Wasiqa: आज हम आपको नवाबों के परिवार को मिलने वाले 'वसीका' के बारे में बताने जा रहे हैं, यह वो रकम है जो नवाबों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को कर्ज के तौर पर दी थी और अब उसका ब्याज मिल रहा है. हालांकि यह रकम इतनी कम है कि इसके बदले में शायद एक पान खरीदना भी मुश्किल हो जाए.
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Wasiqa: कुछ परंपराएं ऐसी होती थीं जिनके बारे में जब आज की नस्ल को पता चलता है तो हैरानी होती है. आज हम आपको ऐसी ही एक कहानी बताने जा रहे हैं जो 170 साल से चली आ रही है. इस परंपरा का नाम 'वसीका' है. इसके तहत लखनऊ के नवाबों की अगली पीढ़ी और या फिर नवाबों से जुड़े लोगों को पेंशन मिलती है. हालांकि यह पेंशन इतनी कम होती है कि इसे लेने जाने के लिए खर्च होने वाली रकम, पेंशन के तौर पर मिलने वाली रकम से कई गुना ज्यादा होती है.
बीबीसी उर्दू की एक खबर के मुताबिक 90 वर्षीय फैयाज अली खान हर साल यह पेंशन लेने आते हैं. उम्र की वजह से उन्हें चलने में भी दिक्कत होती है, हालांकि वे इस परंपरा को निभाने के लिए हर बार खुद पहुंचते हैं. इस बार जब वो पेंशन लेने पहुंचे तो उन्हें 13 महीने बाद सिर्फ 130 रुपये मिले. फैयाज अली खान का कहना है कि हमें यह वसीका हमारे दादा और परदादा के जमाने से मिलता आ रहा है. यह इतनी कम रकम है इसे लेने के लिए साल में सिर्फ एक बार आता हूं.
वसीका असल में एक ऐतिहासिक दस्तावेज या विरासत है, जिसके तहत अवध के नवाबों से जुड़े लोगों को पेंशन दी जाती रही है. यह परंपरा 1817 में शुरू हुई, जब नवाब शुजाउद्दौला की पत्नी बहो बेगम ने करीब चार करोड़ रुपये ईस्ट इंडिया कंपनी को इस शर्त पर कि उनके रिश्तेदारों और कर्मचारियों को हर महीने ब्याज के रूप में राशि मिलेगी.
वसीका एक ऐतिहासिक दस्तावेज या विरासत है, जिसके तहत अवध के नवाबों से जुड़े लोगों को पेंशन दी जाती रही है. यह परंपरा 1817 में शुरू हुई, जब नवाब शुजाउद्दौला की पत्नी बहो बेगम ने लगभग चार करोड़ रुपये ईस्ट इंडिया कंपनी को इस शर्त पर दिए कि उनके रिश्तेदारों और कर्मचारियों को हर महीने ब्याज के रूप में राशि मिलती रहे.
दिलचस्प बात यह है कि 1857 की लड़ाई और आजादी (1947) के बाद भी यह परंपरा खत्म नहीं हुई. आज भी लखनऊ के लगभग 1200 लोग यह नवाबी पेंशन पाते हैं. यह पेंशन सरकारी ‘विल ऑफिस’ और हुसैनाबाद ट्रस्ट के माध्यम से दी जाती है. कुछ पेंशन बैंक खातों में भेजी जाती है, जबकि हुसैनाबाद ट्रस्ट अब भी नकद भुगतान करता है.
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दरअसल पहले जो पेंशन पांच सौ रुपये की होती थी, वह अब पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंटते-बंटते 'कुछ पैसों तक सिमट गई' है. कई लोगों को महज 3 से 10 रुपये तक पेंशन मिलती है. मिसाल के तौर पर समझें तो अगर किसी नवाब को पांच सौ रुपये की वसीयत मिली हुई और उसके पांच बेटे थे, तो नवाब की मौत के बाद वसीयत को पांच हिस्सों में बांटा जाएगा और हरेक को 100-100 रुपये मिलेंगे. इसके अलावा फैयाज अली का कहना है कि हमें नवाबों के जमाने के हिसाब से चार फीसद सूद पर ही यह पेंशन मिलती है. जबकि आज बैंकों में ब्याज की दर कही ज्यादा है.
बीबीसी ने अपनी रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार के वसीका या विल ऑफिसर एसपी तिवारी के हवाले से बताया कि बहो बेगम के समय जमा की गई रकम अब लखनऊ के एक बैंक में लगभग 26 लाख रुपये के तौर पर सुरक्षित है और इसी ब्याज से पेंशन दी जा रही है. कई लोग इसे नवाबी दौर की याद मानते हैं, जबकि कुछ इसे जमींदारी युग की बची हुई निशानी कहते हैं. फैयाज अली कहते हैं,'पैसे से फर्क नहीं पड़ता, यह हमारी पहचान और इज्जत है. अगर एक पैसा भी मिले तो हम हजार रुपये खर्च करके लेने आएंगे.'