'लैब गर्ल' विज्ञान, लैंगिक भेदभाव और सफलता पर एक महिला की कहानी
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'लैब गर्ल' विज्ञान, लैंगिक भेदभाव और सफलता पर एक महिला की कहानी

आमतौर पर कोई लेखक आस पास की दुनिया से बेखबर, अपने ही विचारों और कल्पनाओं में गुम होता है लेकिन ‘लैब गर्ल’ की लेखिका अमेरिका की जियोबायलॉजिस्ट होप जारेन ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष विचारों और कल्पनाओं से दूर प्रयोगशाला में माइक्रोस्कोप के जरिए नन्हें बीज को विकसित होते देखने में गुजारे और बस यहीं से उनके एक वैज्ञानिक के साथ ही लेखक बनने की नींव पड़ी.

होप जारेन की आत्मकथा 'लैब गर्ल'. (गूगल फोटो)

नई दिल्ली: आमतौर पर कोई लेखक आस पास की दुनिया से बेखबर, अपने ही विचारों और कल्पनाओं में गुम होता है लेकिन ‘लैब गर्ल’ की लेखिका अमेरिका की जियोबायलॉजिस्ट होप जारेन ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष विचारों और कल्पनाओं से दूर प्रयोगशाला में माइक्रोस्कोप के जरिए नन्हें बीज को विकसित होते देखने में गुजारे और बस यहीं से उनके एक वैज्ञानिक के साथ ही लेखक बनने की नींव पड़ी.

होप की यह आत्मकथा पिता की प्रयोगशाला में किसी जिज्ञासु बच्चे से विश्वविद्यालय की प्रोफेसर बनने, फिर शोधकर्ता के होते हुए एक महिला वैज्ञानिक बनने तक की यात्रा का वर्णन है. हाल ही में यह किताब भारत में लॉन्च हुई है जिसे काफी पसंद किसा जा रहा है. होप मूल रूप से स्कैंडेनेविया से हैं लेकिन तीन भाइयों के साथ उनका पालन पोषण अमेरिका में हुआ. उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि शुरूआती दिनों में उन्हें जिस बात का अहसास हुआ वह यह था कि पुरूष प्रधान समाज में वह एक महिला है.

एक बच्चे के तौर पर वह अपने पिता की प्रयोगशाला में काफी वक्त बिताती थीं. पांच वर्ष की नन्ही सी आयु में उन्हें समझ आ गया कि ‘मैं जो कुछ भी थी, एक लड़के से कम थी.’ होप पुराने वक्त में लौटते हुए लिखती हैं कि वह दिन ‘लड़की होने के अहसास के साथ’ गुजारती थीं और शाम के वक्त वैज्ञानिक बन जाती थीं.

वह लिखती हैं, ‘दिन में मैं खुद को संवारने और अपनी सहेलियों से साथ कौन किसको पसंद करता है जैसी गॉसिप करती थीं लेकिन देर शाम मैं पिता के साथ लैब जाती थी, जब इमारत खाली लेकिन रोशनी से भरपूर होती थी. वहां मैं एक लड़की से वैज्ञानिक में तब्दील हो जाती थी.’ लेकिन जैसे जैसे वह बड़ी होती गईं अकेली महिला होने अथवा वैज्ञानिक तबके में अल्पसंख्यक होने की भावना उन्हें हमेशा परेशान करती रहीं.

उन्होंने कहा कि सार्वजनिक और निजी संस्थान विज्ञान के भीतर लैंगिक भेदभाव की प्रक्रिया पर अध्ययन कर चुके हैं. होप पुस्तक में लिखतीं हैं, ‘मेरे अपने संक्षिप्त अनुभव के अनुसार, लैंगिक भेदभाव बेहद सामान्य बात है. लगातार इस बात का बोझ उठाना पड़ता है कि जैसे आप हो उसे वहां वैसे पेश नहीं कर सकते.’ इस किताब में प्रयोगशाल की अनेक ऐसी बातें हैं जिन्हें होप ने अपने जीवन से जोड़ कर कागज पर उतारा है.

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