वह नेता जो आगे चलकर भारत का प्रधानमंत्री बना, एक समय ऑपरेशन थिएटर में था. सर्जरी हुई और जब अपने एक मित्र को स्वास्थ्य की जानकारी देनी थी उन्होंने कविता लिखी. वो पंक्तिया आज भी याद की जाती हैं. नीचे पढ़िए उस दिग्गज नेता की प्रसिद्ध कविताएं.
Trending Photos
)
13 अक्टूबर की तारीख आने वाली है. 1999 में इसी दिन अटल बिहारी वाजपेयी ने लगातार दूसरी बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की नई गठबंधन सरकार के प्रमुख के रूप में भारत के प्रधानमंत्री का पद ग्रहण किया था. वह 1996 में बहुत कम समय के लिए प्रधानमंत्री बने थे. जवाहर लाल नेहरू के बाद वह पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जो लगातार दो बार प्रधानमंत्री बने. वाजपेयी को दुनिया अलग-अलग रूपों में जानती है. नेता, शिक्षक, पत्रकार, कवि... उनका अंदाज-ए बयां निराला था. 1988 में जब वह किडनी के इलाज के लिए अमेरिका गए तो प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती को पत्र लिखा. उस पत्र में उन्होंने मौत की आंखों में झांककर 'मौत से ठन गई' कविता के जरिए अपने भाव व्यक्त किए थे. कविता का अंश कुछ यूं है...
मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा जिन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, जिन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
धर्मवीर भारती को लिखे पत्र में अटल जी ने बताया था कि डाक्टरों ने सर्जरी की सलाह दी है. सर्जरी के नाम से उनके मन में एक प्रकार का उथल-पुथल मचा हुआ था और इस मनोदशा के बीच उन्होंने यह कविता लिखी थी. वाजपेयी की कविताएं जीवन का नजरिया भी हैं..
खून क्यों सफेद हो गया? भेद में अभेद हो गया।
बंट गए शहीद, गीत कट गए, कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दराड़ पड़ गई।
उनकी शुरुआती कविताओं में प्रखर और उदार राष्ट्रवाद की भावना दिखाई देती है. नीचे की पंक्तियां आपने एक बार जरूर पढ़ी या सुनी होगी. यह वाजपेयी की रचना है और आपको जानकर ताज्जुब होगा कि उन्होंने यह पंक्तियां उस समय लिखी थीं जब वह 10वीं कक्षा के छात्र थे.
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं जग को गुलाम ?
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए?
कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर में नरसंहार किए?
कोई बतलाए काबुल में जा कर कितनी मस्जिद तोड़ीं?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
वाजपेयी व्यापक अर्थों में व्यक्तिवादी और समाजवादी दोनों थे. 'मेरी इक्यावन कविताएं' किताब में प्रकाशित नीचे की पंक्तियां उन्होंने अपने लिए कही हैं. कब कहीं, जब वह शायद कॉलेज के छात्र भी नहीं थे. समाज और देश के लिए समर्पण की वही यह चेतना है, जो उनके जीवन का निर्देशक तत्त्व बन गई है.
मैं तो समाज की थाती हूं, मैं तो समाज का हूं सेवक,
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
इसी कविता की निम्न पंक्तियां उन्होंने अपने देश की तरफ से कही हैं -
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार-क्षार।
डमरू की वह प्रलय-ध्वनि हूं जिसमें नचता भीषण संहार।
रणचण्डी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआंधार।
फिर अन्तरतम की ज्वाला से, जगती में आग लगा दूं मैं
यदि धधक उठे जल, थल, अम्बर, जड़, चेतन तो
कैसा विस्मय हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
आगे पढ़िए अटल बिहारी वाजपेयी की एक और प्रसिद्ध कविता
विश्व गगन पर अगणित गौरव के दीपक अब भी जलते हैं,
कोटि-कोटि नयनों में स्वर्णिम युग के शत सपने पलते हैं।
शत-शत आघातों को सह कर जीवित हिंदुस्तान हमारा,
जग के मस्तक पर रोली-सा शोभित हिंदुस्तान हमारा।
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसे, बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं, जो खोया उसका ध्यान करें।
डॉ. आशीष वशिष्ठ वाजपेयी पर अपनी किताब में लिखते हैं कि वह हमेशा अपने भाषणों में अपनी कविताएं सुनाया करते थे. अटल जी भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के उदारवादी चेहरा थे राजनीति में प्रवेश से पूर्व एक कवि के साथ-साथ सम्पादक के रूप में भी वाजपेयी प्रख्यात हो चुके थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अटल जी कविताएं लिखते रहे और उनके काव्य संग्रह भी प्रकाशित होते रहे, किन्तु उनकी आरम्भिक कविताओं का एक उदाहरण यहां दिया जा रहा है. यह कविता तत्व लिखी गयी थी, जब 'भारत प्रेस' पर सरकार ने ताला लगा दिया था और प्रमुख नेताओं दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख के अतिरिक्त पूरे देश के संघ कार्यकर्ताओं को जेल में बंद कर दिया गया था. इस कविता का शीर्षक था, 'मातृपूजा प्रतिबंधित'. इसकी कुछ पंक्तियां नीचे दी जा रही हैं-
पुष्प कंटकों में खिलते हैं, दीप अंधेरों में जलते हैं,
आज नहीं, प्रहलाद युगों से,पीड़ाओं में ही पलते हैं।
किन्तु यातनाओं के बल पर, नहीं भावनाएं रुकती है।
चिता होलिका की जलती है, अन्यामी कर ही मलते हैं।
उन्हें जब 'पद्मविभूषण' सम्मान से अलंकृत किया गया था तो दिल्ली में 24 अप्रैल 1992 को अपने सम्मान में आयोजित समारोह में उन्होंने अपनी ऊंचाई कविता पढ़ी थी. उस लंबी कविता में वह कहते हैं.
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई मत देना गैरो को गले न लगा सकूं इतनी स्थाई
कभी मत देना.