कारगिल विजय दिवस EXCLUSIVE: 'ऑपरेशन विजय' में पहली जीत की कहानी, कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना की जुबानी
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कारगिल विजय दिवस EXCLUSIVE: 'ऑपरेशन विजय' में पहली जीत की कहानी, कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना की जुबानी

हम द्रास सेक्‍टर में दाखिल ही हुए थे, तभी मेरी जीप के बेहद करीब 4 हथ गोले आकर गिरे. आतंकियों के इस हमले ने हमे हैरानी में डाल दिया था.

बोफोर्स के गोले के गिरते ही पाक सेना नीचे छुकने को मजबूर हो जाती थी. इसी दौरान हम पहाड़ी पर चढ़ाई करते थे. इसी तरह, हम दुश्‍मनों तक पहुंचने में कामयाब रहे.

नई दिल्‍ली: कारगिल युद्ध में भारतीय सेना को जीत की पहली दस्‍तक तोलोलिंग की चोटियों में तिरंगा लहाने के बाद मिली थी. कारगिल की युद्ध में तोलोलिंग पर जीत हासिल करना भारतीय सेना के लिए कई तरह से मायने रखती थी. इसी जीत के जरिये जम्‍मू-कश्‍मीर से लेह-लद्दाख को जोड़ने वाले नेशनल हाई-वे को पाकिस्‍तान सेना के चंगुल से मुक्‍त कराया जा सका. जिसके बाद, सेना को भेजे जाने वाली रसद और हथियारों की आपूर्ति बहाल हो सकी. इतना ही नहीं, तोलोलिंग की जीत ने कारगिल की मुश्किल हो चली लड़ाई को एक नई दिशा दी. जिसके बाद भारतीय सेना एक के बाद एक जीत हासिल करने में कामयाब रही. 

  1. आतंकियों के भेष में युद्ध लड़ रही थी पाकिस्‍तानी सेना
  2.  2 दिन चली लड़ाई के बाद तोलोलिंग पर मिली जीत
  3. 13 जून की सुबह 4 बजे तोलोलिंग में फहराया गया तिंरगा

कारगिल युद्ध में तोलोलिंग पर जीत हासिल करना भारतीय सेना के लिए आसान चुनौती नहीं थी. इस जीत को हासिल करने के लिए भारतीय सेना के कई जाबांजों को अपनी शहादत देनी पड़ी थी. तोलोलिंग की लड़ाई में भारतीय सेना के सामने मौजूद चुनौतियों के बारे में जानने के लिए हमने कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना से बात की. कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना सेना के उन अधिकारियों में एक हैं, जिनके साहस और युद्ध कौशल की वजह से तोलोलिंग में भारतीय सेना को जीत हासिल हो सकी. आइए, तोलोलिंग के युद्ध में भारतीय सेना की जीत की पूरी कहानी, हम आपको कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना की जुबानी बताते हैं. 

कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना के अनुसार, उन दिनों हमारी रेजीमेंट 2 राजपूताना राइफल्‍स पंजाब के फिरोजपुर में तैनात थी. शादी के ठीक बाद मैने फिरोजपुर में अपनी रेजीमेंट को ज्‍वाइन ही किया था, तभी हमें पंजाब से जम्‍मू-कश्‍मीर कूच करने का आदेश मिला. आदेश के मुताबिक, हमारी रेजीमेंट तंगमर्ग और गुलमर्ग के बीच के तैनात हो गई. मुझे अच्‍छी तरह से याद है कि उन दिनों हालात बेहद सामान्‍य थे. भारत के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री और पाकिस्‍तान सरकार के बीच शांतिवर्ता जारी थी. हमें दूर-दूर तक अंदेशा नहीं था कि कोई जंग भी हो सकती है. यहां तक कि आर्मी के युद्धाभ्‍यास के कार्यक्रमों में भी युद्ध की आशंका  की झलक नहीं दिखती थी. 

रातों रात कारगिल की तरफ कूच करने के हुए थे आदेश
कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना ने बताया कि "मेरे पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही हमें बोला गया कि कारगिल की तरफ कुछ घुसपैठियों ने पहाड़ियों पर कब्‍जा कर लिया है. घुसपैठियों के कब्‍जे से पहाड़ियों को आजाद कराने की जिम्‍मेदारी हमें सौंपते हुए कूच करने के आदेश जारी हो गए. आदेशानुसार, मैं अपनी कमांडो टीम को लेकर मंजिल की तरफ निकल पड़ा. तब तक हमें इस बात का बिल्‍कुल अंदेशा नहीं था कि हम किसी फुलफ्लेज वॉर में शामिल होने जा रहे हैं. तब तक हमें यही लग रहा था कि पहाड़ियों में मौजूद चंद आतंकियों को उनके अंजाम तक पहुंचाना है. अपने इसी अंदेशे के साथ मैं अपनी कमांडो टीम को लेकर द्रास सेक्‍टर की तरफ कूच कर गया.”

द्रास में दाखिल होते ही जीप के पास गिरे कई हथगोले 
कैप्‍टर अखिलेश सक्‍सेना ने बताया कि "हम द्रास सेक्‍टर में दाखिल ही हुए थे, तभी मेरी जीप के बेहद करीब 2-3 हथगोले आकर गिरे. आतंकियों के इस हमले ने हमें हैरानी में डाल दिया था. हम सोच रहे थे कि अभी-अभी द्रास में घुसे हैं और हम पर हमला हो गया. आतंकियों को हमारी लोकेशन की इतनी सटीक जानकारी कैसे मिल सकती है. इस हमले के बाद हमें बताया गया कि सड़क की दूसरी तरह दिख रही चोटी तक पाकिस्‍तानी आतंकी पहुंच चुके हैं. जहां से वह इस हाईवे से गुजरने वाले किसी भी वाहन को अपना निशाना बना सकते हैं. तब हमें अहसास हुआ कि दुश्‍मन ने सिर्फ हमारी सीमा पार नहीं की है, वह हमारे घर तक घुस आया था." 

केसरिया बाना बांधकर निकले दुश्‍मनों से जंग के लिए 
कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना ने बताया कि यूनिट पर पहुंचने के बाद हमें तोलोलिंग के बारे में बताया गया.  हमें जानकारी दी गई कि तोलोलिंग में मौजूद आतंकियों से मोर्चा में मिली दो असफलता और अपने साथियों की शहादत के बारे में पता चला. हमें बताया गया कि आतंकियों से मुठभेड़ में शहीद हुए मेजर विकास अधिकारी का शव अभी तक वापस नहीं आया है. हम फौजियों के लिए शहीद हुए सा‍थियों का शरीर अपनी जान से भी प्‍यारा होता है. शहीद के सम्‍मान में कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं. राजपूताना राइफल्‍स में केसरिया बाना बांधने की परंपरा है. केसरिया बाने का मतलब है कि या तो विजय या फिर शहादत. इसी जब्‍जे के साथ हमारी टीम का हर कमांडो आतंकियों से मेजर विकास अधिकारी की शहादत का बदला लेने के लिए निकल पड़े. 

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दुश्‍मनों ने गोलीबारी कर तबाह की सप्‍लाई लाइन
दुश्‍मनों से मोर्चा लेने के लिए हम तोलोलिंग की तरफ बढ़े ही थे, तभी दुश्‍मनों भारी गोलीबारीर कर हमारी सप्‍लाई लाइन को पूरी तरह से तबाह कर दिया. अब हमारे पास बहुत अधिक विकल्‍प नहीं थे. बावजूद इसके हमने आगे बढ़ने का फैसला किया. सबसे बड़ी मुसीबत थी कि हमें सीधी पहाड़ी में चढ़ाई करनी थी. दुश्‍मन पहाड़ी की चोटी पर बैठा था. वह हमारी गतिविधि को देख सकता था और हमें अपनी गोली का निशाना बना सकता था. दुश्‍मन की इस पोजीशन ने उसे हमसे 20 गुना ज्‍यादा ताकतवर बना दिया था. उधर से आने वाला एक पत्‍थर भी हमारी शहादत के लिए काफी था. इन सभी विपरीत परिस्थितियों के बीच भारतीय सेना ने अद्भुत साहस दिखाते हुए आगे बढ़ने का फैसला किया. 

हमले के तरीके से पता चली पाक सेना की मौजूदगी 
कैप्‍टन अखिलेश सक्‍सेना ने बताया कि हम इस तैयारी के साथ निकले थे कि आतंकियों के साथ एक मुठभेड़ होने वाली है. लिहाजा, हम सामान्‍य हथियार लेकर निकले थे. वहीं दुश्‍मनों की चाल थी कि वह तभी हमला करते थे जब भारतीय फौज उनकी पोस्‍ट के बिल्‍कुल करीब आ जाती थी. उन्‍हें पता था कि भारतीय सैनिक किन रास्‍तों से आएंगे, लिहाजा उन्‍होंने जगह-जगह पर लैंड माइन बिछा दिए थे. जब हमारी कमांडोज की टुकड़ी दुश्‍मनों के कुछ करीब पहुंची तो उन्‍होंने गोलियों की बौछार करना शुरू कर दी. इस गोलीबारी में हमारे कई साथियों को गोली लगी और कुछ शहीद हो गए. हमले के इस तरीके से हमें पता चला कि पहाड़ी पर आतंकी नहीं बल्कि पाकिस्‍तान सेना के ट्रेंड जवान है. 

दो दिन लगातार चली दुश्‍मनों से लड़ाई
पाकिस्‍तानी सेना के हमले को पढ़ने के बाद हमने अपनी रणनीति में बदलाव किया. हमने दिन की जगह रात में लड़ाई लड़ने का फैसला किया. हमने अपनी बोफोर्स टीम को पाक सेना की लोकेशन भेजकर उन पर फायरिंग के कहा. बोफोर्स के गोले के गिरते ही पाक सेना नीचे छुकने को मजबूर हो जाती थी. इसी दौरान हम पहाड़ी पर चढ़ाई करते थे. इसी तरह, हम दुश्‍मनों तक पहुंचने में कामयाब रहे. वहां पहुंचने के बाद हमारे और पाक सेना के बीच करीब दो दिन तक लड़ाई चली. आखिरकार 13 जून की सुबह चार बजे भारतीय सेना तोलालिंग में भारतीय तिरंगा फहराने में कामयाब रही. 

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