aksai Chin पर चीन का दावा और मजबूत हो गया और उसने आकार में 38 हजार वर्ग किलोमीटर बड़े और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस इलाके पर अधिकारिक रूप से कब्जा कर लिया. इस युद्ध के चार महीनों बाद पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले कश्मीर में आने वाली सक्षम वैली को चीन को सौंप दिया जो आकार में 5 हजार वर्ग किलोमीटर थी. इस तरह से कुल मिलाकर आज भी चीन का भारत (India) के 43 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके पर कब्जा है.
1962 में चीन ने लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश और असम पर हमला किया था. लेकिन 21 नवंबर 1962 को चीन ने युद्ध विराम का ऐलान किया और चीन की सेना अपनी पहले वाली जगह पर वापस लौट गई. उस समय भारत की सेना के पास संसाधनों की कमी थी. भारत के सैनिकों के पास ऊंचाई वाले दुर्गम इलाकों में इतना भीषण युद्ध लड़ने की ट्रेनिंग नहीं थी. सैनिकों के पास ना तो ठंड रोकने वाली वर्दियां थी, ना जूते थे. ना ही फौज के पास आधुनिक हथियार थे. फिर भी भारतीय सैनिक चीन के साथ पूरी ताकत से लड़े और कई मोर्चों से चीन को पीछे हटना पड़ा.
लेकिन 2021 का भारत 1962 वाला भारत नहीं है. आज भारत ने LAC पर मजबूत Infrastructure तैयार कर लिया है. और लद्दाख के साथ अरुणाचल प्रदेश में भी जबरदस्त तरीके से तैनाती बढ़ा दी है. ये 2021 का भारत है, जो चीन की किसी भी चाल से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है. पिछले डेढ़ साल में चीन ने कई बार भारत को धमकाया है कि वो 1962 को याद रखे. वाकई वो हार बेहद अपमानजनक थी लेकिन अब ब्रह्मपुत्र में बहुत पानी बहुत चुका है. 2021 में भारत की उन जगहों पर कैसी तैयारी है जहां चीन ने 1962 में आसानी से कब्जा कर लिया था.
ज़ी न्यूज़ की टीम अरुणाचल प्रदेश में लाइन ऑफ कंट्रोल पर गई ताकि जाना जा सके कि भारतीय सेना की तैनाती कितनी मजबूत है. अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपना दावा करता है लेकिन उसका सबसे बड़ा दावा तवांग शहर पर है. तवांग में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बौद्ध मठ है और इसकी दूरी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल से केवल 20 किमी है. एरियल डिस्टेंस यानि हवा से दूरी केवल 7 किमी, इसलिए यहां हवाई हमलों से सुरक्षा को चौकस किया गया है. भारत दुनिया का सबसे आधुनिक और ताक़तवर एयर डिफेंस सिस्टम एस400 खरीद रहा है. लेकिन लंबी सरहद पर छोटे हवाई हमलों से निबटने के लिए एल 70 जैसी एयर डिफेंस गन पर्याप्त है.
जैसे-जैसे एलएसी (LAC) की तरफ़ बढ़ते जाते हैं, ऊंचाई, खराब मौसम असर दिखाने लगते हैं. एलएसी की तवांग से दूरी केवल 20 किमी है लेकिन ऊंचाई का अंतर 5-6 हज़ार फीट है और यहां की बरसात और बर्फबारी इसे और मुश्किल बनाती है. कोहरा बहुत घना होता है और अक्सर विज़िबिलिटी बहुत कम होती है. 1962 में ये सारी दूरियां पैदल तय की जाती थी और सामान ले जाने के लिए ज्यादातर खच्चर काम में आते थे. आज तो सड़क आपको सीधा एलएसी तक पहुंचाती है. बुमला के पास ही सूबेदार जोगिंदर सिंह मेमोरियल है जिन्होंने 23 अक्टूबर 1962 को 20 सैनिकों के साथ सैकड़ों चीनी सैनिकों के हमले को रोका था.
चीन ने 20 अक्टूबर को नामका चू से हमला शुरू किया था औऱ आसानी से आगे बढ़ता गया. कम तादाद, बिना तैयारी, बिना गोलाबारूद और बिना रसद के साथ भारतीय सैनिकों ने अपने से कई गुना बड़ी चीनी सेना से संगीनों और चाकुओं तक से लड़ाई लड़ी. बुमला पर 23 अक्टूबर को हमला शुरू हुआ और उसके बाद तो चीनी सेना तवांग, जंग, सेला होते हुए कुछ ही दिनों में बोमदिला तक पहुंच गई. ये भारतीय सैनिकों की नहीं भारतीय नेतृत्व की हार थी.
5 अक्टूबर 1961 को भारत सरकार ने चीनी घुसपैठ को रोकने के लिए 60 चौकियां बनाईं जो चीनी सैनिकों को रोकने के लिए थीं. इसे फॉरवर्ड पॉलिसी का नाम दिया गया और पॉलिसी के तौर पर यह अच्छी भी थी. लेकिन ये चौकियां बहुत कमज़ोर थीं और चीनी सेना के पहले हमले में ही ढह गईं.
आज एलएसी पर किसी भी चीनी हमले को रोकने के लिए बहुत मज़बूत मोर्चाबंदी है. ये इंटीग्रेटेड डिफेंडेड लोकेलिटीज़ हर उस जगह पर हैं जहां से चीन का हमला होने की आशंका है. हमलों का सामना केवल बंकर से ही नहीं किया जाता है. एलएसी पर अगर दुश्मन आगे बढ़ता है तो उसके हर हमले को रोकने की तैयारी है. चाहे वो टैंक हों या बड़ी तादाद में पैदल सैनिक.
एलएसी के पास सुरक्षित ठिकानों पर भारत की वो तोप भी तैनात है जिसने अपने आपको कारगिल की लड़ाई में साबित किया है. यहां भी बोफोर्स की तैनाती है और बोफोर्स को पहाड़ों की लड़ाई का सबसे कारगर हथियार माना जाता है. यहां बोफोर्स में कुछ नए उपकरण भी जोड़े गए हैं ताकि दुश्मन पर बहुत तेज़ी से भारी गोलाबारी की जा सके. बोफोर्स को सड़क के रास्ते लाया जाता है लेकिन अब भारतीय सेना में हेलीकॉप्टर के जरिए ले जाई जाने वाली अल्ट्रा लाइट होविट्जर भी शामिल हो चुकी है और यहां एलएसी पर उनकी तैनाती भी है.