बस्तर: 400 साल पुराने दलपत सागर को स्वयंसेवा से बचाने में जुटे शहरवासी
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बस्तर: 400 साल पुराने दलपत सागर को स्वयंसेवा से बचाने में जुटे शहरवासी

बस्तर की प्राणदायिनी इंद्रावती नदी को बचाने के लिए शुरू हुई मुहिम ने बस्तर मुख्यालय जगदलपुर में वृहद आंदोलन की शुरुवात कर दी है.

दलपत सागर के इतिहास पर एक नजर दौड़ाई जाए, तो सन 1772 में राजा दलपत देव ने इस तालाब को शहर के वाटर लेवल तथा निस्तारी के लिए बनाया था.

बस्तर: बस्तर मुख्यालय के लोगों ने छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े तालाब की सफाई करने के लिए महाअभियान छेड़ रखा है. यह तालाब पिछले 10-12 सालों से उपेक्षित पड़ा है. उचित रखरखाव और शासन की किसी योजना का क्रियान्वयन नहीं होने के कारण तालाब पूरी तरह से विलुप्त होने की कगार पर आ गया है. शहर के लोगों ने इस तालाब को वापस मूल स्वरूप में लाने के लिए एक वृहद अभियान की शुरुआत की है. अभियान के तहत सुबह 6 बजे से 8 बजे तक नगरवासी तालाब में फैली गंदगी और जलकुम्भियों को बाहर निकाल रहे हैं. एकजुटता का ही नतीजा है कि प्रतिदिन यहां से 3 से 4 टन जलकुंभियों और कचरा को बाहर निकाल रहे हैं.

बस्तर की प्राणदायिनी इंद्रावती नदी को बचाने के लिए शुरू हुई मुहिम ने बस्तर मुख्यालय जगदलपुर में वृहद आंदोलन की शुरुवात कर दी है. अभियान से जुड़े  सदस्यों और नगरवासियों ने छतीसगढ़ के सबसे बड़े तालाब को सरंक्षित करने के बेड़ा उठाया है. इंद्रावती नदी के सूख जाने से बस्तर के लोगों ने शासन के प्रति काफी आक्रोश जताया था. 14 दिन तक पदयात्रा कर इंद्रावती बचाने के लिए बड़ा आंदोलन छेड़ा था. वर्षा ऋतु में अभियान के सदस्यों द्वारा 5 हजार पौधे रोपण करने के बाद छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े तालाब की दुर्दशा को देखते हुए एक नये अभियान की शुरुआत की गई है. 5 नवंबर से शुरू हुए इस अभियान में लगातार लोग जुड़ते जा रहे हैं.

प्रतिदिन उत्साह के साथ लोगों का जमावड़ा दलपत सागर में देखने को मिल रहा है. अब तक शासन प्रशासन का कोई सहयोग अभियान के सदस्यों को नहीं मिला है. दलपत सागर के इतिहास पर एक नजर दौड़ाई जाए, तो सन 1772 में राजा दलपत देव ने इस तालाब को शहर के वाटर लेवल तथा निस्तारी के लिए बनाया था. समय के साथ साथ यह तालाब उपेक्षित होने लगा. आज इस विशाल तालाब की स्थिति बद से बदतर हो चुकी है. हालांकि पूर्व की सरकार में इस तालाब को बचाने का प्रयास किया गया. लेकिन, इच्छाशक्ति की कमी के आगे इस विशाल तालाब की कुछ नहीं चली. आज परिस्तिथियां अलग हो चुकी हैं. तालाब का पानी जहरीला हो चुका है, ना यह पीने के योग्य है और ना ही पानी का इस्तेमाल अन्य प्रयोजन में किया जा सकता है.

लगभग 400 साल पहले बस्तर रियासत के महाराजा दलपतदेव ने इस तलाब का निर्माण सिंचाई और निस्तारी के लिये किया था. ग्राम मधोता से 1772 में राजधानी जगदलपुर शहर में शिफ्ट किया गया था. उसी दौरान राजा ने इस विशाल तालाब का निर्माण करवाया. आगे जाकर यह तालाब दलपत सागर के नाम से प्रसिद्ध हुआ. प्रदेश में यह सबसे बड़े तालाबों में गिना जाता है. बताया जाता है कि रियासतकालीन दौर में 50 से अधिक तालाब जल संग्रहण के लिये बनाये गये. उस दौर में जल संचय के लिये बेहतर कार्य किये जाते थे. परंतु वक्त के साथ साथ तालाबों की स्थिति दयनीय होती चली गई और आज यह स्थिति है कि आधे से ज्यादा तालाब और कुंए विलुप्त हो चुके हैं. उनमें कब्जा कर क्रंकीट का जंगल बना दिया गया है. 

अब कुछ ऐसे तलाब ही बचे हैं, जो बस्तर की धरोहर हैं. उन्ही में से एक बड़े तलाब को संरक्षित करने का जिम्मा उठाया है इंद्रावती बचाओ जनजगरण अभियान के सदस्यों ने. अभियान से जुड़े सदस्यों की मानें तो, तालाब को पूरी तरह साफ करने का काम आसान नही है, जब तक शासन प्रशासन का सहयोग प्राप्त ना हो. मगर अभियान के माध्यम से साफ सफाई लगातार करने से कम से कम तलाब के किनारे फेंके गये कचरों को तो बाहर निकाला ही जा सकता है और शासन का ध्यान इस और आकर्षित किया जा सके.

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