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गाजियाबादः 1980 के दशक का दौर चल रहा था. साल 1989 में कश्मीरी पंडितों (Kashmiri Pandit) को चुन-चुनकर मारा जा रहा था. आजाद भारत के इतिहास में पहली कोई इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी थी, जब सिर्फ कश्मीरी पंडित या यूं कहें कश्मीरी हिंदू (Kashmiri Hindu) होने की वजह से लोग मारे जा रहे थे. बहन-बेटियों की इज्जत सरेआम लूटी जा रही थी. गलियों में नारे लगाए जा रहे थे कि हिंदुओं कश्मीर छोड़कर जाओ. इस भयावह त्रासदी को देखने वाले कश्मीरी पंडित महाराज कृष्ण कौल (Maharaj Krishna Kaul) हैं, जिन्होंने उस मानवीय त्रासदी को झेला और किसी तरह जान बचाकर वहां से निकले.
जिस घर जमीन और संस्कृति को पूर्वजों ने आगे बढ़ाते हुए, उन्हें सौंपा था. वो सब एक झटके में छूट गया. वजह जिंदा रहने और अस्तित्व बचाने की थी. अपने अस्तित्व को बचाने के लिए महाराज कृष्ण कौल (Maharaj Krishna Kaul) सबकुछ वहीं छोड़कर निकले. साथ में अगर कुछ लेकर आए तो वो सिर्फ उर्दू में लिखी श्रीमद्भागवत गीता (Shrimad Bhagwat Geeta) थी. उर्दू में लिखी उस पवित्र किताब श्रीमद्भागवत गीता को साथ लेकर वहां से निकले.
दरअसल, यह किताब उनके मामा ने 6 वर्ष की उम्र में उपहार के तौर पर दी थी. आज 70 वर्ष की आयु में भी इस पुस्तक को पूरे दिन में कम से कम दो बार जरूर पढ़ते हैं. महाराज कृष्ण कौल (Shrimad Bhagwat Geeta) बताते हैं कि कश्मीर में हिंदी पढ़ने का कोई विकल्प नहीं था और उर्दू पढ़ना हर कश्मीरियों (KASHMIRI) के लिए अनिवार्य था.
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उन्होंने बताया कि इसकी वजह से उन्हें बचपन से ही उर्दू की तालीम लेनी पड़ी. ऐसे में उनके मामा ने उर्दू में लिखी हुई श्रीमद्भागवत गीता उन्हें लाकर दी. यह पुस्तक लाहौर (Lahore) में छपी थी और इसके ट्रांसलेटर लाहौर के एक प्रोफेसर थे.
उस दौर को याद करते-करते महाराज कृष्ण कौल (Maharaj Krishna Kaul) की आंख भर आईं. उन्होंने उस वक्त के हालात का जिक्र करते हुए बताया कि किस तरह से उनकी आंखों के सामने उनके दोस्त और परिवार को मार दिया गया. उन यादों से आज भी महाराज कृष्ण कौल सिहर जाते हैं. वह बताते हैं कि कैसे उनके दोस्तों को तेजाब के अंदर डाल दिया गया. कैसे रातों-रात घर जला दिए गए. आनन-फानन में महाराज कृष्ण कौल अपने बचपन की धरोहर उर्दू में लिखी गीता (Urdu written Geeta) ले आए. हालांकि, वह संतुष्टि के साथ कहते हैं किए श्रीमद्भागवत गीता की ही कृपा है कि वह आध्यात्म की तरफ बढ़े.
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