क्या कछुए वाक़ई में उड़ान भर सकते हैं?
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क्या कछुए वाक़ई में उड़ान भर सकते हैं?

निर्भया मामले में भी अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि अगर भीड़ का आक्रोश सामने नहीं आता तो क्या निर्भया को इतनी जल्दी इंसाफ़ मिल पाता?

क्या कछुए वाक़ई में उड़ान भर सकते हैं?

‘टरटल्स कैन फ्लाय’ इराक पर हुए अमेरिकी हमले के दौरान इराक-टरकिश सीमा पर लगे कुर्दिश रिफ़्यूजी कैंप की कहानी है. रिफ़्यूजी कैंप और युद्ध की त्रासदी को बेहद मार्मिक तरह से दिखाती फिल्म में एक पक्ष और है. फिल्म में रिफ़्यूजी कैंप में रहने आए दो बच्चे हैं - एक लड़की एग्रिन और उसका अपाहिज भाई हेंगोव. इनके साथ एक नवजात नेत्रहीन लड़का भी है जिसका नाम रीगा है. रीगा को एग्रिन बिल्कुल पसंद नहीं करती है. इसकी वजह उसके गुज़रे समय की कुछ कड़वी यादें हैं. दरअसल एग्रिन जो अभी खुद बच्ची ही है, वह सैनिकों द्वारा सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई है और इसके बाद ही वह रीगा को जन्म देती है. इसी ख़ौफ़नाक याद की वजह से एग्रिन हमेशा रीगा से पीछा छुड़ाना चाहती है. हालांकि एग्रिन का भाई हेंगोव अपनी बड़ी बहन और अपने भांजे की बहुत देखरेख करता है.

फिल्म के अंत में एग्रिन अपने बच्चे के पैरों को पत्थर से बांध कर झील में फेंक देती है और खुद भी पानी में कूद जाती है. उसका अपाहिज भाई जिसके दोनों हाथ कटे हुए हैं अपनी बेबसी के चलते अपने भांजे को डूबते शरीर को बाहर नहीं निकाल पाता है और जहां से उसकी बहन पानी में कूदी थी वहां खड़ा हुए महज़ अफ़सोस ज़ाहिर करने के अलावा कुछ नहीं कर पाता. कई दिनों से हेंगोव जो बुरा सपना देख रहा था आज वह सच में तब्दील हो चुका था. चंडीगढ़ में एक दस साल की बच्ची का उसके मामा ने सात महीने तक बलात्कार किया और अब उसके गर्भ में एक 26 हफ्ते का भ्रूण पल रहा है. लड़की का ग़रीब परिवार लड़की का गर्भपात करवाना चाहता है, लेकिन क़ानूनी पेचीदगी के चलते वह ऐसा करने में सक्षम नहीं है. 

हमारे देश का क़ानून कहता है कि अगर भ्रूण 20 हफ़्ते से अधिक का है तो गर्भपात करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है. अदालत की अपनी सीमाएं होती हैं जिसमें वो बंधी होती है, लेकिन समाज में फैली विकृत मानसिकता की कोई सीमा नहीं है. अपराधी सीमाओं को लांघ कर अपराध करता है. ऐसे में कई बार फ़ैसले लेने के लिए सीमाओं को लांघना ज़रूरी हो जाता है. इस मामले में लड़की की जांच कर चुके डॉक्टरों का कहना है लड़की की उम्र कम है और उसके कूल्हे की हड्डियां बच्चे के लिए तैयार नहीं है, इस कारण बच्ची और उसके पेट में पल रहे बच्चे दोनों की जान को ख़तरा है. डॉक्टर साफ़ कहते हैं कि अगर दस साल की बच्ची की नॉरमल डिलेवरी या ऑपरेशन के लिए बाध्य किया जाता है तो दोनों की जान को ख़तरा हो सकता है. 

यह वे पहलू हैं जिसके आधार पर उम्मीद की जा रही है कि लड़की के गर्भपात की इजाज़त मिल जाए. लेकिन यह तो मेडिकल पहलू है, उस मनोवैज्ञानिक पहलू का क्या जिसका असर उस लड़की पर आगे जाकर होगा. रोज़ स्कूल जा रही, अपने घर में गुड़िया से खेल रही इस 10 साल की मासूम को यह पता ही नहीं है कि उसके शरीर में क्या हो रहा है. उसको तो यह भी नहीं पता कि उसके साथ उसके अपने करीबी ने क्या किया. यह सोचने वाली बात है कि अगर इस बच्ची की जांच में निकलता कि उसके बच्चा पैदा करने से उसकी जान को कोई ख़तरा नहीं है तब क्या होता. क्या समझ आ जाने पर वह उस बच्चे या बच्ची को स्वीकार कर पाती. यह सच है कि हमें किसी की ज़िंदगी लेने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन क्या वाकई में हम इस तरह से किसी जिंदगी को बचा रहे होते हैं.

ऐसा ही एक मामला हरियाणा का है जहां अपने ही सौतेले पिता से बलात्कार की शिकार 10 वर्षीय लड़की के गर्भपात कराने की अनुमति दे दी गई थी. इस मामले में कोर्ट ने मेडिकल बोर्ड को इस बारे में फैसला लेने का अधिकार दिया था और डॉक्टरों ने गर्भपात करने का फैसला लिया था. खास बात ये है कि इस मामले में ल़ड़की की मां ने अपने पति यानी बलात्कार के आरोपी को छोड़ने की गुज़ारिश की है क्योंकि उसका कहना है जो हो गया सो हो गया, लेकिन अगर उसका पति जेल चला जाएगा तो उसके परिवार का क्या होगा.

इससे पहले केरल में एक पादरी द्वारा एक बच्ची के साथ बलात्कार करने और उसके गर्भवती होने का मामला सामने आया था. यहां भी उम्र कम होने की वजह से कई दिनों तक मां बाप को पता नहीं चल सका था. ख़ास बात ये है कि ये पादरी अपने भाषणों में अक्सर बाल यौन शोषण के विरोध में बात किया करता था, साथ ही उसने एक बार एक सैक्स रैकेट की इत्तिला भी पुलिस को दी थी. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को कई महिलाओं की याचिकाएं मिली हैं जिनमें बलात्कार पीड़ित और मानव तस्करी की शिकार महिलाएं शामिल हैं, उन्होंने गर्भधारण के 20 हफ्ते से अधिक होने पर भी गर्भपात करने की इजाज़त मांगी है.

ऐसा नहीं है कि अदालत ने सीमाओं को लांघ कर कभी कोई फैसला नहीं लिया है, हाल ही में दिल्ली की निचली अदालत ने एक अनोखा कदम उठाया जब जज ने पांच साल की बच्ची के हाथ में खेलने वाली गुड़िया दी जिसके ज़रिये उस बच्ची ने बताया कि उसके साथ क्या हुआ था. अदालत ने मामले की फाइल को देखकर यह पाया था कि यौन उत्पीड़न से गुज़रने की अपनी व्यथा बताते हुए यह बच्ची बचाव पक्ष के वकील द्वारा पूछे गए परेशान करने वाले, अपमानजनक, गंदे और अश्लील सवालों के जवाब देने में हिचक रही थी. इसके बाद बच्ची को खिलौने की गुड़िया दी गई जिससे वह ज़्यादा सहज तरीक़े से बता पाई कि उसके साथ क्या हुआ था.  

निचली अदालत के न्यायाधीश के इस नये तरीके ने सही नतीजे दिये. कोर्ट ने कहा कि 23 साल के इस व्यक्ति को सुनाई गई सजा साक्ष्य को सही तरह से समझने पर आधारित थी और इसमें किसी भी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है. ऐसे फैसले विरले ही देखने या सुनने को मिलते हैं, लेकिन ऐसा तभी होता है जब मानवीय पहलू पर ग़ौर किया जाता है, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करे कि उस बच्ची के परिवार या ख़ुद उस बच्ची पर क्या बीत रही होगी. बीते दिनों ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब अपनी बच्ची के साथ ऐसा हुआ देखकर उसके परिवारजन ने या जनता ने फ़ैसला लेने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया.

1996 में एक फ़िल्म आई थी ‘टाइम टू किल’. फिल्म की कहानी एक ऐसे मजबूर अश्वेत पिता की है जिसकी 10 साल की बेटी का दो गोरे ना सिर्फ बलात्कार करते हैं बल्कि उसे पेड़ से फांसी पर लटका देते हैं. किसी तरह वो लड़की बच जाती है, लेकिन बुरी तरह से ज़ख्मी लड़की के शरीर के कई अंग बेकार हो जाते हैं और वो अब कभी मां भी नहीं बन पाएगी. आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया जाता है. पिता का वकील एक गोरा है कहता है कि हो सकता है दोनों आरोपियों को गोरे होने का लाभ मिले जिसकी वजह से वह जल्दी ही छूट जाएं. यह सुनकर पिता एक फ़ैसला लेता है और मॉल में दोनों लड़कों को सरे आम गोली मार देता है. पुलिस अब पिता को गिरफ़्तार कर लेती है और उसके ख़िलाफ़ केस चलता है. आगे की कहानी अब इस अश्वेत पिता को बचाने और फांसी चढ़ाने की जद्दोजहद पर चलती है.

पिछले साल अप्रैल में पंजाब के भठिंडा में हुई एक घटना ने इस कहानी को हक़ीक़त में लाकर खड़ा कर दिया. बठिंडा में एक पिता ने अपनी सात महीने की बच्ची के साथ बलात्कार करने वाले आरोपी के दोनो हाथ काट दिए थे. बच्ची के साथ बलात्कार की घटना दो साल पहले 2014 में हुई थी. तभी से आरोपी ज़मानत पर था और मामला कोर्ट में विचाराधीन था. आरोपी को अपने ही हाथों से सज़ा देने वाले पिता को गिरफ़्तार कर लिया गया और उसने अपना गुनाह मानते हुए कहा कि उसे अपने किए पर कोई अफ़सोस नहीं है. ईंट भट्टे में काम करने वाला मज़दूर पम्मा उस दिन अपनी सात महीने की बेटी को घर पर छोड़ कर मज़दूरी करने गया था. उसी दौरान आरोपी परमिंदर ने उस बच्ची के साथ ये कुकर्म किया था. आरोपी को बलात्कार की धाराओं के तहत गिरफ़्तार तो किया गया, लेकिन तीन महीने में ही वो ज़मानत पर रिहा हो गया और तब से आज़ाद घूम रहा था.

इससे पहले दीमापुर में भी बलात्कार के एक आरोपी को भीड़ ने जेल से निकाल कर पीट पीट कर मार डाला था. निर्भया मामले में भी अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि अगर भीड़ का आक्रोश सामने नहीं आता तो क्या निर्भया को इतनी जल्दी इंसाफ़ मिल पाता? ‘टाइम टू किल’ के आखिरी सीन में आरोपी पिता का वकील उस कोर्ट के जज और ज्यूरी (जो गोरे समाज की पक्षधर है और निर्णय ले चुकी है) से कहता है कि वो उन्हें एक कहानी सुनाना चाहता है. सभी लोग कृपा करके अपनी आंखे बंद कर लें. फिर वकील उन्हें एक लड़की के साथ हुए बलात्कार और क्रूरता की कहानी सुनाता है. कहानी ख़त्म होने के बाद वह सभी से कहता है कि अब आप अपनी आंखे खोलिये और फ़र्ज़ कीजिए की वह लड़की गोरी थी.

यह सही है कि समाज से बलात्कार जैसी घटनाओं को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता है, यह एक विकृत मानसकिता की निशानी है जिसे कई बार पहचान पाना भी मुश्किल हो जाता है, लेकिन न्याय करने वाले, न्याय दिलाने वाले और कानून बनाने वालों को बहुत कुछ फ़र्ज़ करना बेहद ज़रूरी है. उन्हें फ़र्ज़ करना होगा कि अगर यह घटना उनके साथ होती तो क्या होता? शायद अगर हमारे क़ानून निर्माता इस बात की गंभीरता पर विचार करें तो हम समाज में फैली इस विसंगति पर लग़ाम कस सकते हैं क्योंकि वैसे तो हमारे तंत्र को उसकी सुस्त रवैये और रोबोटिक फ़ैसलों के लिए कछुए से तुलना की जाती है, लेकिन अगर ये कछुआ चाह ले तो यह भी उड़ सकता है.

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