Supreme Court: फैमिली कोर्ट के एक फैसले की आलोचना करते हुए जस्टिस अमानुल्लाह ने कहा कि 'काजी कोर्ट', 'शरिया कोर्ट' और इसी तरह के अन्य कोर्ट को कानून में कोई मान्यता नहीं है. उनका फैसला बाध्यकारी नहीं है और किसी को भी इसे कबूल करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.
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Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने आज 'शरिया अदालत' को लेकर एक अहम टिप्पणी की है. सुप्रीम कोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान दोहराया कि 'काजी की अदालत', 'काजियात की अदालत (दारुल कजा)' या 'शरिया अदालत' जैसी इस्लामी अदालतों को कानून में कोई मान्यता नहीं है. कोर्ट ने साफ किया कि इनके द्वारा दिया गया कोई भी निर्देश कानून में लागू नहीं होता और न ही इनके फैसले बाध्यकारी होते हैं.
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की बेंच ने 4 फरवरी को गुजारा भत्ता मांगने वाली एक महिला की अपील पर सुनवाई करते हुए 2014 के एक फैसले का हवाला दिया. दरअसल, 2014 के फैसले में कहा गया था कि शरीयत अदालतों और फतवों को कानूनी मान्यता नहीं है. फैमिली कोर्ट ने महिला को गुजारा भत्ता देने से मना कर दिया था, क्योंकि अदालत ने इस्लामी कोर्ट में दायर किए गए समझौते के आधार पर यह फैसला दिया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस निर्णय को बरकरार रखा.
फैमिली कोर्ट के फैसले की आलोचना करते हुए जस्टिस अमानुल्लाह ने रेखांकित किया कि 'काजी कोर्ट', '(दारुल कजा) काजियत कोर्ट', 'शरिया कोर्ट' और इसी तरह के अन्य कोर्ट को कानून में कोई मान्यता नहीं है. उनका फैसला बाध्यकारी नहीं है और किसी को भी इसे कबूल करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है.
कोर्ट ने लगाई फटकार
कोर्ट ने कहा कि अपवाद तब था जब प्रभावित पक्ष अपनी मर्जी से निर्णय को स्वीकार करते हैं और उस पर अमल करते हैं और ऐसी कार्रवाई देश के कानून के साथ टकराव में नहीं होती है. शीर्ष अदालत ने कहा कि तब भी, ऐसे फैसले केवल उन पक्षों के बीच मान्य होंगे जो इसे कबूल करना चाहते हैं, किसी तीसरे पक्ष के लिए नहीं. जजों ने फैमिली कोर्ट के इस तर्क की भी आलोचना की कि चूंकि यह दोनों की दूसरी शादी थी, इसलिए पति द्वारा दहेज मांगने की कोई संभावना नहीं थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस तरह का नतीजा अनुमान है और कानून की अज्ञानता को दर्शाता है.
क्या है पूरा मामला?
बेंच ने महिला के पूर्व पति को निर्देश दिया कि वह महिला को 4,000 रुपये प्रतिमाह गुजारा भत्ता दे. न्यायाधीशों ने तय किया कि यह भुगतान उस वक्त से होना चाहिए जब वह फैमिली कोर्ट गई थी. महिला की शादी सितंबर 2002 में इस्लामी रीति-रिवाज से हुई थी. यह दोनों की दूसरी शादी थी. उसके पति ने 2009 में इस्लामी अदालत के ज़रिए उसे तलाक दे दिया था. इसके बाद महिला ने भरण-पोषण के लिए फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन कोर्ट ने यह कहते हुए उसके दावे को खारिज कर दिया कि उसके पति ने उसे नहीं छोड़ा है. फैमिली कोर्ट ने कहा कि विवाद और वैवाहिक घर से जाने का मुख्य कारण वह खुद ही थी, क्योंकि उसका स्वभाव और आचरण ऐसा था.