150 सालों से इन दो जगहों पर नहीं मनाई जाती होली, खौफ पैदा करने वाला है कारण
वैसे तो होली रंगों को त्यौहार है और पूरा देश मस्ती में रंगों से सरोबार नजर आता है लेकिन हमारे देश में कुछ जगह ऐसी भी हैं जहां कई सालों से होली का त्यौहार नहीं मनाया जा रहा. होली न मनाने की वजह भी बहुत अजीब सी है.
नीलम पड़वार/कोरबा: छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में 2 ऐसे गांव है जहां पिछले 100-150 साल से लोगों ने रंग-गुलाल नहीं उड़ाए. गांव वाले होली न मनाने की वजह देवी माता के प्रकोप को बताते हैं. कोरबा जिले के दो ऐसे गांव हैं जो होली का त्यौहार सालों से बेरंग मनाते हैं. इन गांवों में होली के दिन पकवान तो बनते है पर गांवों में होलिका दहन नहीं होता और न ही रंग-गुलाल उड़ाए जाते हैं.
150 सालों से होली का त्योहार नहीं मनाया गया
जिले का पहला गांव है खरहरी जो कोरबा जिले से 35 किलोमीटर की दूरी पर मां मड़वारानी के मंदिर के पास पहाड़ों के नीचे बसा है. इस गांव में पिछले 150 सालों से होली का त्योहार नहीं मनाया गया है. गांव के बुजुर्गों का मानना है कि उनके जन्म के काफी समय पहले से ही इस गांव में होली न मनाने का रिवाज है. इस गांव में करीब 650 से 700 लोग रहते हैं.
गांव के लोगों का हुआ था भारी नुकसान
गांव के बुजुर्गों के अनुसार, यहां सालों पहले भीषण आग लगी थी. गांव के हालात बेकाबू हो गए थे और गांव भर में महामारी फैल गई थी. इस दौरान गांव के लोगों का भारी नुकसान हुआ था और हर तरफ अशांति फैल गई थी. ऐसे में एक रोज गांव के एक बैगा (हकीम) के सपने में देवी मां मड़वारानी आईं और उन्होंने बैगा को इस त्रासदी से बचने का उपाय बताया. उन्होंने कहा कि गांव में होली का त्योहार कभी ना मनाया जाए तो यहां शांति वापस आ सकती है. तभी से इस गांव में कभी भी होली का त्योहार नहीं मनाया गया. ग्रामीणों ने बताया कि न यहां होलिका दहन होता है और न ही रंग उड़ाए जाते हैं, केवल होली के नाम से पकवान बनते हैं.
दूसरे गांव में जाकर मनाते हैं होली
लोगों का आज भी मानना है कि नियम तोड़कर रंग-गुलाल खेलने वालों पर माता का कहर टूट पड़ता है और वे बीमार हो जाते हैं. चेहरे व बदन पर दाने निकल आते हैं और पूजा-अनुष्ठान के बाद ही सब कुछ ठीक हो पाता है. इसलिए गांव के बड़ों से लेकर बच्चे तक हर कोई नियम का पालन करता है. अब गांव में आने वाले नए लोग अब इन पंरपरों को देखते हुए दूसरे गांव में जाकर होली मना रहे हैं. खासकर शादी होकर आने वाली महिलाएं मायके में जाकर होली मनाना पंसद कर रही है. गांव के टीचर की मानें तो बच्चों मे भी बुजुर्गों की बातों का इतना डर है कि वे होली नहीं मनाना चाहते.
होली खेलने से देवी-देवता हो जाते हैं नाराज
जिले का दूसरा गांव है धमनगुड़ी जो कोरबा से करीब 20 किलोमीटर दूर और मड़वारानी से महज 5 किमी दूर है. इस गांव में भी पिछले 150 सालों से कभी होलिका दहन नहीं हुआ और न ही होली खेली गई. इस गांव में किंवदंती है कि होली खेलने से गांव के देवी-देवता नाराज हो जाते हैं.
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गांव की महिलाओं के शरीर मे प्रवेश कर गई थी देवी
ग्रामीणों की मानें तो सालों पहले जब गांव में पुरुष वर्ग होली मना रहे थे और नशे में गाली-गलौच कर रहे थे तब डंगनहीन माता (बांस की देवी) गांव की महिलाओं के शरीर मे प्रवेश कर गयी और डांग (बांस) से पुरुषों की पिटाई करने लगी. जब पुरुषों ने माफी मांगी तब माता ने उन्हें गांव में होली न मनाने की शर्त पर माफ किया. उस समय से आज तक गांव में होलिका दहन नहीं होता और ना ही रंग-गुलाल खेले जाते हैं. भले ही अब कुछ लोगों को लगता है कि ये अंधविश्वास है और अब इस नियम को बंद कर गांव में होली खेलने की छूट दी जाए.
दोनों गांव में है महज 6 किमी की दूरी
दोनों गांव की दूरी महज 6 किमी है और सालों पहले दोनों ही गांव के लोग पेड़-पौधों को होलिका में काटकर डाल देते थे और होलिका दहन करने के बाद अपशब्दों और गालियों का उपयोग करते थे. आज की पीढ़ी यह मानती है कि पेड़ों की कटाई और गालियों से ही वनदेवी नाराज हुईं और उन्होंने संदेश भेजा कि होली न जलाएं, पेड़ों को न काटें. तब से ये परंपरा कायम है. अब इसे ग्रामीणों की आस्था कहें या अंधविश्वास लेकिन ग्रामीणों की होली ना मनाने की वजह से कई पेड़ कटने से बच जा रहे है पर मासूम बच्चों के मन में होली के रंगों और मस्ती को लेकर जो उत्साह रहता है. वह इन ग्रामों की किंवदंतियों में दब जा रही है.
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