DNA ANALYSIS: म्यूजियम से मस्जिद बने टर्की के हाया सोफिया की कहानी
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DNA ANALYSIS: म्यूजियम से मस्जिद बने टर्की के हाया सोफिया की कहानी

कहा जाता है कि इसे छठी शताब्दी में एक चर्च के तौर पर बनाया गया था और 14वीं शताब्दी में जब टर्की में Ottoman शासन आया तो इसे एक मस्जिद में बदल दिया गया. हालांकि तब भी इस चर्च को तोड़ा नहीं गया, क्योंकि इसकी कलाकृतियां बहुत शानदार थीं और इसे तोड़ने का फैसला किसी के लिए आसान नहीं था.

DNA ANALYSIS: म्यूजियम से मस्जिद बने टर्की के हाया सोफिया की कहानी

नई दिल्ली: टर्की के शहर इस्तांबुल में एक बहुत मशहूर और प्राचीन म्यूजियम हुआ करता था जिसका नाम है हाया सोफिया (Hagia Sophia). लेकिन अब टर्की की सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक मस्जिद में बदलने की इजाजत दे दी है. इस म्यूजियम को मस्जिद में बदलने का आदेश टर्की के राष्ट्रपति रेसेप एर्दोगन (Recep Tayyip Erdogan) ने दिया था. जिस पर अब वहां की सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है. हाया सोफिया में 24 जुलाई को जुमे की नमाज पढ़ी जाएगी. मंगलवार को टर्की के राष्ट्रपति हाया सोफिया पहुंचे और तैयारियों का निरीक्षण किया. लेकिन ये खबर इतनी महत्वपूर्ण क्यों है इसे समझने के लिए आपको टर्की और हाया सोफिया के इतिहास को संक्षेप में समझना होगा.

सबसे पहले बात हाया सोफिया की. कहा जाता है कि इसे छठी शताब्दी में एक चर्च के तौर पर बनाया गया था और 14वीं शताब्दी में जब टर्की में Ottoman शासन आया तो इसे एक मस्जिद में बदल दिया गया. हालांकि तब भी इस चर्च को तोड़ा नहीं गया, क्योंकि इसकी कलाकृतियां बहुत शानदार थीं और इसे तोड़ने का फैसला किसी के लिए आसान नहीं था.

लेकिन 1922 में Ottoman साम्राज्य का अंत होने के बाद इसे एक म्यूजियम में बदल दिया गया और ये म्यूजियम टर्की की धर्म निरपेक्षता का सबसे बड़ा प्रतीक बन गया. लेकिन अब एक बार फिर इसे एक मस्जिद में बदल दिया गया है. हाया सोफिया को UNESCO की वर्ल्ड हेरिटेज साइट का दर्जा भी हासिल है और इसे मस्जिद में बदलने के फैसले का विरोध पूरी दुनिया में हो रहा है. UNESCO और अमेरिका के अलावा रूस, यूरोपियन यूनियन और और वेटिकन ने भी इस फैसले का विरोध किया है. 

ईसाइयों के सबसे बड़े धर्म गुरु पोप फ्रांसिस ने भी इस फैसले की आलोचना की है. उन्होंने कहा कि उन्हें इसका दुख है और लोगों को उनके लिए प्रार्थना करनी चाहिए और खाना खाकर जाना चाहिए.

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अब सवाल ये है कि खुद को सेक्युलर कहने वाले टर्की में आखिर ऐसा फैसला क्यों लिया गया. इसके लिए आपको संक्षेप में टर्की के इतिहास को समझना होगा.

टर्की का इतिहास
टर्की एक मुस्लिम बाहुल्य देश है. जहां करीब 98 प्रतिशत जनता इस्लाम को मानती है और टर्की की गिनती उन गिने चुने मुस्लिम देशों में होती है जिन्हें सबसे ज्यादा धर्मनिरपेक्ष यानी सेक्युलर माना जाता है. वर्ष 1299 से 1922 तक टर्की में Ottoman साम्राज्य का शासन था और 1923 में टर्की को इस साम्राज्य से आजादी मिली थी. इसका श्रेय टर्की के पूर्व तानाशाह को जाता है जिनका नाम है जनरल मुस्तफा कमाल Ata Turk जिसे आप हिंदी में आप अता तुर्क भी कहते हैं. अता तुर्क एक तानाशाह थे. लेकिन वो बहुत प्रगतिशील थे और टर्की को एक सेक्युलर देश बनाना चाहते थे जो फ्रांस के सेक्युलरिज्म के सिद्धांत पर आधारित था. जिसके तहत धर्म और सरकार को एक दूसरे से अलग रखा जाता है.

वर्ष 1924 में टर्की का संविधान बना था और 1928 में इस संविधान में बदलाव किया गया और इस्लाम से स्टेट रिलीजन का दर्जा वापस ले लिया गया. संविधान के तहत ही जनरल अता तुर्क ने टर्की की सेना को देश में हमेशा सेक्युलरिज्म कायम रखने की जिम्मेदारी दी थी. आधुनिक टर्की के संस्थापक अपनी सेक्युलर छवि से इतना प्यार करते थे कि उन्होंने सार्वजनिक जीवन में धार्मिक प्रतीक चिन्हों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी. हालांकि कहा जाता है कि टर्की की जनता हमेशा से ये चाहती थी कि उन्हें अपनी धार्मिक पहचान का प्रदर्शन करने का मौका मिले. ठीक वैसे ही जैसे ये हक भारत और अमेरिका जैसे देशों में रहने वाले लोगों हासिल है.

टर्की के लोगों की इसी भावना का फायदा वहां के राष्ट्रपति एर्दोगन ने उठाया. 2014 में राष्ट्रपति बनने से पहले एर्दोगन तीन बार टर्की के प्रधानमंत्री रह चुके थे और तब तक टर्की में राष्ट्रपति को ज्यादा शक्तियां हासिल नहीं थी. लेकिन 2014 में राष्ट्रपति बनने के बाद से ही उन्होंने संविधान में बदलाव के जरिए राष्ट्रपति पद को शक्तिशाली बना दिया और वो धीरे-धीरे टर्की को एक सेक्युलर देश से कट्टर इस्लामिक देश बनाने में जुट गए. अब क्योंकि टर्की का सेक्युलरिज्म बचाने की जिम्मेदारी वहां की सेना की है तो वर्ष 2016 में सेना ने एर्दोगन का तख्ता पलट करने की कोशिश की. लेकिन सेना इस काम में विफल हो गई. क्योंकि सोशल मीडिया का सहारा लेकर एर्दोगन ने अपने समर्थकों को सेना के खिलाफ सड़कों पर उतार दिया.

तख्तापलट की इस कोशिश से सबक लेकर एर्दोगन ने अपनी ताकत बढ़ाई और सेना की ताकत को कमजोर कर दिया. लेकिन अब टर्की की अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है और बेरोजगारी भी सबसे ऊंचे स्तर पर है. लेकिन इसके बावजूद टर्की में अब वहां के राष्ट्रपति पर सवाल उठाना आसान नहीं है. क्योंकि ऐसा लगता है कि वो धीरे- धीरे तानाशाही की तरफ बढ़ रहे हैं. पूरी दुनिया में जिस देश में सबसे ज्यादा पत्रकार जेल में बंद हैं. वो टर्की ही है. यहां तक कि टर्की में अब सरकार के खिलाफ बोलने वालों को आसानी से जेल में डाल दिया जाता है और लोगों की आवाज को दबाने के लिए एर्दोगन अपने देश को एक कट्टर इस्लामिक देश में बदल रहे हैं यानी धर्म को राजनीति का औजार बना रहे हैं. 

टर्की के इसी इस्लामीकरण का नतीजा है कि कभी यूरोप और अमेरिका के करीब रहा ये देश आज पाकिस्तान जैसे कट्टर देश के साथ खड़ा है. टर्की के राष्ट्रपति भले ही आज भी अपने देश को सेक्युलर कहते हों लेकिन वो अब ऐसे मुद्दों पर अपनी राय खुलकर रखते हैं जो उनके देश के मुसलमानों को एकजुट करती है. एर्दोगन कई बार भारत की धर्म निरपेक्षता पर सवाल उठा चुके हैं . इस साल फरवरी में जब दिल्ली में दंगे हुए थे तो टर्की के राष्ट्रपति ने भारत को एक ऐसा देश बताया था जहां बड़े पैमाने पर मुसलमानों का नरसंहार होता है और ये भी कहा था कि भारत विश्व शांति के लिए खतरा है. फरवरी में भी एर्दोगन ने पाकिस्तान का दौरा किया था और भारत पर कश्मीरियों को प्रताड़ित करने का आरोप लगाया था.

भारत ने टर्की के इन बयानों का जोरदार विरोध किया था. लेकिन इस बार भारत ने अब तक हाया सोफिया को मस्जिद बनाए जाने के विरोध में कोई मजबूत बयान नहीं दिया है. इसलिए भारत को ये चुप्पी तोड़कर टर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन का विरोध करना चाहिए और उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब देना चाहिए.

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