संजय लोहानी/सतनाः सतना जिले का एक गांव आज भी महात्मा गांधी की विरासत संभाल रहा है. दरअसल इस गांव के हर घर में चरखा चलाया जाता है. गांव के लोग चरखे पर सूत कातकर कंबल और अन्य चीजें बुनते हैं. इस तरह ये चरखा ही गांव के लोगों की रोजी-रोटी का साधन है. हालांकि अब बीतते वक्त के साथ यह विरासत कमजोर पड़ रही है. 


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बता दें कि सतना जिला मुख्यालय से करीब 90 किलोमीटर दूर बसा एक गांव सुलखमा है. इस गांव के हर घर में चरखा चलाया जाता है और इस चरखे पर सूत कातकर गांव के लोग कंबल आदि बनाते हैं. जिन्हें बेचकर लोगों की आजीविका चलती है. इस तरह ये गांव आज भी महात्मा गांधी के बताए रास्ते पर चल रहा है और स्वावलंबी है. चरखा चलाना इस गांव की जरूरत भी है और परंपरा भी. 


पाल जाति बहुल इस गांव की कुल आबादी साढ़े तीन हजार है. इस गांव की पुरुषों के साथ ही महिलाएं भी इस विरासत को संभाले हुए हैं. दरअसल महिलाएं चरखा चलाकर सूत कातती हैं और घर के पुरुष उस सूत से कंबल आदि बनाकर उन्हें बेचकर आजीविका चलाते हैं. हालांकि अब यह परंपरा या कहें कि विरासत कमजोर पड़ रही है. इसकी वजह ये है कि 15 दिन में तैयार होने वाले कंबल से अब गांव के लोगों की मजदूरी नहीं निकल पा रही है. 


गांव के लोगों को इस विरासत को बचाने के लिए प्रशासन की भी मदद नहीं मिल रही है. जिसके चलते महंगाई बढ़ने और खर्चे बढ़ने के कारण अब गांव के युवा छोटे-बड़े शहरों का रुख कर रहे हैं. प्रशासन ने गांव में एक प्रशिक्षण केंद्र खोला था लेकिन इस भवन का ना ताला खुला है और ना ही लोगों को यहां प्रशिक्षण दिया गया है.