DNA ANALYSIS: आजादी के बाद मीडिया ने क्‍यों छिपाया ये सच?
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DNA ANALYSIS: आजादी के बाद मीडिया ने क्‍यों छिपाया ये सच?

एक देश के तौर पर अपनी आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझते रहे और उस समय मीडिया पर हमें रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी थी. लेकिन मीडिया तो सरकार से सम्मान लेने में व्यस्त था और वो मंत्रियों की लिस्ट बना रहा था.

DNA ANALYSIS: आजादी के बाद मीडिया ने क्‍यों छिपाया ये सच?

नई दिल्‍ली:  जब देश आजादी से गणतंत्र बनने तक का सफर तय कर रहा था. उस समय मीडिया की भूमिका किसी पथ-प्रदर्शक की तरह महत्वपूर्ण थी. लेकिन तब गोदी मीडिया और डिजाइनर पत्रकारों ने कमियां देश के सामने नहीं रखीं.  सरकार का सच जनता से छिपा लिया गया.  लेकिन भारत की फिल्मों ने समाज को सरकार के इस सच को बड़े पर्दे पर दिखाया और जैसे जैसे वक्त बदला वैसे वैसे फिल्मों की कथाएं, नायक और खलनायक भी बदल गए. 

फिल्‍मों ने दिखाया सच 

आजादी के बाद शुरुआती फिल्मों में साहूकार के कर्ज से परेशान किसानों की समस्या और बेबसी को बहुत संजीदगी से पर्दे पर दिखाया गया. आपको याद होगा कि आजादी के बाद जो फिल्में आती थीं, उनमें किसी जमींदार या साहूकार को ही खलनायक के रूप में दिखाया जाता था. 

इन फिल्मों में भारत के किसानों की दुर्दशा भी दिखाई गई. उस समय की फिल्मों का नायक एक किसान था और वो हमेशा गरीबी से ही जूझता रहता था. हमारे देश में किसान और उसका पूरा परिवार ब्याज, गरीबी और मेहनत के कभी न खत्म होने वाले चक्रव्यूह में फंसा रहता है. गणतंत्र बनने के बाद, पहले दशक में किसानों की इसी मजबूरी को चित्रित किया गया. आज भी देश में किसानों की गरीबी बड़ा मुद्दा है. 

समय बदला तो फिल्मों की पटकथाएं भी बदलने लग गई. वर्ष 1960 के दशक में डाकू देश की बड़ी समस्या थे, तो डाकुओं को विषय बना कर फिल्में भी आने लगीं, जिनमें अमीरों को लूट कर गरीबों में बांटने वाले डाकू नायक बन गए. 

जब 60 और 70 के दशक में भारत में औद्योगीकरण शुरू हुआ. तब फैक्ट्री के मालिकों को खलनायक के तौर पर देखा जाने लगा. उस दौर की फिल्मों में फैक्ट्री के मालिक और उद्योगपति ही विलेन हुआ करते थे. 

समाज और कानून से विद्रोह करने वाले नायक

फिर एक ऐसा दौर आया,  जब फिल्मों का नायक, समाज और कानून से विद्रोह करके भी अपना हक पा लेना चाहता था.  ये वो लोग थे जिन्होंने सरकार के सिस्टम से निराश होकर मुश्किलों को हल करने का अपना एक तरीका बना लिया था. 

भ्रष्टाचार को हमारी फिल्मों में खलनायक का दर्जा दिया गया है. 70 और 80 के दशक में फिल्मों का नायक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ता था. तब नायक की छवि एंग्री यंग मैन वाली हुआ करती थी. 

70 और 80 के दशक में लोगों के मन में भ्रष्ट नेताओं और पुलिस अधिकारियों के प्रति जबरदस्त गुस्सा था. उस समय भ्रष्टाचार के बगैर तरक्की करना लगभग नामुमकिन लगता था. लेकिन तब नायक ही भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को सबक सिखाता था और फिल्मी पर्दे पर ही सही, लेकिन ऐसा देखकर लोगों को अच्छा लगता था.

समाज के आम आदमी की तरह फिल्मों का हीरो भी अक्सर गरीब और सताया हुआ ही रहा. वो देश के रुके हुए सिस्टम से लड़ता था, ताकि खुद के लिए और दूसरों के लिए एक जगह बना सके. 

71 सालों का सबसे सजीव चित्रण

इसके बाद अंडरवर्ल्ड और अपराध का दौर आया, जिसमें माफिया डॉन जैसे खलनायक दिखाए जाने लगे.  वर्ष 1990 के दशक में मुंबई देश की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र था और अंडरवर्ल्‍ड की सच्चाई भी फिल्मों ने ही आपको बताई.  वर्ष 2000 के बाद का भारत आर्थिक प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ रहा था. ये वो समय था,  जब भारत की आर्थिक समृद्धि दिखाने वाली फिल्में आईं.

हालांकि इसके बाद भी हम एक देश के तौर पर अपनी आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझते रहे और उस समय मीडिया पर हमें रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी थी. लेकिन मीडिया तो सरकार से सम्मान लेने में व्यस्त था और वो मंत्रियों की लिस्ट बना रहा था. लेकिन फिल्में अपना काम करती रहीं. कुल मिलाकर हमारे समाज का 71 सालों का सबसे सजीव चित्रण मीडिया ने नहीं किया, बल्कि हमारी फिल्मों ने किया है. 

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