संघ के किसी कार्यकर्ता ने प्रणब मुखर्जी के नागपुर दौरे का विरोध क्‍यों नहीं किया?
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संघ के किसी कार्यकर्ता ने प्रणब मुखर्जी के नागपुर दौरे का विरोध क्‍यों नहीं किया?

'सेक्‍युलर' विचारधारा के कुछ लोगों ने यह तक कहा कि प्रणब मुखर्जी की इस यात्रा से आरएसएस के विचारों की एक तरह से 'स्‍वीकार्यता' बढ़ेगी.  

संघ प्रमुख मोहन भागवत के आमंत्रण पर प्रणब मुखर्जी 7 जून को नागपुर में संघ के हेडक्‍वार्टर जा रहे हैं.(फाइल फोटो)

पूर्व राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी सात जून को राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ(आरएसएस) के नागपुर हेडक्‍वार्टर में तृतीय वर्ष ट्रेनिंग प्रोग्राम के मुख्‍य अतिथि के रूप में शिरकत करने पहुंच रहे हैं. इसमें शामिल होने के लिए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आमंत्रण को प्रणब मुखर्जी द्वारा स्‍वीकार किए जाने के बाद सियासी गलियारे में भूचाल सा आ गया है. कांग्रेस के कई नेताओं ने तो अपने इस पुराने दिग्‍गज नेता से फैसले पर पुनर्विचार का आग्रह तक कर डाला. 'सेक्‍युलर' विचारधारा के कुछ लोगों ने यह तक कहा कि प्रणब मुखर्जी की इस यात्रा से आरएसएस के विचारों की एक तरह से 'स्‍वीकार्यता' बढ़ेगी.  

  1. प्रणब मुखर्जी सात जून को जाएंगे संघ के हेडक्‍वार्टर
  2. उनके संघ के प्रोग्राम में चीफ गेस्‍ट बनने का हो रहा विरोध
  3. आएसएस विचारकों ने इस मामले में रखा अपना पक्ष

हालांकि इस तस्‍वीर का एक दूसरा पहलू भी है. आरएसएस के किसी नुमांइदे, स्‍वयंसेवक या कार्यकर्ता ने अभी तक इसका कोई विरोध नहीं किया है. यहां तक कि संघ से ताल्‍लुक रखने वाले बीजेपी के नेताओं ने भी कोई सवाल नहीं उठाए. वहां से भी तो यह आवाज उठ सकती थी कि दशकों तक कांग्रेस की सियासत करने वाले प्रणब मुखर्जी को संघ अपने किसी प्रोग्राम का चीफ गेस्‍ट क्‍यों बना रहा है? इसके उलट संघ के कई दिग्‍गजों ने इसका समर्थन करते हुए सार्वजनिक रूप से आलेख लिखे हैं. इसी कड़ी में संघ के सह-कार्यवाह (संयुक्‍त महासचिव) मनमोहन वैद्य ने द इंडियन एक्‍सप्रेस में एक आर्टिकल लिखकर इसका जवाब देने का प्रयत्‍न किया है. उन्‍होंने लिखा कि भारतीय और अ-भारतीय(विदेशी) चिंतन के परिप्रेक्ष्‍य में विचारों के इस अंतर को समझने की जरूरत है कि एक पक्ष इसका विरोध कर रहा और दूसरा समर्थन कर रहा है.

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मनमोहन वैद्य
उन्‍होंने अपने आर्टिकल में लिखा, ''प्रणब मुखर्जी दशकों तक सार्वजनिक जीवन में रहे हैं. इस कारण ही उनको आमंत्रित किया गया है ताकि सामाजिक और राष्‍ट्रीय महत्‍व के विषयों पर उनके विचारों को सुनने का मौका स्‍वयंसेवकों को मिल सके. उनको भी संघ सीधे तौर पर अनुभव मिलेगा. भारतीय चिंतन की धारा में इस तरह के विचारों और दृष्टिकोणों के आदान-प्रदान का समावेश मिलता है. लेकिन फिर भी विचारों के परस्‍पर विनिमय का अलोकतांत्रिक विरोध हो रहा है?''

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उन्‍होंने इसके साथ ही लिखा, ''हालांकि इस तरह के विचारधारात्‍मक विरोध का कारण स्‍पष्‍ट है. देश के बौद्धिक परिदृश्‍य की अधिसंख्‍य आवाजें एक ऐसी विदेशी विचारधारा से प्रेरित हैं, जिसको उच्‍च स्‍तर की असहिष्‍णुता और हिंसा के माध्‍यम से अनुरूपता(साम्‍यवाद) लाने की ख्‍वाहिश के कारण दुनिया भर के लोगों ने खारिज कर दिया है.'' उनकी 'वैचारिक समानता' की विचारधारा इस तरह के परस्‍पर भिन्‍न विचार-विनिमय की स्‍वस्‍थ परंपरा को खारिज करती है. इसी कारण आमतौर पर यदि आप कथित वामपंथी उदारवादी नहीं है तो आपको सीधेतौर पर दक्षिणपंथी कहा जाने लगता है. नतीजतन आपको ऐसे व्‍यक्ति के रूप में देखा जाने लगता है जिसकी सार्वजनिक रूप से आलोचना की जानी चाहिए.

केएन गोविंदाचार्य
इसी विषय पर आरएसएस के पूर्व प्रचारक केएन गोविंदाचार्य ने बीबीसी हिंदी में लिखे एक लेख में लिखा, ''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विस्तार का पहला क़दम है नवीन संपर्क यानी नये लोगों से संपर्क करना. उनका स्वभाव, प्रकृति और संघ के बारे में उनकी क्या जानकारी है ये सब जान-समझकर संघ के कार्य के बारे में उनसे संवाद स्थापित करना.

आत्मीयता और आदरपूर्वक संघ के स्वयंसेवक नए व्यक्ति को संघ से परिचित कराते हैं. प्रश्नों का, जिज्ञासाओं का उत्तर देते हैं, उत्तर नहीं सूझने पर अपने अधिकारी से बातचीत कराने का वादा करते हैं और फिर संपर्क, संवाद जारी रहता है. संघ की मान्यता है कि संभावनाओं के तहत संपूर्ण समाज के सभी लोग स्वयंसेवक हैं, इनमें से कुछ आज के हैं, और कुछ आने वाले कल के...''

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