DNA on Supreme Court Parliament: सुप्रीम कोर्ट या संसद..कौन ज्यादा ताकतवर है? किसके पास ज्यादा अधिकार हैं. यह सवाल आपके जेहन में अक्सर आता होगा. आखिर इसमें सच्चाई क्या है.
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DNA Analysis on Supreme Court Parliament Dispute: सुप्रीम कोर्ट और संसद में कौन सर्वोच्च है? इस बहस की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट में वक्फ कानून पर सुनवाई होने की वजह से हुई है. बार-बार ये सवाल उठाया जा रहा है कि कोर्ट को वक्फ कानून की सुनवाई करनी चाहिए या नहीं. बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट में हो रही सुनवाई पर सवाल खड़े किए हैं.
'अपनी सीमा से बाहर जा रहा सुप्रीम कोर्ट'
निशिकांत दुबे ने कहा कि इस देश का कानून भारत की संसद बनाती है... उस संसद को आप डिक्टेट करेंगे? इस देश में धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए केवल और केवल सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है. सुप्रीम कोर्ट अपनी सीमा से बाहर जा रहा है. वहीं कोर्ट में पहली बार वक्फ कानून पर सुनवाई शुरू होने से पहले अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे विश्वास है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामले में दखल नहीं देगा. संविधान में शक्तियों का विभाजन अच्छी तरह से परिभाषित है. हमें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए.
उससे पहले 17 अप्रैल को उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा था कि जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं. उपराष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 142 को न्यूक्लियर मिसाइल तक कह दिया था. तो ऐसे में आपके मन में यह सवाल जरूर होगा कि कोर्ट और संसद में बड़ा कौन है.
तीनों अंगों में बांटी गई है ताकत
भारतीय संविधान में देश की सारी व्यवस्था को सही से चलाने के लिए शासन को तीनों अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच बांटा गया है. कार्यपालिका का मतलब राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-कैबिनेट-राज्यपाल-मुख्यमंत्री-मुखिया-सरपंच है. विधायिका का मतलब संसद, विधानसभा, विधानपरिषद, पंचायत है. न्यायपालिका का मतलब सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और सिविल कोर्ट जैसी न्यायिक संस्था हैं.
इसी संविधान में ये साफ-साफ कहा गया है कि देश का संविधान इन तीनों के ऊपर होगा यानी सर्वोच्च होगा. देश में कानून बनाने का अधिकार संसद को दिया गया है. कानून सही है या गलत इसकी जांच करने का अधिकार कोर्ट को दिया गया है और कानून को लागू कराने का अधिकार प्रशासन को दिया गया है.
दशकों से चला आ रहा विवाद
संविधान में ये उम्मीद की गई है कि देश के तीनों अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका मिलकर काम करेंगे. इनके बीच टकराव नहीं संतुलन होगा लेकिन कोर्ट और संसद के बीच विवाद का ये मामला दशकों से चला आ रहा है.
सबसे पहला विवाद 1967 में गोलकनाथ मामले में देखने को मिला था. इस मामले में कोर्ट ने महंत गोलकनाथ के जमीन को लेने के पंजाब सरकार के फैसले को गलत बताया था. इसके बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में 1971 में 24 वां संशोधन करके सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया.
संशोधन के जरिए बदले गए फैसले
1970 में आरसी. कूपर बनाम भारतीय संघ मामले में कोर्ट ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण मामले में केंद्र सरकार के खिलाफ फैसला दिया. इसे भी संसद में संशोधन के जरिए बदल दिया गया.
1970 में मदनराव सिंधिया बनाम भारत संघ में कोर्ट ने सरकार के खिलाफ फैसला दिया था. ये मामला प्रिवी पर्स से जुड़ा था. दरअसल आजादी के बाद से प्रिवी पर्स के जरिए राजाओं को कई अधिकार और पैसे दिए जाते थे. लेकिन इसे बाद में रद्द कर दिया गया. इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में संशोधन करके बदल दिया था.
राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे उस समय शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ संसद में बिल लाया गया था. इन मामलों को देखकर आप ये तो जान चुके हैं के कोर्ट और संसद का विवाद काफी पुराना है. 70 के दशक में इंदिरा गांधी सरकार और न्यायपालिका के बीच विवाद काफी हद तक आगे बढ़ चुका था.
जस्टिस शाह पर क्यों बरसीं इंदिरा?
इंदिरा गांधी अपने एक बयान में बार-बार कहती हैं, मिस्टर शाह. इंदिरा गांधी जिस मिस्टर शाह का जिक्र कर रही है वो कौन है . मिस्टर शाह देश के पूर्व चीफ जस्टिस जे सी शाह ((जस्टिस जयंतीलाल चोटीलाल शाह - Jayantilal Chhotalal Shah)) है . जयंतीलाल छोटेलाल शाह 17 दिसंबर 1970 से लेकर 21 जनवरी 1971 तक देश के चीफ जस्टिस थे.
मई 1977 में मोरारजी सरकार ने आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार के सत्ता के दुरुपयोग, कानून का उल्लंघन और अन्य ज्यादतियों के आरोपों की जांच करने के लिए एक कमीशन बनाया था. इस कमीशन का अध्यक्ष पूर्व मुख्य न्यायाधीश जयंतीलाल छोटेलाल शाह को बनाया था . इस कमीशन को शाह कमीशन भी कहा जाता है.
अब तक आप ये तो जान चुके हैं कि कोर्ट और संसद के बीच टकराव नई बात नहीं है. अब आपको हम ये बताते हैं कि दोनों के बीच विवाद मुद्दे क्या होते हैं . दरअसल अब तक कोर्ट औ संसद के बीच विवाद दो मुद्दों को लेकर होता रहा है. पहला है संविधान का मूल ढांचा और दूसरा है अनुच्छेद 142.
मूल ढांचे को नहीं बदल सकती संसद
1973 में केशवानंद भारती मामले में कोर्ट ने साफ-साफ कह दिया था कि संसद कानून तो बना सकती है लेकिन संविधान की मूल ढांचे को बदल नहीं सकती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आज तक ये साफ-साफ नहीं बताया है कि संविधान का मूल ढांचा क्या है. हालांकि अलग-अलग मामलों की सुनवाई के दौरान इसको परिभाषित किया गया है. इससे सिर्फ एक अंदाजा लगता है कि संविधान का मूल ढांचा क्या है. जैसे संविधान की सर्वोच्चता, मौलिक अधिकार जैसे मामले संविधान का मूल ढांचा है.
दूसरा, अनुच्छेद 142 जिसमें कहा गया है कि कोर्ट पूर्ण न्याय करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है चाहे वो किसी भी मामले में क्यों ना जुड़ा हो. दरअसल संविधान बनाते समय सभी बातों को संविधान में शामिल कर लिया गया था. लेकिन एक ताकत कोर्ट को अनुच्छेद 142 के जरिए दी गई. वह ये सोचकर दी गई थी अगर भविष्य में कोई नया मुद्दा आएगा तो कोर्ट अपने हिसाब से समझकर फैसला देगा.
इन मुद्दों पर अलग-अलग दिए फैसले
इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए कोर्ट ने - अयोध्या राम मंदिर मामला, - सहारा-सेबी केस, - शिवसेना-महाराष्ट्र सरकार विवाद, - दिल्ली और राज्यपाल का विवाद, हाईवे के किनारे शराब बिक्री पर रोक, तलाक से जुड़े में मामले में अलग-अलग फैसले दिए.
जब-जब देश में कोर्ट और संसद के बीच टकराव हुआ इसका असर कानून बनाने की प्रक्रिया पर हुआ है. ये विवाद ऐसे ही है, जैसे कि पहले मुर्गी आई या अंडा. कोर्ट के फैसलों को संसद में बदला जा सकता है और कोर्ट संसद के फैसलों की समीक्षा कर सकता है. इसीलिए ये नहीं कहा जा सकता कि कौन सर्वोच्च है. संविधान में दोनों के बीच एक बारीक लाइन खींची गई है और ये लाइन ही संतुलन है.